नई दिल्ली:  पूरा देश आज आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है. आज से ठीक 2 दिन बाद यानी 15 अगस्त को हम अपना 75वां स्वतंत्रता दिवस मनाएंगे. अंग्रेजों से भारत को आजादी दिलाना कुछ सालों की बात नहीं थी, बल्कि इसके पीछे कई दशकों की मेहनत और बलिदानियों का खून बहा था. इनमें से एक बहादुर राम प्रसाद बिस्मिल  (Ram Prasad Bismil)  भी थे, जिन्होंने देश को आजाद करने के लिए अपनी जान तक की परवाह नहीं की.


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11 जून 1897 को क्रांतिकारी राम प्रसाद 'बिस्मिल'  जन्म उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ था. अब आप सोच रहे होंगे उत्तर प्रदेश में जन्म हुआ तो फिर मध्य प्रदेश से उनका क्या नाता? तो हम आपको बताते हैं 'बिस्मिल' का पैतृक गांव बरबई, मुरैना जिले का हिस्सा है. इतना ही नहीं बिस्मिल का एकमात्र मंदिर भी मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में ही बना है. 


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हर दिन सुबह 6 बजे होती पूजा 
दरअसल मुरैना से लगे हाईवे पर सुबह 6 बजे मंदिर के पट खुलते हैं. पुजारी पूजा की थाल लेकर आरती की तैयारी करते हैं और भक्त उस आरती में शामिल होने की.  पुजारी घंटी उठाकर जयकारा लगाते हैं- 'बोलिए अमर शहीद पंडित रामप्रसाद बिस्मिल की...' सभी भक्त एक आवाज में कहते हैं- 'जय.' रोजाना हर दिन 6 बजे उनकी पूजा होती है. बता दें कि क्रांतिकारी बिस्मिल का एकमात्र मंदिर मुरैना शहर में हाईवे किनारे बने जिला शिक्षक प्रशिक्षण केंद्र परिसर में स्थित है. जिसे फरवरी 2009 में बिस्मिल भक्तों ने मुरैना शहर में इस मंदिर का निर्माण करवाया था.


बिस्मिल का पैतृक गांव MP में!
बिस्मिल का जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ, लेकिन बहुत कम लोगों को इस बारे में जानकारी है कि बिस्मिल का पैतृक गांव मुरैना जिले से 5 किलोमीटर दूर स्थित बरबई है. उनके दादा जी नारायण लाल ने यहीं बीहड़ों में अपना जीवन यापन किया. बरबई के बारे में एक खास बात है कि यह चंबल की घाटियों में है, जहां से कई बागी प्रवृत्ति के व्यक्ति निकले. जिन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया. 



किताबें बेचकर क्रांति की
बिस्मिल देश के एकमात्र ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने खुद की पुस्तकों को बेचकर उसके पैसों का उपयोग क्रांतिकारी कार्यों में लगाया था. इसका प्रभाव यह हुआ कि अंग्रेजों ने उनकी सारी पुस्तकें जब्त कर लीं थी. आज राम प्रसाद बिस्मिल की एक भी पुस्तक उपलब्ध नहीं है. उन्होंने अपने जीवन काल में 11 पुस्तकें प्रकाशित करवाई थी.


50 से ज्यादा अंग्रेजी सैनिक मारे
राम प्रसाद बिस्मिल ने औरैया के क्रांतिकारी पंडित गेंदालाल दिक्षित के साथ हथियारों से लैस होकर मातृदेवी संगठन के तहत अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन किया था. इस दौरान 50 से ज्यादा अंग्रेज सैनिक मारे गए थे. इस अभियान में बिल्मिल की संगठनात्मक और नेतृत्व क्षमता सामने आई थी. 


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19 दिसंबर को दी गई फांसी
बिस्मिल को मिले इस सम्मान की मुख्य वजह अंग्रेजों के खिलाफ किए गए उनके क्रांतिकारी कारनामे हैं. 19 दिसंबर 1927 को मात्र 30 साल की उम्र में उन्हें अंग्रेजों ने उन्हें गोरखपुर जेल में फांसी पर लटका दिया. वो मैनपुरा षडयंत्र से लेकर काकोरी कांड जैसी कई घटनाओं का हिस्सा रहे. इसके साथ ही वो हिन्दुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन के सदस्य भी रहे. फांसी के तख्त पर चढ़कर भी वह अंग्रेजों को चुनौती दे रहे थे. तख्त पर खड़े होकर बिस्मिल ने 'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है' गाया और इस शेर को अमर कर दिया.