Presidential Election: भारतीय राजनीति ने ऐसे कई मोड़ देखे हैं, जिन्होंने देश की दशा और दिशा ही बदल दी. जरा सोचिए कौन नेता प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहेगा. लेकिन एक नेता ऐसे भी थे, जिनके सामने थाल में सजाकर ये पद लाया गया और उन्होंने मना कर दिया.


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साल 1991 का दौर भारत के लिए बेहद मुश्किल था. देश में लोकसभा चुनाव चल रहे थे. पहले चरण की वोटिंग के अगले दिन यानी 21 मई को एक चुनावी सभा में राजीव गांधी की हत्या कर दी गई. देश में सियासी उथल-पुथल मच गई. उस दौर का कांग्रेस का सबसे लोकप्रिय चेहरा दुनिया से जा चुका था. आनन-फानन में बाकी दो चरणों की वोटिंग टाल दी गई. बाद में 12 और 15 जून को मतदान कराए गए. चुनाव के नतीजे आए तो कांग्रेस को 232 सीट मिलीं और वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. लेकिन बहुमत किसी पार्टी को नहीं मिला.


...जब देश ने देखी राजीव गांधी की हत्या


कांग्रेस ने जैसे तैसे बहुमत का जुगाड़ कर लिया. लेकिन सवाल उठा कि पीएम कौन बनेगा. ये फैसला राजीव गांधी की पत्नी और मौजूदा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को लेना था. सोनिया गांधी ने तुरंत अरुणा आसिफ अली और नटवर सिंह को बुलावा भेजा और उस शख्सियत से मुलाकात करने को कहा, जो उस समय भारत के उपराष्ट्रपति थे. दोनों नेता उनके पास पहुंचे. इन दोनों के पास जिम्मेदारी थी उन्हें पीएम पद संभालने के लिए राजी करना.


लेकिन उस हस्ती ने स्वास्थ्य और उम्र का हवाला देकर इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया. हालांकि बाद में वह भारत के राष्ट्रपति बने. ये वो शख्स था, जो राष्ट्रपति बनने पर कभी अपने घर नहीं जा पाया और अपने दामाद और बेटी के हत्यारों की दया याचिका सुननी पड़ी. जी न्यूज की खास सीरीज महामहिम में आज कहानी जानिए देश के नौंवे राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा की.



भोपाल में हुआ था जन्म


भोपाल के करीब एक गांव है आमोन. वहां ब्रिटिश राज में 19 अगस्त 1918 को गुलिया दाई में शंकर दयाल शर्मा का जन्म हुआ. पढ़ने-लिखने में बेहद होशियार. फिट्ज़विलियम कॉलेज से उन्होंने वकालत पढ़ी. लखनऊ यूनिवर्सिटी से सोशल सर्विस में उन्हें चक्रवर्ती गोल्ड मेडल भी मिला. बाद में उन्होंने कैम्ब्रिज और लखनऊ यूनिवर्सिटी में भी काम किया. इन यूनिवर्सिटीज में काम करने के दौरान हार्वर्ड लॉ स्कूल ने फेलोशिप दे दी.


आजादी की लड़ाई में कूदे


1940 तक आते-आते आजादी की लड़ाई और तेज हो चुकी थी. शंकर दयाल शर्मा भी आजादी के संग्राम में कूद पड़े और कांग्रेस में शामिल हो गए. आजीवन वह इसी पार्टी में रहे. आजादी के बाद भोपाल के नवाब रियासत को भारत से अलग रखना चाहते थे. दिसंबर 1948 में शंकर दयाल शर्मा ने नवाब के खिलाफ ही बिगुल छेड़ दिया. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. 23 जनवरी 1949 को शर्मा को सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबंध का उल्लंघन करने के लिए आठ महीने की जेल की सजा सुनाई गई थी. लेकिन लोगों का गुस्सा देखते हुए नवाब ने उन्हें रिहा कर दिया और 30 अप्रैल 1949 को भारत का हिस्सा बनने को राजी हो गए. 1952 में शर्मा भोपाल के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने.


1956 में जब भोपाल राज्य का कई अन्य राज्यों के साथ मध्य प्रदेश में विलय हो गया, तब तक वह उस पद पर रहे. 1 नवंबर 1956 को जब मध्य प्रदेश अस्तित्व में आया तो उन्हें शिक्षा मंत्री बनाया गया. उन्होंने स्कूलों में ग से गणेश की जगह गधा पढ़वाना शुरू करवाया था. उनका मानना था कि शिक्षा को धर्म से दूर रखना चाहिए. उनके इस कदम का हिंदू महासभा और जनसंघ के लोगों के काफी विरोध किया था. लेकिन दूसरी ओर वक्त के साथ शंकर दयाल शर्मा का कद कांग्रेस पार्टी में बढ़ता जा रहा था. 1960 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी की कमान संभालने के लिए इंदिरा गांधी का समर्थन किया.


1980 में बने सांसद


1972 में वह ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने. 1974 से लेकर 1977 तक केंद्र में सूचना मंत्री रहे. 1980 में जब देश की सत्ता में दोबारा कांग्रेस लौटी तो भोपाल की लोकसभा सीट से शर्मा को जीत मिली. 1980 के बाद से देश में लगातार पंजाब का माहौल बिगड़ रहा था. खालिस्तान की मांग तेज होने लगी थी. इंदिरा गांधी सरकार के लिए भिंडारावाले चुनौती बन चुका था. सरकार ने ऑपरेशन ब्लू स्टार चलाया और खालिस्तान की आग को शांत कर दिया. लेकिन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई. देश में सिख विरोधी दंगे भड़के. जगदीश टाइटलर, सज्जन कुमार समेत कई दिग्गज कांग्रेसी नेताओं पर दंगा भड़काने के आरोप लगे. इन आरोपियों में एक नाम ललित माकन का भी था, जो उस वक्त दक्षिणी दिल्ली से कांग्रेस सांसद थे और शंकर दयाल शर्मा के दामाद भी.


बेटी-दामाद की हत्या से लगा सदमा


उस वक्त शंकर दयाल शर्मा आंध्र प्रदेश के गवर्नर थे. 31 जुलाई 1985 का दिन उनके लिए जिंदगी का सबसे बड़ा सदमा लेकर आया. वेस्ट दिल्ली के कीर्ति नगर में अपने आवास पर ललित माकन लोगों से मुलाकात कर रहे थे. तभी तीन आतंकियों हरजिंदर सिंह जिंदा, सुखदेव सिंह सूखा और रंजीत सिंह गिल उर्फ कुकी ने उन पर गोलियों की बौछार कर मौत के घाट उतार दिया. फायरिंग में उनकी बेटी गीतांजलि भी चपेट में आ गई और उनकी भी मौत हो गई. आतंकी फरार हो गए. बाद में उन्होंने जनरल अरुण वैद्य की भी हत्या कर दी, जिन्होंने ऑपरेशन ब्लू स्टार का नेतृत्व किया था. इन आतंकियों को गिरफ्तार कर लिया गया. जिंदा और सूखा पर केस चला और कोर्ट ने उनको फांसी की सजा सुना दी.



पंजाब-महाराष्ट्र के गवर्नर रहे


नवंबर 1985 में शंकर दयाल शर्मा पंजाब के गवर्नर बनाए गए. लेकिन 1986 में उनको महाराष्ट्र के राज्यपाल का प्रभार सौंप दिया गया. इस पद पर वह 1987 तक रहे. इसके बाद उपराष्ट्रपति चुनाव हुए, जिसमें उन्हें जीत मिली. राज्यसभा चेयरमैन रहते हुए वह संसदीय गरिमा को लेकर बेहद सख्त माने जाते थे. एक बार किसी राजनीतिक मुद्दे पर सदन के सदस्यों का रवैया देख वह आहत हो गए और यह कहते हुए आसन छोड़कर चले कि वह 'लोकतंत्र की हत्या' में कोई पक्ष नहीं बनना चाहते.


अब जानिए कैसे बने राष्ट्रपति


अब आते हैं, उसी मोड़ पर जहां से कहानी शुरू की थी. जब शंकर दयाल शर्मा ने पीएम पद ठुकरा दिया तो पीएन हक्सर की सलाह पर सोनिया गांधी ने पीवी नरसिम्हा राव को कांग्रेस अध्यक्ष और पीएम पद संभालने की मंजूरी दे दी. शंकर दयाल शर्मा ने 1991 में प्रधानमंत्री पद की पेशकश ठुकराई थी लेकिन 1992 में वह राष्ट्रपति बनने के लिए राजी हो गए. तब वह उपराष्ट्रपति थे. कांग्रेस ने उन्हें उम्मीदवार बनाया. सामने थे जॉर्ज गिल्बर्ट स्वेल, जो बीजेपी और राष्ट्रीय मोर्चा समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार थे. इस मुकाबले में मशहूर वकील राम जेठमलानी भी थे. शंकर दयाल शर्मा को चुनाव जीतने में कोई मुश्किल नहीं हुई. उन्हें मिले वोटों का इलेक्टोरल वैल्यू 675,864 रहा, जबकि स्वेल का 346485. जेठमलानी का इलेक्टोरल वैल्यू 2704 रहा. शंकर दयाल शर्मा देश के नौंवे राष्ट्रपति बने और 1997 तक अपने पद पर रहे.


जब सामने आई बेटी-दामाद के कातिलों की दया याचिका


जब शंकर दयाल शर्मा राष्ट्रपति थे, तो उनके सामने उन हत्यारों की दया याचिका आई, जिन्होंने उनकी बेटी और दामाद की हत्या कर दी थी. सूखा और जिंदा ने फांसी से बचने के लिए दया याचिका लगाई थी. लेकिन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने उसे खारिज कर दिया. 9 अक्टूबर 1992 को दोनों आतंकियों को पुणे की यरवदा जेल में फांसी दे दी गई.


राष्ट्रपति रहते हुए नहीं जा पाए थे घर


क्या आप ये सोच सकते हैं कि जिन गलियों में आप पले-बढ़े हों. पूरा बचपन बीता हो. बाद में उन्हीं गलियों में ना जा पाएं. लेकिन राष्ट्रपति रहते हुए शंकर दयाल शर्मा के साथ ऐसा हुआ. उनका घर भोपाल की गुलिया दाई में था. वहां की गलियां बेहद संकरी थीं. सुरक्षा कारणों से उन्हें घर न जाने की सलाह दी गई. बतौर राष्ट्रपति वह कभी अपने घर नहीं जा पाए.


हार्ट अटैक से हुआ निधन


जीवन के अंतिम पांच साल शंकर दयाल शर्मा काफी बीमार रहे. 26 दिसंबर 1999 को उन्हें हार्ट अटैक आया और उन्हें नई दिल्ली के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया, लेकिन उन्हें बचाया नहीं जा सका. उनका अंतिम संस्कार कर्मभूमि में किया गया. अगली कड़ी में जानेंगे राष्ट्रपति केआर नारायणन के बारे में, जिन्हें 'कॉन्स्टिट्यूशनल प्रेसिडेंट' कहा जाता था.  


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