आज करवाचौथ है. सुहागिनें पति की लंबी आयु के लिए पूरे दिन का उपवास रखी हुई हैं. अखंड सौभाग्य की प्राप्ति इस व्रत के मूल में है. यानि शादीशुदा महिलाएं ये व्रत इसलिए रखती हैं ताकि वे जीवन भर सुहागिन बनी रहें. इसका मतलब ये भी है कि उनकी मृत्यु पति से पहले हो जाए. अगर सचमुच इस व्रत का कोई असर होता तो भारत में विधवाओं की इतनी बड़ी संख्या न होती. भारत में वृंदावन न होता. ऐसा नहीं है कि इन महिलाओं ने करवाचौथ का व्रत न रखने की सजा मिली हो. 


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धर्म और आस्था के इस देश में करवाचौथ अकेला व्रत नहीं है. तीज, अहोई न जाने कितने व्रत साल में रखे जाते हैं. आश्चर्यजनक यह है कि ये सभी व्रत महिलाएं या लड़कियां रखती हैं. पुरुषों के लिए एक भी व्रत नहीं है. चलिए कोई बात नहीं. लेकिन क्या महिलाओं द्वारा रखे जाने वाले इन व्रतों में कोई ऐसा व्रत भी है जो सीधे-सीधे महिलाओं की उम्र, स्वास्थ्य, यश और समृद्धि में वृद्धि करता हो?



महिलाएं व्रत रखती हैं कभी पति की लंबी आयु के लिए, कभी इसलिए कि उन्हें भगवान शिव जैसा पति मिले और कभी बेटों की लंबी आयु के लिए. इसके अलावा सोमवार, शुक्रवार, शनिवार.. लगभग हर वार को कोई न कोई व्रत रखने का विकल्प है. त्योहारों में भी इस बात का खास ख्याल रखा गया है कि नारी को कुछ न मिले. बस पिता, पति और भाई सुरक्षित रहें. घर परिवार में खुशहाली का यही अर्थ है. जिस समाज में नारी को देवी का दर्जा दिया गया है, उस समाज में महिला के लिए कुछ भी नहीं है.


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व्रत और उपवास ही नहीं, आमतौर पर दिये जाने वाले आशीर्वादों में भी स्त्री की झोली खाली दिखाई पड़ती है. शादीशुदा महिलाओं को जो आशीर्वाद मिलते हैं, वे हैं अखंड सौभाग्यवती रहो, सदा सुहागन रहो, दूधो नहाओ पूतो फलो, गोद भरी रहे. न जाने कितने ही ऐसे आशीर्वाद है जिन्हें पा कर महिला स्वयं को धन्य समझती हैं. अखंड सौभाग्यवती और सदा सुहागन रहो... अर्थात पति की लंबी आयु हो, तुम पति से पहले मृत्यु को प्राप्त करो, दूधो नहाओ पूतो फलो... बच्चे जनती रहो(बेटे).



महाभारत काल में भी युद्ध से पहले जो आशीर्वाद महिलाओं को दिये गये उनमें से कोई भी ऐसा आशीर्वाद नहीं था जो महिला के लिए हो. वास्तव में वहां भी सारे आशीर्वाद पुरुषों के लिए ही थे. चाहे विजयी भव हो या सौभाग्यवती भव हो. अर्थात सदियों से हम स्त्रियों को छलते ही आ रहे हैं. उन्हें पंरपराओं और आस्था के नाम पर यह समझाया जाता है कि उनके पति, बेटों, भाइयों से ही घर की खुशहाली है और इसके लिए तुम व्रत रखो, उपवास रखो. और महिलाएं व्रत रखती हैं?


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अपने चारों तरफ हम देख रहे हैं कि आज विवाह नाम की संस्था जर्जर हो चुकी है. तलाक के लाखों मामले अदालतों में लंबित पड़े हैं, ना जाने कितनी विधवाएं दर-बदर की ठोकरें खा रही हैं. फिर व्रतों और उपवासों को मान्यता या परंपरा के नाम पर भी मानने का क्या अर्थ रह जाता है?


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)