DNA ANALYSIS: अंटार्कटिका में टूटा 3 दिल्ली शहर के जितना बड़ा `पहाड़`, वैज्ञानिकों ने कहा- कोरोना से बड़ा खतरा
दुनिया का सबसे बड़ा हिमखंड A76 अंटार्कटिका से टूटकर अलग हो गया है. ये हिमखंड 3 दिल्ली शहर के जितना बड़ा है, जो अब दक्षिणी महासागर के वेडेल सी में प्रवेश कर चुका है. वैज्ञानिकों का कहना है कि ये कोरोना से भी ज्यादा बड़ा खतरा है.
नई दिल्ली: पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन (Climate Change) और ग्लोबल वॉर्मिंग (Global Warming) का विषय अक्सर वैज्ञानिकों के शोध और सेमिनार तक ही सीमित है. इन सेमिनार में कुछ देर के लिए इस पर बात होती है लेकिन इसके बाद इस विषय को भूला दिया जाता है. जैसा कि हममें से कई लोग अपने स्वास्थ्य को लेकर लापरवाही करते हैं, वही लापरवाही हम पृथ्वी के स्वास्थ्य को लेकर भी दिखाते हैं. ये लापरवाही कितने गंभीर परिणाम दे सकती है, अब हम आपसे इस पर चर्चा करना चाहते हैं.
3 दिल्ली शहर के बराबर बर्फ की चट्टान टूटी
दुनिया में सबसे बड़े बर्फ के पहाड़ (Ice Berg) का कुल श्रेत्रफल 4 हजार 320 वर्ग किलोमीटर है. यानी ये क्षेत्रफल के मामले में दिल्ली जैसे शहर से भी तीन गुना बड़ा है. दिल्ली का क्षेत्रफल लगभग 1500 वर्ग किलोमीटर है. यानी सोचिए दिल्ली जैसे तीन शहरों जितनी बर्फ की चट्टानें इस समय अंटार्कटिका (Antarctica) से टूट कर दक्षिणी महासागर की तरफ चली गई हैं. हमें लगता है कि ये पृथ्वी के खराब होते स्वास्थ्य का एक बड़ा लक्षण है. जिस Ice Shelf से ये चट्टानें टूट कर अलग हुई हैं, वो अंटार्कटिका महाद्वीप में मौजूद बड़े ग्लेशियर से घिरा हुआ है.
वेडेल सी में प्रवेश कर गया सबसे बड़ा बर्फ का पहाड़
असल में Ice Shelf ग्लेशियर नहीं होते. आइस सैल्फ ग्लेशियर के पास मौजूद रहने वाले बर्फ के विशाल पहाड़ों को कहा जाता है. दुनिया का जो सबसे बड़ा बर्फ का पहाड़ A-76 मिला है, वो इस समय दक्षिणी महासागर के वेडेल सागर (Weddle Sea) में प्रवेश कर गया है. ये वैज्ञानिकों के लिए चिंताजनक खबर है. क्योंकि इन ग्लेशियरों के पिघलने का कारण है ग्लोबल वॉर्मिंग. हालांकि आपको लग रहा है कि जब पूरी दुनिया कोरोना से संघर्ष कर रही है तो फिर ग्लोबल वॉर्मिंग बड़ा खतरा कैसे हो सकता है?
ग्लोबल वॉर्मिंग बड़ा खतरा कैसे हो सकता है?
तो हम आपको बताना चाहते हैं कि तेजी से पिघलते ग्लेशियर पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन को समाप्त भी कर सकते हैं. यानी ये खतरा कोरोना वायरस से भी बड़ा और गम्भीर है. जो बातें किताबों में लिखी जाती हैं कि दुनिया खत्म हो जाएगी, उसका एक कारण ये ग्लेशियर ही होंगे. अंटार्कटिका में दुनिया के पहाड़ों पर मौजूद सभी ग्लेशियरों की तुलना में 50 गुना अधिक बर्फ है और अगर पूरी दुनिया के ये ग्लेशियर पिघल गए तो पता है क्या होगा?
सभी ग्लेशियर पिघल गए तो क्या होगा?
इससे पृथ्वी का तापमान करीब 60 डिग्री तक बढ़ जाएगा. और ये इतना ज्यादा होगा कि इंसान इस गर्मी को आसानी से नहीं झेल सकेगा. और दूसरा परिणाम ये होगा कि इससे दुनिया में पीने का शुद्ध पानी खत्म हो जाएगा और इंसान पीने के पानी के लिए भी संघर्ष करने लगेगा और इसके कुछ वर्षों के बाद पृथ्वी पर मनुष्य का जीवन पूरी तरह समाप्त हो जाएगा. यानी पृथ्वी का स्वस्थ होना भी उतना ही जरूरी है, जितना आपका स्वस्थ रहना आवश्यक है.
ज्यादा तापमान से पिघल सकती है एक तिहाई बर्फ
पृथ्वी पर इस समय करीब 2 लाख ग्लेशियर हैं. यह प्राचीन काल से पृथ्वी पर बर्फ का एक विशाल भंडार बने हुए हैं. ऐसे में ग्लेशियरों के पिघलने से जमीन पर रहने वाले दुनिया के उन लोगों पर असर पड़ता है, जिनके लिए ग्लेशियर ही पानी का प्रमुख स्रोत है. जैसे हिमालय के ग्लेशियर आस पास की घाटियों में रहने वाले 25 करोड़ लोगों और उन नदियों को पानी देते हैं, जो आगे जा कर करीब 165 करोड़ लोगों के लिए भोजन, ऊर्जा और कमाई का जरिया बनती हैं. IPCC की रिपोर्ट में एक रिसर्च के हवाले से चेतावनी दी गई है कि एशिया के ऊंचे पर्वतों के ग्लेशियर अपनी एक तिहाई बर्फ को खो सकते हैं. ये स्थिति भी तब होगी जब इंसान ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने में कामयाब हो जाए और दुनिया के तापमान में इजाफे को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित कर दिया जाए. यानी दुनिया का बढ़ता यही तापमान ग्लोबल वॉर्मिंग है.
जानिए क्या होता है ग्लोबल वॉर्मिंग?
वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों जैसे मीथेन, कार्बन डाय ऑक्साइड, और क्लोरो-फ्लूरो-कार्बन के बढ़ने के कारण पृथ्वी के औसत तापमान में होने वाली बढ़ोतरी को ही ग्लोबल वॉर्मिंग कहा जाता है. इसकी वजह से जलवायु परिवर्तन भी होता है. एक स्टडी के मुताबिक, वर्ष 1980 के बाद से समुद्र के जलस्तर में औसतन 9 इंच का अंतर आया है. यानी समुद्र का जलस्तर 9 इंच बढ़ गया है. और इसकी बड़ी वजह ग्लोबल वॉर्मिंग है, जिससे आइसबर्ग पिघलते हैं और फिर टूटकर समुद्र में गिर जाते हैं.
पृथ्वी के बिगड़ते स्वास्थ्य का संकेत
पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च (PICIR) का कहना है, 'पिछले 100 वर्षों में, दुनिया के समुद्र तल में 35 प्रतिशत इजाफा ग्लेशियरों के पिघलने की वजह से हुआ है.' ये सिलसिला अब भी जारी है. अनुमान है कि भविष्य में ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र तल का बढ़ना 30 से 50 सेंटीमीटर तक सीमित रहेगा क्योंकि अब इन ग्लेशियरों के पास कम ही बर्फ बची है. इसकी तुलना अगर ग्रीनलैंड और अंटार्कटिक की बर्फ की चादर से करें तो इनके पिघलने से समुद्र का तल कई दर्जन मीटर तक बढ़ सकता है. सरल शब्दों में कहें तो तेजी से पिघलते ग्लेशियर और टूटते आइस शेल्फ पृथ्वी के बिगड़ते स्वास्थ्य का एक बड़ा लक्षण है और इसके लिए जरूरी है कि दुनिया इस विषय को सिर्फ सेमिनार और गोष्ठियों तक सीमित ना रखे. इसका विस्तार आम लोगों के बीच भी हो. इस समय सभी देश इसके लिए प्रतिबद्ध हैं कि कार्बन उत्सर्जन में कमी आनी चाहिए. कार्बन उत्सर्जन का मतलब है पृथ्वी के वातावरण में मौजूद अधिक कार्बन डाइओक्साइट.
हर साल समुद्र में फेंका जाता है 80 लाख टन कचरा
ये इसलिए खतरनाक है क्योंकि ये ग्रीन हाउस गैस है, जो वातावरण में मौजूद हीट को रोक कर रखती है और फिर इसे ही ग्लोबल वॉर्मिंग कहते हैं. भारत के पश्चिमी राज्यों में आए ताउ-ते तूफान के बाद आपने देखा होगा कि समुद्र के किनारों पर काफी टन कचरा इकट्ठा हो गया है. ये वो कचरा है, जो हम लोगों ने समुद्र में डाला लेकिन समुद्र ने चेतावनी देते हुए ये कचरा तूफान के रूप में वापस किनारे पर फेंक दिया. अब आपको खुद सोचिए समुद्र आपसे क्या कहना चाहते हैं. हमारे समुद्र आपसे यही कहना चाहते हैं कि ये कचरा उनके स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है. ये कचरे को इंसान समुद्र में ना डाल कर दूसरे तरीकों से समाप्त करे. ये विषय इसलिए भी बड़ा है क्योंकि हर साल 80 लाख टन कचरा समुद्र में फेंका जाता है. और ये कचरा फेंकने वाले वाले लोग कोई और नहीं बल्कि वही हैं जिनके लिए ये पृथ्वी उनका घर है.
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