Maharashtra politics: क्या उद्धव ठाकरे-राज ठाकरे फिर आएंगे साथ? 18 साल पहले ऐसा क्या हुआ था, जिससे अलग हो गए थे दोनों भाइयों के रास्ते
Maharashtra politics: महाराष्ट्र चुनाव को लेकर सभी पार्टियों ने कमर कस ली है. ऐसे में राज्य की राजनीतिक फिजाओं में एक बात गूंजने लगी है कि क्या इस बार दोनों भाई साथ आएंगे या दोनों अलग-अलग ही रहेंगे. लोग यह भी जानना चाहते हैं कि आखिर ऐसा क्या हुआ था कि दोनों भाइयों की राहें अलग हो गई थी.
Raj Thackeray Uddhav Thackeray Alliance: महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना यानि कि एमएनएस के नेता बाला नंदगांवकर ने राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे को लेकर बड़ा बयान दिया है. उन्होंने कहा कि मैं चाहता हूं कि मनसे और शिवसेना दोनों साथ आ जाएं. बाला नंदगांवकर ने कहा कि अगर मुझे मौका मिलेगा तो मैं दोनों को साथ लाने की कोशिश करुंगा. बता दें कि बाला नंदगांवकर मुंबई की शिवडी सीट से मनसे के उम्मीदवार के रूप में चुनावी मैदान में हैं.
बाला नंदगांवकर के इस बयान के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में एक बार फिर चर्चा छिड़ गई है कि क्या दोनों भाई साथ आएंगे. वहीं कुछ लोग इस बात को जानने की कोशिश में जुट गए हैं कि आखिर क्या हुआ था ऐसा दोनों भाइयों के बीच में कि जिससे दोनों की राहें जुदा हो गईं.
साल 1995 से ही बढ़ने लगी थी दूरी
देखा जाए तो दोनों भाईयों के बीच साल 1995 से ही दूरी बढ़ने लगी. या यूं कहें तो दोनों के बीच विभाजन की लकीर खिंच गई. लेकिन जिस वक्त दोनों के बीच यह लकीर खिंची तब राज ठाकरे शिवसेना में ही थे. उस वक्त राज ठाकर अपने चाचा बाल ठाकरे के सबसे करीबी थे. लेकिन ऊंट कब किस करबट बैठ जाए किसी को कुछ नहीं पता होता है. कुछ ऐसा ही हाल हुआ राज ठाकरे का.
पार्टी में उद्धव ठाकरे का दखल
बाल ठाकरे की शिवसेना में अचानक से बहुत कुछ बदलने लगा.साल 1995 में उद्धव ठाकरे अपने पिता की पार्टी शिवसेना में सक्रिय होने लगे. पार्टी के कामकाज में दखल देना भी शुरू किया. तब बाल ठाकरे अपने बेटे उद्धव ठाकरे का कद बढ़ाने के लिए कार्यकर्ताओं को उनके पास भेजना शुरू कर दिया.
बीएमसी चुनाव में हासिल की जीत
करीब दो साल तक उद्धव ठाकरे पार्टी में सक्रिय रहे. नतीजा यह हुआ कि कार्यकर्ता उनके पास पहुंचने लगे. वह कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर रणनीति भी तैयार करने में जुट गए. तभी साल 1997 में बीएमसी चुनाव हुए. इस चुनाव में टिकट बंटवारे में उद्धव ठाकरे की खूब चली. नतीजा यह हुआ कि उद्धव के जानने वाले कार्यकर्ताओं को ज्यादा से ज्यादा टिकट दिया गया. पार्टी के इस कदम से राज ठाकरे नाराज हो गए. लेकिन तत्काल कुछ नहीं कर पाए.
उद्धव ठाकरे के फैसले पर लगी मुहर
चुनाव बाद शिवसेना ने बीएमसी चुनाव जीत लिया और उद्धव ठाकरे के फैसलों पर जीत की मुहर लग गई. जैसे ही चुनावी सफलता मिली उद्धव ठाकरे ने शिवसेना पर पकड़ और मजबूत कर ली. धीरे-धीरे राज ठाकरे किनारे होते चले गए या यूं कहें कि शिवसेना ने उन्हे किनारे लगा दिया. राज ठाकरे जैसे ही किनारे हुए या किनारे किए गए वैसे ही दोनों भाईयों के बीच मनमुटाव बढ़ गया.पार्टी में खेमेबाजी शुरू हो गई
साल 2003 में बनें शिवसेना के कप्तान
दोनों भाइयों के बीच राजनीतिक खींचतान के बीच साल 2003 में महा बलेश्वर में पार्टी की एक बैठक हुई. इस बैठक में राज ठाकरे ने खुद उद्धव ठाकरे के अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव रखा. राज ठाकरे के इस प्रस्ताव पर पार्टी के बीच सर्वसम्मति से मुहर लग गई. उद्धव ठाकरे शिवसेना के नए कप्तान बनाए गए और कार्यकर्ताओं ने उद्धव ठाकरे को अपना नेता मान लिया.
दूरी बन गई खांई
उद्वव को कप्तान मानने के बाद शिवसेना में राज ठाकरे के लिए कुछ भी नहीं बचा. दोनों भाईयों के बीच बनी हुई दरार खांई में बदल गई और नतीजा ये हुआ कि राज ठाकरे ने शिवसेना को छोड़ कर अपनी नई पार्टी बना ली. जिसके बाद शिवसेना में राज ठाकरे को चाहने वाले कार्यकर्ता उनकी पार्टी में शामिल हो गए. और इस तरह महाराष्ट्र में एक नई पार्टी महाराष्ट्र नव निर्माण सेना यानि कि मनसे का जन्म हुआ.