कोलकाता : नेतृत्व में बदलाव और जारी व्यापक सुधारात्मक अभियान के साथ ही माकपा ने छह साल में पहली बार पश्चिम बंगाल में उबरने के कुछ संकेत दिए हैं। यह वही पश्चिम बंगाल है जहां माकपा वर्ष 2011 की करारी हार से पहले 35 साल तक शासन कर चुकी है।


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

वाम मोर्चे की सबसे बड़ी घटक माकपा वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद से लगातार खिसक रहे अपने जनाधार को कुछ हद तक रोकने में कामयाब रही है। पिछले माह हुए कोलकाता नगर निगम के चुनाव में वह अपनी वोट हिस्सेदारी न सिर्फ बचाने में बल्कि उसे थोड़ा सा बढ़ाने में भी सफल रही है।


केएमसी के चुनाव माकपा के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहे क्योंकि वह आशंकित थी कि कहीं प्रमुख विपक्ष का दर्जा भाजपा के हाथों में न चला जाए। भाजपा लोकसभा चुनाव के बाद से बंगाल में तेजी से अपनी जमीन तैयार कर रही थी।


वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में अपने सबसे खराब प्रदर्शन के बाद माकपा को लगभग 23 प्रतिशत वोट मिले लेकिन वह केएमसी के चुनाव में अपने वोट की हिस्सेदारी बचाने में सफल रही और इसमें वह एक प्रतिशत की वृद्धि के साथ 24 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल कर गई।


वर्ष 2014 में माकपा मत प्रतिशत के लिहाज से अपने निम्नतम बिंदु यानी 23 प्रतिशत पर आ गई। वह लोकसभा में महज दो ही सीटें हासिल कर सकी। माकपा की मतों में हिस्सेदारी में आने वाली गिरावट देखकर ये कयास भी लगाए जा रहे थे कि लाल ब्रिगेड अपना विपक्ष का दर्जा भाजपा के हाथों खो रही है। भाजपा को वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में 18 प्रतिशत मत मिले थे।


माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य मोहम्मद सलीम ने बताया, वर्ष 2014 के बाद मीडिया के एक बड़े वर्ग ने विपक्ष के तौर पर हमें पूरी तरह साफ कर दिया लेकिन परिणामों ने दिखा दिया है कि तृणमूल कांग्रेस के कुशासन के खिलाफ एकमात्र विकल्प अब भी हम ही हैं। भाजपा और तृणमूल कांग्रेस जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास कर रही थीं, वह परिणाम लाने में विफल रहा। माकपा के वरिष्ठ नेताओं के अनुसार, पार्टी नेतृत्व में शीर्ष से लेकर निम्न स्तर तक के बदलाव ने और पार्टी से सड़े-गले एवं अप्रभावी तत्वों को निकाल फेंकने के सुधार अभियान ने पार्टी के पक्ष में काम किया है।


सलीम ने कहा, जमीनी स्तर से लेकर शीर्ष तक नेतृत्व में बदलाव तथा सुधारात्मक कदमों ने पार्टी में नयी जान फूंकी है। इनसे हमें जनता तक पहुंच बनाने में मदद मिली है।