Opinion: पति की शहादत, गम, जिम्मेदारी और संघर्ष; फिर बहुएं भागती नहीं, उन्हें भागने के लिए मजबूर किया जाता है
शहीद कैप्टन अंशुमान सिंह की पत्नी स्मृती और उनके माता-पिता के बीच विवाद जो भी हो, लेकिन पति की शहादत के बाद कैसे उनकी पत्नी को परिवार से जंग लड़ना पड़ता है और कैसे शहीद की पत्नी को लेकर ससुराल वालों रंग बदल जाता है. ये कड़वा सच है और मैंने खुद इस दर्द को महसूस किया है. अपनी आंखों से देखा है. बहुएं भागती नहीं हैं, बल्कि उन्हें भागने पर मजबूर किया जाता है.
देश की सुरक्षा में अपने प्राणों की आहुति देने वाले शहीदों के पीछे अक्सर एक असीम दर्द भरी कहानी होती है. शहीद अपने पीछे छोड़ जाते हैं अपना भरा-पूरा परिवार और वो परिवार पूरी तरह टूट जाता है. माता-पिता अपने बुढ़ापे का सहारे खो देते हैं और बेसहारा हो जाते हैं. छोटे-छोटे बच्चों को पता ही नहीं होता है कि उनके पिता क्यों नहीं लौटे और कभी लौटकर नहीं आएंगे. लेकिन, इन सबके बीच सबसे ज्यादा दर्द शहीद की पत्नी को झेलना पड़ता है. पति की शहादत को वो नम आंखों से स्वीकार तो कर लेती हैं और हर जिम्मेदारी को संभालने को तैयार भी हो जाती है, लेकिन उन्हें हर मोर्चे पर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. शहीदों की पत्नियों का जीवन दर्द और संघर्ष से भरा होता है, जो न केवल अपने पति के खोने का गम सहती हैं, बल्कि अपने छोटे बच्चों के साथ पूरे परिवार की जिम्मेदारियों को भी उठाती हैं. लेकिन, इन सब के बीच ससुराल वालों के बदलते रंग उनकी दिक्कतें और बढ़ाने का काम करती हैं. और बहुएं भागती नहीं हैं, बल्कि उन्हें भागने के लिए मजबूर किया जाता है.
कैप्टन अंशुमान सिंह पिछले साल सियाचिन में 19 जुलाई को अपने साथियों की जान बचाते हुए शहीद हो गए थे. अंशुमान सिंह को कीर्ति चक्र से सम्मानित किए जाने के बाद उनकी पत्नी का एक वीडियो सामने आया, जिसमें उन्होंने अपनी 5 महीने की शादी और पति के साथ भविष्य को लेकर हुई चर्चा के बारे में बात की थी. इसके बाद अब अंशुमान सिंह के माता-पिता सामने आए हैं और अपनी बहू स्मृति पर उनका घर छोड़ने, फोटो एल्बम, कपड़े और मेडल्स के साथ अन्य सामान अपने साथ लेकर जाने के आरोप लगाए हैं. इसके साथ ही उन्होंने सेना के एनओके (Next of Kin) यानी 'निकटतम परिजन' नियमों में बदलाव की मांग की है.
जब एक शहीद अपने परिवार को छोड़कर देश की रक्षा में निकलता है तो उसकी पत्नी के मन में हर पल एक अनसुलझी चिंता रहती है. जब वह खबर आती है कि उनका पति शहीद हो गया तो वह पल न केवल उसके लिए, बल्कि पूरे परिवार के लिए एक बुरा सपना बन जाता है. इस दुख को शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल होता है. शहीद की पत्नी को इस गम के साथ जीना पड़ता है, जिसमें हर दिन अपने पति की यादों के साथ-साथ अपने बच्चों और परिवार की देखभाल करना भी शामिल होता है.
शहीद की पत्नी के लिए जीवन एक नई चुनौती बन जाता है. उन्हें न केवल आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है, बल्कि मानसिक और भावनात्मक रूप से भी खुद को मजबूत बनाए रखना होता है. अक्सर, समाज में उनकी स्थिति को लेकर पूर्वाग्रह भी होते हैं. कई बार उन्हें समाज में अलग नजर से देखा जाता है, जिससे उन्हें और भी अधिक संघर्ष करना पड़ता है. अपने पति की शहादत के बाद, उन्हें अपनी और अपने बच्चों की सुरक्षा, शिक्षा और भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए दिन-रात मेहनत करनी पड़ती है.
शहीद कैप्टन अंशुमान सिंह की पत्नी स्मृती और उनके माता-पिता के बीच विवाद जो भी हो. लेकिन ये सच है कि पति के शहीद होने के बाद उनके घरवालों का रंग अपनी बहू को लेकर बदल जाता है. पति की शहादत के बाद कैसे उनकी पत्नी को परिवार से जंग लड़ना पड़ता है. यह एक कड़वी सच्चाई है. शुरुआत में ससुराल वालों का व्यवहार सामान्य रहता है, लेकिन फिर जब बात पैसे की आती है तो उनकी नजर तिरछी होने लगती है. मैंने खुद इस दर्द को महसूस किया है और अपनी आंखों से देखा है.
ससुराल वाले शहीद की शहीद की पत्नी से मुआवजे में हिस्सा मांगने लगते हैं या पूरा पैसा खुद लेना चाहते हैं. अनुकंपा की नौकरी किसी रिश्तेदार को देने के लिए दवाब डालते हैं. इसके लिए मानसिक रूप से परेशान किया जाता है और कई बार बर्ताव इतना खराब हो जाता है कि उन पर हाथ तक उठाया जाता है. मुआवजे और पेंशन के दस्तावेज तक ससुराल वाले गायब कर देते हैं या छिपा देते हैं. ताकि मुआवजा ना मिल सके. कई चीजों की जानकारी का अभाव भी शहीद की पत्नी की मुश्किलें और बढ़ा देता है.
शहीद की पत्नी पर समाज के लोगों की भी हमेशा बुरी नजर बनी रहती है. ऐसा ही शहीद कैप्टन अंशुमान सिंह की विधवा पत्नी स्मृति के मामले में भी दिखा. जब राष्ट्रपति ने स्मृति और उनकी सास मंजू सिंह को अंशुमान सिंह का कीर्ति चक्र पुरस्कार दिया, जब हर कोई उनकी नम आंखें देखकर भावुक हो गया. लेकिन, इस बीच कुछ हैवान भी सामने आए, जिन्होंने सोशल मीडिया पर शहीद की पत्नी को लेकर भद्दे कमेंट किए. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, समाज भले ही शहीद की पत्नी के प्रति संवेदनशील बने रहने का दिखावा करता है, लेकिन उसके अंदर कुंठा हमेशा रहती है.
शहीदों की पत्नियां अक्सर अपने बच्चों के लिए आदर्श बन जाती हैं. उन्हें अपने बच्चों को न केवल अच्छी शिक्षा देना होता है, बल्कि उन्हें यह भी सिखाना होता है कि उनके पिता ने देश के लिए क्या किया. यह जिम्मेदारी कभी-कभी बहुत भारी लगती है, लेकिन ये महिलाएं अक्सर इस जिम्मेदारी को अपने सिर पर उठा लेती हैं. वे न केवल अपने बच्चों के लिए बल्कि पूरे परिवार और समाज के लिए एक प्रेरणा बन जाती हैं.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शहीदों की पत्नियों को समर्थन और सम्मान की आवश्यकता है. समाज को चाहिए कि वे इन महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने में मदद करें. सरकार और गैर-सरकारी संगठनों को भी चाहिए कि वे ऐसे कार्यक्रम और योजनाएं बनाएं जो शहीदों की पत्नियों को मानसिक, आर्थिक और सामाजिक सहायता प्रदान करें. शहीदों की पत्नी का गम, संघर्ष और जिम्मेदारी एक गहरी मानवता की कहानी है. यह हमें सिखाता है कि जीवन की कठिनाइयों के बावजूद कैसे आगे बढ़ा जा सकता है. ऐसे में, समाज की जिम्मेदारी बनती है कि वे इन वीर महिलाओं का सम्मान करें और उन्हें अपने संघर्ष में अकेला न छोड़ें. इनकी ताकत और साहस के आगे हमें हमेशा नतमस्तक रहना चाहिए.