Gopaldas Neeraj: गोपालदास नीरज साहित्यिक दुनिया के वो शहंशाह थे जिनके सिर पर ताज तो नहीं था लेकिन उनके ज़रिए लिखी गई रचनाएं उनकी बादशाहत आज तक कायम रखे हुए हैं. आज ही के दिन उन्होंने इटावा में जन्म लिया था. इस मौके पर हम आपको उनकी जिंदगी से जुड़ी कुछ दिलचस्प घटनाओं के बारे में बताने जा रहे हैं.
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'लिखे जो खत तुझे - वो तेरी याद में ...', 'शोखियों में घोला जाये फूलों का शबाब - उसमें फिर मिलाई जाए थोड़ी सी शराब', रंगीला रे, तेरे रंग में - यूं रंगा है मेरा मन', ए भाई जरा देख के चलो - आगे ही नहीं पीछे भी. जैसे गीत लिखने वाले गोपालदास नीरज उन चंद कवियों में शुमार किए जाते हैं जिनपर भाषाएं नाज़ करती हैं, जिनकी रचनाएं ऐसी होती हैं कि फर्क नहीं पड़ता कौन सी जनरेशन पढ़ रही है, उनकी रचनाएं वक्त के साथ-साथ हकीकत का लिबादा ओढ़ती चली जाती हैं. गोपाल दास नीरज उसी नस्ल के कवियों और शायरों में गिने जाते हैं. 4 जनवरी 1925 को इटावा जन्म लेने वाले नीरज बहुमुखी प्रतिभा के कवि थे. मंचों से लेकर फिल्मों तक उनके कलम का जिक्र किया जाता है.
महज़ 6 वर्ष के थे जब उन्होंने अपने पिता को खो दिया था. उनका घर बेहद बुरे आर्थिक हालात से गुजर रहा था. उन्होंने इन दिनों में नदी में गोते लगाकर सिक्के जमा किए, बीड़ी और पान बेचा, यहां तक कि रिक्शा भी चलाया. एक जानकारी के मुताबिक नीरज लगभग 10 वर्षों तक दूसरों के घर पर भी रहे. शायद इसीलिए उन्होंने लिखा था-
तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा
सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा
गोपालदास नीरज की शायरी में काफी मायूसी और महरूमी भी नजर आती है. वो लिखते हैं-
अब के सावन में शरारत मेरे साथ हुई
मेरा घर छोड़ के सारे शहर में बरसात हुई
जिंदगी भर औरों से हुई गुफ़्तगू मगर
आज तक हमारी हमसे न मुलाक़ात हुई
बुझ जाए सरे आम ही जैसे कोई चिराग़,
कुछ यूँ है शुरुआत मेरी दास्तान की
औरों के घर की धूप उसे क्यूँ पसंद हो
बेची हो जिसने रौशनी अपने मकान की
'नीरज' से बढ़कर और धनी है कौन,
उसके हृदय में पीर है सारे जहान की
बहुत कम उम्र से ही अपने कंधों पर जिम्मेदारियों का बोझ लेकर चल रहे नीरज ने जिंदगी में कई कड़वे अनुभवों और बेहद मुश्किल अनुभवों का सामना किया. शुरुआती दिनों में उन्होंने इटावा की कचहरी में टाइपिस्ट के तौर पर काम किया. इसके बाद सिनेमाघर की एक दुकान पर नौकरी की. दिल्ली में सफाई विभाग के अदर भी टाइपिस्ट की तौर पर काम किया. इसके बाद कानपुर में एक कॉलेज में क्लर्की भी की. एक प्राइवेट कम्पनी में कई वर्षों तक टाइपिस्ट का काम किया. हालांकि एक खास बात यह थी कि वो इन नौकरियों के दौरान अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ते थे. उन्होंने 1949 में इण्टरमीडिएट, 1951 में ग्रेजुएशन और 1953 में फर्स्ट डिविजन के साथ हिन्दी साहित्य से मास्टर्स की डिग्री हासिल की. इसके बाद नीरज ने अध्यापक के तौर पर भी काम किया. इन सबसे पहले 1942 के 'भारत छोड़ो' आंदोलन के दौरान उन्हें कई दिनों तक जेल में भी रहना पड़ा था.
कहा जाता है कि गोपालदास नीरज की जिंदगी की एक घटना ने उन्हें इतना बड़ा शायर/कवि बनाने में अहम किरदार अदा किया है. वो घटना है उनकी भांजी की मौत की. दरअसल उनकी भांजी की दुल्हन के श्रंगार में एक सड़क हादसे में मौत हो गई थी. इस घटना ने नीरज को अंदर तक झकझोर दिया था. इस घटना को उन्होंने अपने कलम को रोशनाई से कागत पर भी उतारा और वो दर्द आज भी उनके दर्द के तर्जुमानी करता है. बाद उनके इस गीत को मोहम्मद रफी ने अपनी आवाज दी थी. बाद में जावेद अख्तर ने भी उन्हें इस गीत के चलते 'हिंदी का शायर और उर्दू का कवि' जैसे अनूठे लकब से नवाजा था.
मांग भर चली कि एक जब नई नई किरन
ढोलकें धमक उठीं ठुमक उठे चरन चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गांव सब उमड पड़ा बहक उठे नयन नयन
पर तभी ज़हर भरी
गाज एक वो गिरी
पुंछ गया सिंदूर तार तार हुई चुनरी
और हम अंजान से
दूर के मकान से
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे
उनकी शायरी में कई जज्बों के अलावा देश और लोगों के लिए फिक्र की झलक भी देखने को मिलती है. लोगों के बीच जब भी एकता संदेश देना हो तो गोपालदास नीरज का यह गीत शायद सबसे सटीक बैठता है. नीरज लिखते हैं-
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए.
जिसकी ख़ुशबू से महक जाए पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए
आग बहती है यहां गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहाँ जाके नहाया जाए
प्यार का ख़ून हुआ क्यों ये समझने के लिए
हर अंधेरे को उजाले में बुलाया जाए।
मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूं भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए।
जिस्म दो होके भी दिल एक हों अपने ऐसे
मेरा आंसू तेरी पलकों से उठाया जाए
गीत उन्मन है, ग़ज़ल चुप है, रुबाई है दुखी
ऐसे माहौल में ‘नीरज’ को बुलाया जाए
गोपालदास नीरज को कवि सम्मेलनों में बहुत सराहा जा रहा था. इसी दौरान उन्हें फिल्मों के लिए गीत लिखने का ऑफर मिला. उन्होंने जब फिल्मों के लिए लिखना शुरू किया तो एक नए दौर के गीत लोगों को सुनने के लिए मिले. फिल्मी दुनिया में पहले स्थापित लोगों की नजर जब नीरज पर पड़ी तो वो भी उनके मुरीद हो गए. इनमें दो सबसे बड़े नाम देवानंद और राजकपूर साहब का है. कई वर्षों तक उन्होंने फिल्मों के लिए लिखा और जमकर शोहरत बंटोरी. कहा जाता है कि उन्होंने महज़ 5 वर्षों में सवा सौ से ज्यादा गाने लिख डाले थे. उनके लिखे गाने हम और आप आज भी भी कभी-कभी गुनगुनाने लग जाते हैं. हालांकि इसी दौर में बॉलीवुड में अपना मूड बदल रहा था, यानी तरह-तरह के प्रयोग किए जा रहे थे. हालांकि ये प्रयोग नीरज को नहीं भा रहे थे, शायद इसीलिए उन्होंने बम्बई की जिंदगी को छोड़कर फिर से अलीगढ़ जाने का फैसला, यहां उन्होंने अध्यापक रहने के दौरान अपना बना था.
साहित्यिक दुनिया के इस रौशन चिराग को सम्मान की सनद की जरूरत नहीं थी लेकिन फिर भी उन्हें कई बड़े सम्मान मिले. 1991 में पद्म श्री, 1994 में यश भारती और 2007 में भारत सरकार की तरफ से पद्म भूषण दिया गया.
फिल्मी दुनिया की बात करें तो उन्हें तीन बार फिल्म फेयर से नवाज़ा गया है.
➤ 1970: काल का पहिया घूमे रे भइया! (फ़िल्म: चंदा और बिजली)
➤ 1971: बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं (फ़िल्म: पहचान)
➤ 1972: ए भाई! ज़रा देख के चलो (फ़िल्म: मेरा नाम जोकर)
93 वर्ष की उम्र तक बरगद जैसा विशाल व्यक्ति अपने कंधों पर साहित्य का बोझ लिए डंटा रहा लेकिन 19 जुलाई 2018 इस दुनिया से अलविदा कह गया. नीरज ने दिल्ली के एम्स में शाम लगभग 8 बजे अन्तिम सांस ली.