Presidential Election: केरल में एक जगह है उझावूर. दिल्ली से 2745 किलोमीटर दूर. सड़क से सफर तय करने में दो दिन से ज्यादा लग ही जाएंगे. आज से 101 साल पहले उझावूर में एक लड़का पैदा हुआ. कुल सात भाई-बहनों में चौथे नंबर पर. परिवार में इतनी गरीबी थी कि मुश्किल से ही खर्चा चल पाता था. पूर्वज पारवान जाति से थे, जिनका काम नाव बनाना, मछली पालन और समुद्री व्यापार था. उस लड़के को स्कूल जाने के लिए खेतों के रास्ते 15 किलोमीटर की दूरी तय करनी होती थी. मामूली सी फीस भरने के लिए भी पैसे नहीं होते थे, इसलिए क्लास से बाहर निकाल दिया जाता था और उसे क्लासरूम के बाहर खड़े होकर ही पढ़ाई करनी पड़ती थी.  


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उधार लेते थे किताबें


जब फीस भरने के लिए पैसे नहीं थे तो किताबों के लिए परिवार के पास पैसे कहां से आते.  बड़े भाई अस्थमा से पीड़ित थे इसलिए घर में ही रहते थे. वो दूसरे  छात्रों से किताबें उधार लेकर उन्हें कॉपी करते और बाद में अपने भाई को देते थे. आपको लग रहा होगा कि मैं आपको 60 के दशक की बॉलीवुड फिल्म की स्टोरी बता रहा हूं. लेकिन ऊपर लिखी एक-एक बात सच है. क्लासरूम के बाहर खड़े होकर पढ़ाई करने वाले उस लड़के ने न सिर्फ आगे चलकर भारतीय विदेश सेवा में काम किया बल्कि उपराष्ट्रपति से लेकर भारत का 10वां और पहला दलित राष्ट्रपति बना.


जी न्यूज की खास सीरीज महामहिम में आज आपको सुनाएंगे के आर नारायणन की कहानी, जिन्होंने जमीन से भारत के सबसे बड़े संवैधानिक पद का सफर तय किया. उनकी यात्रा किसी परीकथा जैसी लगती है, जिसमें मेहनत है, दलितों के उत्थान की बात है और एक सपने के हकीकत में बदलने का सफर है.


कोचेरिल रमन नारायणन (केआर नारायणन) का जन्म उझावूर के  पेरुम्थानम में 4 फरवरी 1921 को हुआ था. उनके पिता कोचेरिल रमन वैद्यर, आयुर्वेद की पारंपरिक भारतीय चिकित्सा प्रणाली के एक चिकित्सक थे और उनकी माता का नाम पुन्नाथथुरवीतिल पापियाम्मा था. उनके चाचा जब उनका दाखिला कराने पहुंचे तो उन्हें जन्मतिथि याद ही नहीं थी. उन्होंने स्कूली दस्तावेजों में जन्मतिथि 20 अक्टूबर 1920 लिखवा दी. नारायणन ने बाद में इसे ही आधिकारिक रहने दिया.


शाही परिवार से मिली थी स्कॉलरशिप


नारायणन के लिए जिंदगी की पहली तालीम की शुरुआत उझावूर के गवर्नमेंट लोअर प्राइमरी स्कूल से हुई, जिसमें उन्होंने 5 मई 1927 को दाखिला लिया. इसके बाद 1931-35  तक वे ओवर्स लेडी ऑफ लूर्डेस अपर प्राइमरी स्कूल में रहे. पढ़ने की ललक नारायणन को बचपन से ही थी. उन्होंने इंटरमीडिएट कोट्टायम के सीएमएस कॉलेज से की थी, जिसके लिए त्रावणकोर शाही परिवार ने उन्हें स्कॉलरशिप दी थी.


यूनिवर्सिटी में टॉप करने वाले पहले दलित


त्रावणकोर यूनिवर्सिटी (अब केरल यूनिवर्सिटी) से उन्होंने बीए ऑनर्स और इंग्लिश लिटरेचर में एमए किया और पूरी यूनिवर्सिटी में फर्स्ट आए. त्रावणकोर में फर्स्ट क्लास से मास्टर्स डिग्री हासिल करने वाले वह पहले दलित छात्र थे. उनसे पहले किसी भी दलित छात्र ने यह उपलब्धि हासिल नहीं की थी.


जब पहली बार हुआ जातिवाद से सामना


नारायण की बहन गौरी ने एक बार बताया था कि भले ही बचपन में नारायणन को जातिवाद का दंश झेलना न पड़ा हो लेकिन ग्रेजुएशन करने के बाद उन्हें पहली बार जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा. नौकरी के लिए नारायणन तत्कालीन दीवान सीपी रामास्वामी अय्यर से मिलने गए थे. लेकिन अय्यर ने उनसे कहा कि क्या एक परवन (दलित जाति) को रेशम का मुंडु पहनना चाहिए. इस घटना के बाद नारायणन बुरी तरह टूट गए. उनका परिवार अभी भी आर्थिक तंगहाली से जूझ रहा था. ऐसे में उन्होंने दिल्ली का रुख किया. यहां कुछ समय तक द हिंदू और टाइम्स ऑफ इंडिया (1944-45) में बतौर पत्रकार काम किया. उन्होंने इस दौरान महात्मा गांधी का भी इंटरव्यू लिया.


टाटा ने की विदेश जाने में मदद


अब नारायणन का मन विदेश जाकर पढ़ाई करने का हुआ. इसके लिए पैसों की जरूरत थी. मदद के लिए उन्होंने खत लिखा तत्कालीन टाटा ग्रुप के चेयरमैन जेआरडी टाटा को. उन्होंने नारायणन को 16 हजार रुपये की टाटा स्कॉलरशिप दी ताकि वे लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से राजनीति, इकोनॉमिक्स और जर्नलिज्म की पढ़ाई कर सकें.


लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में उन्हें हारोल्ड लास्की ने पॉलिटिकल साइंस पढ़ाया. लंदन में रहते हुए वह वीके कृष्ण मेनन की इंडिया लीग के एक्टिव मेंबर थे. साल 1948 में जब वह भारत लौटे तो लास्की ने उन्हें पंडित जवाहरलाल नेहरू के नाम एक खत दिया. इस बारे में नारायणन ने खुद बताया था.


खत में क्या लिखा था...


उन्होंने इस बारे में कहा था, 'जब मैंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ाई पूरी की तो लास्की ने खुद ही मुझे पंडित जी के नाम एक खत दिया. मैंने पीएम से मिलने के लिए वक्त मांगा. मुझे लगता है कि शायद मैं लंदन से पढ़ाई कर लौट रहा छात्र था इसलिए वक्त दे दिया गया. मैं संसद भवन पहुंचा, जहां जवाहरलाल नेहरू ने मुझसे मुलाकात की. हमने कुछ मिनट लंदन के बारे में बात की और फिर मैंने देखा कि मेरे जाने का वक्त हो गया है. मैंने उन्हें गुडबाय कहा और फिर कमरे से निकलने लगा और लास्की का खत पंडितजी को दे दिया. मैं बाहर एक बड़े से बरामदे में दाखिल हुआ और थोड़ा आगे ही बढ़ा था, तभी मुझे किसी के ताली बजाने की आवाज सुनाई दी. मैंने पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि पंडितजी बुला रहे हैं. शायद उन्होंने वो खत पढ़ लिया था, जो मैंने उन्हें दिया था. उन्होंने मुझे कहा,  'ये तुमने मुझे पहले क्यों नहीं दिया.' जवाब में मैंने कहा, 'मुझे माफ करिए सर, मुझे लगा कि शायद ये खत देखकर लौट जाना ही ठीक है.'  कुछ सवालों के बाद उन्होंने मुझसे फिर मिलने को कहा. इसके बाद मैंने खुद को भारतीय विदेश सेवा में खड़ा पाया.'
 
साल 1949 में नारायणन ने नेहरू की दरख्वास्त पर इंडिया फॉरेन सर्विस (IFS) जॉइन की. उन्होंने रंगून, टोक्यो, लंदन, कैनबरा और हनोई में दूतावासों में बतौर राजनयिक काम किया. इसके अलावा वह थाइलैंड, तुर्की, चीन, नॉर्थ वियतनाम में भी रहे. राजनयिक रहते हुए उन्होंने दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में छात्रों को पढ़ाया. 1978 में वह आईएफएस से रिटायर हो गए.


रिटायरमेंट के बाद बने जेएनयू के वीसी


रिटायरमेंट के बाद नारायणन दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के कुलपति रहे. उन्होंने इस अनुभव को सार्वजनिक जीवन की नींव बताया था. साल 1980 में जब इंदिरा गांधी विजयी हुईं और सत्ता में लौटीं तो उन्हें रिटायरमेंट से वापस बुलाया गया और वह 1980 से 1984 तक अमेरिका में भारतीय राजदूत रहे. चीन और अमेरिका में जब उनकी पोस्टिंग हुई, जो दोनों ही देशों के साथ भारत के संबंध सुधरे. 1982 में इंदिरा गांधी वॉशिंगटन दौरे पर भी गई थीं. पीएम रहते हुए नेहरू 16 साल तक विदेश मंत्री भी रहे. उन्होंने साल 1955 में केआर नारायणन को 'देश का सर्वश्रेष्ठ रायनयिक' कहा था.


शादी के लिए ली खास परमिशन


केआर नारायणन जब म्यांमार के रंगून में थे, तब उनकी मुलाकात मा टिन टिन से हुई. लेकिन उनकी शादी के बीच नियम अड़चन बन रहे थे. केआर नारायणन आईएफएस थे और मा टिन टिन विदेशी. भारतीय कानून के मुताबिक उन्हें शादी के लिए विशेष इजाजत की जरूरत थी, जो तत्कालीन पीएम जवाहरलाल नेहरू ने दे दी थी.


बाद में मा टिन टिन ने अपना नाम ऊषा नारायणन रख लिया. उन्होंने भारत में महिलाओं और बच्चों के लिए कई सामाजिक कल्याण कार्यक्रम चलाए. उन्होंने दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क से सोशल वर्क में मास्टर्स की. नारायणन की दो बेटियां हुईं चित्रा नारायणन और अमृता.


यूं हुई राजनीति में एंट्री


केआर नारायणन IFS में जवाहरलाल नेहरू की वजह से आए थे, जबकि राजनीति में इंदिरा गांधी की वजह से. वह कांग्रेस के टिकट पर लगातार तीन बार केरल के पलक्कड़ से सांसद चुने गए. राजीव गांधी सरकार में वे राज्यमंत्री थे. उन्होंने साइंस एंड टेक्नोलॉजी, विदेश मामले और प्लानिंग जैसे पोर्टफोलियो संभाले. बतौर सांसद उन्होंने भारत में पेटेंट नियंत्रण को कड़ा करने के लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव का विरोध किया. जब 1989-91 के बीच कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई, तब वह विपक्ष की बेंच पर बैठे. 1991 में जब कांग्रेस सत्ता में लौटी तो उन्हें कैबिनेट में शामिल नहीं किया. उन पर वाम दलों के करीबी होने के आरोप लगे. 21 अगस्त 1992 को नारायणन भारत के उपराष्ट्रपति चुने गए. उनके नाम की सिफारिश पूर्व पीएम वीपी सिंह ने की थी. बाद में नरसिम्हा राव ने भी उनके नाम का समर्थन किया. वाम दलों ने नारायणन के उपराष्ट्रपति बनने में सहयोग किया था.


ऐसी है राष्ट्रपति बनने की कहानी


1997 में शंकर दयाल शर्मा का कार्यकाल खत्म होने वाला था. अटकलों का दौर जारी था कि अगला महामहिम कौन बनेगा. कयास लगने लगे थे कि राष्ट्रपति उम्मीदवार केआर नारायणन को होना चाहिए. कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने उम्मीदवार चुनने की जिम्मेदारी उस वक्त के पार्टी अध्यक्ष सीताराम केसरी को सौंपी. वहीं बीजेपी की ओर से यह जिम्मेदारी अटल बिहारी वाजपेयी के पास थी. कांग्रेस ने केआर नारायण के नाम का ऐलान किया. बीजेपी ने भी समर्थन देने का फैसला किया. अब नारायण के राष्ट्रपति बनने में लगभग कोई अड़चन नहीं रह गई थी.  956290 मतों से जीतकर केआर नारायणन दसवें राष्ट्रपति बने. उनके सामने खड़े भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन की जमानत जब्त हो गई. 25 जुलाई 1997 को उन्हें तत्कालीन चीफ जस्टिस जेएस वर्मा ने पद की शपथ दिलाई.


जब आम नागरिक की तरह दिया वोट


साल 1998 के आम चुनावों में केआर नारायणन पहले ऐसे राष्ट्रपति बने, जिन्होंने पद पर रहते हुए वोट डाला था. राष्ट्रपति भवन परिसर में बने स्कूल के भीतर पोलिंग बूथ में वह आम नागरिक की तरह लाइन में खड़े थे और अपनी बारी आने का इंतजार किया. नारायणन ने आम चुनावों के दौरान भारतीय राष्ट्रपतियों के मतदान न करने की लंबे समय से चली आ रही प्रथा को बदलने की भी कोशिश की. 1999 में भी उन्होंने वोट डाला था.


कई बार दिखाई राष्ट्रपति की पावर


अकसर कह दिया जाता है कि राष्ट्रपति केंद्र सरकार के रबर स्टैंप होते हैं और केवल उनके प्रस्तावों पर मुहर लगाते हैं. लेकिन नारायणन के सामने दो ऐसे मौके आए, जब उन्होंने चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश को लौटा दिया. पहला मामला 1997 में आया. तब केंद्र में इंद्रकुमार गुजराल पीएम थे. केंद्र संयुक्त मोर्चा सरकार की ओर से यूपी में सरकार को बर्खास्त करने का प्रस्ताव नारायणन के सामने आया था.


दूसरा मौका 1998 में आया. जब अटल बिहारी वाजपेयी पीएम थे और बिहार में राबड़ी देवी सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश राष्ट्रपति के पास आई थी. लेकिन दोनों ही मौकों पर उन्होंने अपना विवेक इस्तेमाल करते हुए केंद्र की सिफारिशें नहीं मानी. 24 जुलाई 2002 को उनका कार्यकाल खत्म हो गया. वह अपनी पत्नी ऊषा के साथ सेंट्रल दिल्ली के एक बंगले में शिफ्ट हो गए. 9 नवंबर 2005 को आर्मी रिसर्च एंड रेफरल हॉस्पिटल में 85 साल की उम्र में निधन हो गया. पूरे राजकीय सम्मान और हिंदू रीति-रिवाज से उनका अंतिम संस्कार किया गया.


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