PM मोदी ने जिनका जिक्र किया, पढ़ें बंगाल के उन 5 गुमनाम नायकों की अनसुनी कहानियां

पीएम मोदी ने गुरुवार को पश्चिम बंगाल के एक दुर्गा पूजा पांडाल का वर्चुअल उद्घाटन किया और इस मौके पर ना केवल ये चर्चा की कि कैसे बंगाली संस्कृति के चलते पूरा देश बंगाल मय हो गया है, बल्कि तमाम ऐसे गुमनाम चेहरों का जिक्र किया, जो बंगाल की माटी में पैदा हुए और अलग-अलग क्षेत्रों में समाज के लिए अतुलनीय काम किया.

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प्रीतिलता वड्डेदार- ‘इंडियंस एंड डॉग्स आर नॉट एलाउड के खिलाफ जंग

प्रीतिलता को एक यूरोपीय क्लब के बाहर लगा वो बोर्ड काफी खटकता था- ‘इंडियंस एंड डॉग्स आर नॉट एलाउड’. वो पढ़ने के दौरान ही लीला नाग से जुड़ गईं थीं. लीला नाग ने महिला लेखकों की मैगजीन और महिलाओं को कॉम्बेट ट्रेनिंग देने के लिए एक संस्था शुरू की थी, ‘दीपाली सांघा’. प्रीति ने भी इसकी एक ब्रांच श्री संघा में ट्रेनिंग ली. फिर प्रीति ग्रेजुएशन करने के लिए कोलकाता चली गईं. चटगांव विद्रोह के नायक मास्टर सूर्यसेन ने उन्हें अपने दल में शामिल कर लिया. सूर्यसेन ने प्रीतिलता को हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी, फिर टेलीफोन और टेलीग्राफ ऑफिसों में हमला बोलना शुरू कर दिया. प्रीति ने बढ़ चढ़कर इनमें हिस्सा लिया. इसके चलते प्रीति का नाम पुलिस की मोस्ट वांटेड लिस्ट में शामिल हो गया. 

प्रीतिलता को पहाड़तली के एक यूरोपियन क्लब में लगे बोर्ड से काफी क्रोध था, उस बोर्ड पर साफ-साफ लिखा था कि ‘डॉग्स एंड इंडियंस आर नॉट एलाउड’. 3 सितंबर 1932 की शाम थी, केवल 21 साल की उम्र में प्रीतिलता को 10 से 12 साथियों के साथ मिशन हेड बनाकर भेजा गया. प्रीति खुद पुरुष वेश में थीं. बड़ी तेजी से हमला किया गया लेकिन पुलिस को खबर लग चुकी थी, प्रीति ने साथियों को सुरक्षित निकालकर खुद पोटैशियम सायनाइड खा लिया. बाद में कोलकाता यूनीवर्सिटी ने उनकी मौत के 80 साल बाद उनकी डिग्री दी.

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मातंगिनी हाजरा- वंदे मातरम के विरोधी भी इस वृद्धा की कुर्बानी देखकर रो पड़ेंगे!

मातंगिनी हाजरा नाम था उनका, एक गरीब किसान की बेटी थी. बचपन में पिता ने एक साठ साल के वृद्ध से शादी कर दी, जब मातंगिनी 18 साल की हुईं तो पति मर गया. सौतेले बेटों ने आसरा नहीं दिया तो वो पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के तामलुक में ही एक झोपड़ी बनाकर रहने लगीं. एक दिन 1932 में उनकी झोंपड़ी के बाहर से सविनय अवज्ञा आंदोलन का एक जुलूस निकला तो 62 साल की हाजरा भी शामिल हो गईं. उन्होंने नमक विरोधी कानून भी नमक बनाकर तोड़ा, गिरफ्तार हुईं, सजा मिली, कई किलोमीटर तक नंगे पैर चलते रहने की. उसके बाद उन्होंने चौकीदारी कर 'रोको' प्रदर्शन में हिस्सा लिया. काला झंडा लेकर सबसे आगे चलने लगीं, बदले में मिली 6 महीने की जेल. लोग उन्हें ‘बूढ़ी गांधी’ के नाम से पुकारने लगे.

1942 में गांधीजी ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का ऐलान कर दिया, और नारा दिया ‘करो या मरो’, मातंगिनी हाजरा ने मान लिया था कि अब आजादी का वक्त करीब आ गया है, उन्होंने तामलुक में भारत छोड़ो आंदोलन की कमान संभाल ली, जबकि उनकी उम्र 72 पार कर चुकी थी. तय किया गया कि मिदनापुर के सभी सरकारी ऑफिसों और थानों पर तिरंगा फहराकर अंग्रेजी राज खत्म कर दिया जाए. 29 सितंबर 1942 का दिन था, कुल 6000 लोगों का जुलूस था, इसमें ज्यादातर महिलाएं थीं. वो जुलूस तामलुक थाने की तरफ बढ़ने लगा, पुलिस ने चेतावनी दी. लोग पीछे हटने लगे. मातंगिनी बीच से निकलीं और सबके आगे आ गईं. एक गोली उनके दाएं हाथ पर मारी गई, वो घायल तो हुईं, लेकिन तिरंगे को नहीं गिरने दिया. घायल कराहती मातंगिनी ने तिरंगा दूसरे हाथ में ले लिया और फिर आगे बढ़ने लगीं. देशभक्ति का जुनून इस कदर था कि हर गोली पर बोल रही थीं ‘वंदे मातरम’, पुलिस ने फिर दूसरे हाथ पर भी गोली मारी, वो फिर बोलीं ‘वंदे मातरम’, लेकिन किसी तरह झंडे को सम्भाले रखा, गिरने नहीं दिया. तब एक पुलिस ऑफिसर ने तीसरी गोली चलाई, सीधे उस भारत माता के माथे पर. वो नीचे तो गिरी लेकिन झंडा जमीन पर नहीं गिरने दिया, अपने सीने पर रखा और जोर से फिर बोलीं.. वंदे...मातरम, भारत माता की जय. उनकी मौत के बाद सभी सरकारी दफ्तरों पर लोगों ने कब्जा कर लिया और वहां अपनी खुद की सरकार घोषित कर दी.

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बीना दास: दीक्षांत समारोह में अंग्रेज गर्वनर पर चला दी 5 गोलियां

1986 में एक बंगाली महिला की लाश ऋषिकेश में सड़क किनारे मिलती है, शायद कई दिन पुरानी थी. लोग पुलिस को सूचना देते हैं, पुलिस लावारिस लाश का पता ठिकाना ढूंढने की कोशिश करती है. 1 महीने के बाद जब उन्हें पता चलता है कि वो महिला कौन थी, तो उनके होश उड़ जाते हैं. बंगाल की प्रमुख महिला क्रांतिकारी, जिसने कभी बंगाल के गर्वनर पर एक के बाद एक 5 फायर किए थे, जो 9 साल की कड़ी सजा काटके आई थी, जो नेताजी बोस के गुरु की बेटी थी, और नेताजी बोस उसके मेंटर थे. नाम था बीना दास. बीना दास की लाश को आजाद भारत में कोई पहचानने वाला नहीं था, जबकि उन्हें पद्मश्री तक मिल चुका था.

बीना दास अपनी युवावस्था में जिस देश के लिए अपनी जान की बाजी लगाकर इतने बड़े कारनामे को अंजाम दे रही थीं, तब उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन उन्हें कोई पहचानने वाला भी नहीं मिलेगा. बीना दास प्रमुख ब्रम्हो समाजी नेता बेनी माधव दास की बेटी थीं, जो सुभाष चंद्र बोस के भी शिक्षक थे. कोलकाता यूनिवर्सिटी का दीक्षांत समारोह होना था. उस समारोह में बंगाल के गर्वनर स्टेनली जैक्सन को भाषण देना था. उसी साल बीना ने बीए किया था, सो उसको भी डिग्री मिलनी थी. तय हुआ कि बीना गाउन में रिवॉल्वर छुपाकर ले जाएगी.

6 फरवरी 1932 का दिन था, अचानक बीना दास अपनी सीट से उठी, थोड़ा आगे बढ़ी लेकिन हिचकिचाकर वापस अपनी सीट पर लौट आई. बीना ने फिर हिम्मत की और इस बार वो तेजी से मंच पर भाषण देते जैक्सन की तरफ बढ़ी, तब तक जैक्सन थोड़ा भांप चुका था. बीना ने जैसे ही फायर किया, जैक्सन के थोड़ा झुकने से वो फायर मिस हो गया, फौरन बीना ने दूसरा फायर खोलने के लिए जैसे ही ट्रिगर दबाना चाहा, वीसी हसन सुहरावर्दी ने बीना को दबोच लिया. हसन सुहरावर्दी फौज में लेफ्टिनेटं कर्नल रह चुका था, लेकिन बीना ने फिर भी दूसरा फायर खोल दिया. यहां तक नौसिखिया होने के बावजूद बीना ने आसानी से रिवॉल्वर नहीं छोड़ी, दो फायर इसी छीना झपटी में हो गए, तब कुछ और लोग सुहरावर्दी की मदद के लिए आगे बढ़े और बीना को पकड़ा, लेकिन फिर भी बीना ने पांचवा फायर कर दिया, जो एक प्रोफेसर डॉ. दिनेश चंद्र सेन को छूते हुए निकल गया, वो घायल हो गए. खैर बीना को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया और 9 साल की सजा हो गई.

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बाघा जतिन: देश की आजादी की इनकी योजना कामयाब होती तो होते ‘राष्ट्रपिता

अगर यतीन्द्र नाथ मुखर्जी उर्फ बाघा जतिन के एक साथी ने गद्दारी नहीं की होती तो देश को ना गांधीजी की जरूरत पड़ती और ना बोस की. देश भी 32 साल पहले ही यानी 1915 में ही आजाद हो गया होता. उनकी मौत के बाद चले ट्रायल के दौरान ब्रिटिश प्रॉसीक्यूशन ऑफीसर ने कहा, “Were this man living, he might lead the world.” इस वाक्य से अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितना खौफ होगा बाघा जतिन का उस वक्त. कोलकाता पुलिस के डिटेक्टिव डिपार्टमेंट के हेड और बंगाल के पुलिस कमिश्नर रहे चार्ल्स टेगार्ट ने अपने साथियों से कहा था कि ‘अगर बाघा जतिन अंग्रेज होते तो अंग्रेज लोग उनका स्टैच्यू लंदन में ट्राफलगर स्क्वायर पर नेलशन के बगल में लगवाते’ और ये चार्ल्स का ही बयान था कि जतिन की योजना अगर कामयाब हो जाती, तो वो आजाद भारत के राष्ट्रपिता होते. 

बलिष्ठ देह के स्वामी यतीन्द्र नाथ मुखर्जी साथियों के बीच ‘बाघा जतिन’ के नाम से मशहूर थे. बंगाल के नादिया में पैदा हुए थे जतिन, जो अब बांग्लादेश में है. पिता की मौत के बाद मां शरतशशि ने ही अपने मायके में उनकी परवरिश की, शुरू से ही उनकी रुचि शारीरिक ताकत वाले खेलों में रही. तैराकी और घुड़सवारी के चलते वो बलिष्ठ शरीर के स्वामी बन गए. 11 साल की उम्र में ही उन्होंने शहर की गलियों में लोगों को घायल करने वाले एक बिगड़ैल घोड़े को काबू किया तो लोगों ने काफी तारीफ की. उनकी मां कवि स्वभाव की थीं और उनके वकील मामा के क्लाइंट रवीन्द्र नाथ टैगोर के साथ उनके परिवार का अक्सर मिलना होता था. जतिन पर इन सबका बहुत प्रभाव पड़ा.

कलकत्ता सेंट्रल कॉलेज में पढ़ने के दौरान वो स्वामी विवेकानंद के पास जाने लगे, जिनसे उन्हें भरोसा मिला कि स्वस्थ फौलादी शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है. स्वामी विवेकानंद ने उन्हें अम्बू गुहा के देसी जिम में भेजा, ताकि वो कुश्ती के दांव पेंच सीख सकें. विवेकानंद के संपर्क में आकर उनके अंदर ब्रह्मचारी रहकर देश के लिए कुछ करने की इच्छा तेज हुई. लेकिन 1900 में ही अनुशीलन समिति की स्थापना हुई, उस वक्त क्रांतिकारियों का सबसे बड़ा संगठन. बाघा जतिन ने इसकी स्थापना में अहम भूमिका निभाई. अरविंदो घोष यानी महर्षि अरविंदो से मिलने के बाद इस काम में तेजी लाई गई. बंगाल के हर जिले में इसकी शाखा खोली गई, फिर बिहार और उड़ीसा का रूख किया गया. तमाम सामाजिक कामों और क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए धन जुटाने की खातिर जतिन ने भारत में एक नया तरीका ईजाद किया, जिसके बारे में अंग्रेजी इतिहासकारों ने लिखा है ‘बैंक रॉबरी ऑन ऑटोमोबाइल्स टैक्सी कैब्स’. कई हथियारों की खेप जतिन की अगुआई में लूट ली गईं. लेकिन जतिन का नाम सामने नहीं आता था. सीक्रेट सोसायटी ने इन्हीं दिनों भारतीयों पर अन्याय करने वाले सरकारी अधिकारियों (चाहे अंग्रेज हों या भारतीय) को मारने का ऑपरेशन भी शुरू कर दिया.

1915 की गदर क्रांति में गदर क्रांतिकारियों और रासबिहारी बोस से हाथ मिलाने के बाद जतिन ने जर्मनी के राजा से संपर्क करके वहां से हथियारों से लदा एक पूरा शिप मंगवाया, लेकिन एक डबल एजेंट की वजह से सबको पता चल गया. वहां से ये खबर अमेरिका को मिली, अमेरिका से अंग्रेजों को मिली. इंग्लैंड से खबर भारतीय अधिकारियों के पास आई और उड़ीसा का पूरा समुद्र तट सील कर दिया गया, क्योंकि बालासोर के तट पर ही उस जहाज को आना था. उस वक्त ऐसा कोई संचार साधन नहीं था कि समंदर में जहाज पर खबर हो पाती. ऐसे में पुलिस भी वहां पहुंच गई और जतिन भी अपने साथियों के साथ पहुंचे. साथियों को बचाते बचाते वो वीरगति को प्राप्त हो गए.

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काजी नजरुल इस्लाम: कृष्ण भक्त कवि को इसलिए याद किया पीएम मोदी ने

पीएम मोदी ने अपने शक्ति पूजा संबोधन में बंगाल के नायकों के बीच काजी नजरुल इस्लाम का भी नाम लिया. बहुत से लोग चौंक गए होंगे कि क्रांतिकारी, आध्यात्मिक संत, समाज सुधारक, पेंटर, फिल्मी हस्तियों आदि के बीच उन्होंने काजी नजरुल इस्लाम का जिक्र क्यों किया? काजी ने पहले बेटे का नाम रखा कृष्णा मोहम्मद, अपने जिले आसनसोल को छोड़कर रहने के लिए जगह चुनी कृष्णा नगर, दूसरे बेटे का नाम रखा काजी सब्यसाची, ये नाम श्रीकृष्ण को इसलिए दिया गया था क्योंकि वो दाएं और बाएं दोनों हाथों से धनुष चला सकते थे, तीसरे बेटे का नाम रखा काजी अनिरुद्ध जो कृष्ण के नाती और बेटे प्रद्युम्न के बेटे थे. और चौथे बेटे का नाम रखा था अरिंदम खालिद जिसका अर्थ होता है शत्रुओं का नाश करने वाला. ये नाम पूर्वी भारत में काफी लोकप्रिय है और कई लोगों ने कृष्ण के चक्रधारी रौद्र रूप के लिए भी इसका उल्लेख किया है. बांग्लादेश और भारत के पूर्वी राज्यों खासतौर पर पश्चिम बंगाल में ये कवि काफी लोकप्रिय रहे हैं. बांग्लादेश में तो वो राष्ट्रकवि माने जाते हैं.

पश्चिम बंगाल के आसनसोल में पैदा हुए नजरुल 17 साल की उम्र में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में भर्ती हो गए थे. पहले विश्व युद्ध के समय इनको मेसोपोटामिया भेज दिया गया था. काजी के पिता स्थानीय मस्जिद के इमाम थे. पिता की जल्दी मौत होने के बाद वो उनकी जगह उस मस्जिद की देखभाल करने लग गए, मुअज्जिन बन गए. मकतब और मदरसे में उनकी पढ़ाई हुई, ऐसे में उनकी जिंदगी में श्रीकृष्ण भक्ति कहां से आ गई? दरअसल, उनके एक चाचा थे फजले करीम, जो एक थिएटर ग्रुप चलाया करते थे. पूरे पूर्वी भारत में ये ग्रुप घूम-घूमकर अलग-अलग शहरों में वहां की लोककथाओं पर छोटी-छोटी नृत्यनाटिकाएं करता था.

लेकिन विश्व युद्ध खत्म होने के 2 साल बाद उनकी यूनिट खत्म कर दी गई और वो नौकरी छोड़कर वापस आ गए और अब पूरा मन साहित्य और संगीत में लगाया. धीरे-धीरे उनकी कविताएं और उपन्यास छपने लगे. वो लोकप्रिय होने लगे. 1922 में उनकी लिखी कविता ‘विद्रोही’ ने उनको मशहूर कर दिया. जिसमें साफ अंग्रेजी सरकार के खिलाफ एक विद्रोह दिखता था. सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान ये कविता भी काफी इस्तेमाल हुई. उन्होंने एक पत्रिका भी शुरू की ‘धूमकेतु’ जो 15 दिन में एक बार छपती थी. अपने लेखों और कविताओं के चलते राष्ट्रदोह के आरोप मे जेल भेज दिए गए. नजरुल ने तमाम इस्लामिक गीत, गजलें लिखीं, जो आज भी बांग्लादेश में रमजान में गाए जाते हैं. उन्होंने समाज के उपेक्षित तबकों जैसे वैश्याओं, गरीबों के लिए अलग से मार्मिक कविताएं लिखीं. जबकि 500 के करीब भजन आदि लिखे, जो ना केवल कृष्ण और राधा से जुड़े थे, बल्कि शिव, लक्ष्मी और पार्वती को लेकर भी लिखे गए थे.

1930 में उनकी फिर एक किताब बैन हुई और फिर उन्हें जेल भेज दिया गया. एक साल बाद आए. बाद में वो फिल्मी दुनियां से भी जुड़े, एक बंगाली फिल्म ‘ध्रुव भक्त’ डायरेक्ट करके वो पहले बंगाली मुस्लिम डायरेक्टर बन गए. 1941 से वो बीमार पड़ना शुरू हो गए, कुछ मानसिक दिक्कतों के चलते उनके व्यवहार में अजीबोगरीब परिवर्तन आना शुरू हो गया, बोलने में दिक्कत आने लगी. 1952 में उन्हें रांची के मानसिक रोग चिकित्सालय में भर्ती करवाया गया. फिर नजरुल के प्रशंसकों ने धन इकट्ठा किया. पहले उन्हें लंदन इलाज के लिए भेजा, उसके बाद वियना भेजा. लेकिन कहीं ठीक नहीं हो पाए, तो कोलकाता वापस आ गए. 1962 में उनकी पत्नी की भी मौत हो गई. दो बेटों की मौत उनके बचपन में ही अलग-अलग बीमारी के चलते हो गई थी.

जब बांग्लादेश बना तो वहां की सरकार ने उन्हें बांग्लादेश ले जाने की इजाजत मांगी, भारत सरकार ने अनुमति दे दी. 1974 में उनका बेटा अनिरुद्ध भी नहीं रहा. 2 साल बाद उनकी भी मौत हो गई. ढाका यूनिवर्सिटी में उनको दफना दिया गया. बांग्लादेश ने तब 2 दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया था और भारत की संसद में उनको मौन श्रद्धांजलि दी गई थी.

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