नई दिल्ली: देश-दुनिया में अपनी बांसुरी की सुर का जादू बिखेरने वाले पद्मविभूषण हरि प्रसाद चौरसिया का जन्म एक जुलाई 1938 को प्रयागराज में हुआ था. इनके पिता छेदीलाल चौरसिया प्रयागराज के एक मशहूर पहलवान थे. 5 साल की ही उम्र में इनके माता का देहांत हो गया. बचपन में ही उनका मन संगीत की ओर झुकने लगा था. परिवार उन्हें पहलवान बनाना चाहता था लेकिन उन्होंने अपने परिवार की इच्छा विरुद्ध संगीत की राह चुनी. उनका यह निर्णय बिल्कुल सही साबित हुआ. संगीत के क्षितिज पर चमके. 


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हरिप्रसाद ने बांसुरी वादन की शुरुआती शिक्षा-दीक्षा अपने पड़ोसी पंडित राजाराम से हासिल की. बाद में युवावस्था में इनकी मुलाकात वाराणसी के मशहूर बांसुरीवादक पंडित भोलेनाथ प्रसन्ना से हुई. भोलेनाथ ने इनके हुनर को तराशा. बांसुरी बजाने के साथ ही संगीत के गुर सिखाए. लगभग 8 साल तक उन्होंने भोलेनाथ के सानिध्य में शिक्षा ली. 


हरिप्रसाद ने 1957 में एक कलाकार के रूप में ऑल इंडिया रेडियो में अपने करियर की शुरुआत की. फिर ओडिशा टीम का हिस्सा बन गए. 1960 में कटक से ऑल इंडिया रेडियो मुंबई में स्थानांतरित कर दिया गया. मुंबई में रहते हुए मशहूर संगीतकार बाबा अलाउद्दीन खान की पुत्री अन्नपूर्णा देवी से मुलाकात हुई, जो भारतीय शास्त्रीय संगीत शैली में सुरबहार वाद्ययंत्र (बास का सितार) बजाने वाली महिला उस्ताद थीं.  


ऐसे मिला 'पंडित टाइटल
दरअसल, शास्त्रीय संगीत और खासकर बांसुरी में महारत हासिल करने लेने से लोग हरिप्रसाद को सम्मानपूर्वक पंडित जी कहने लगे. बाद में पंडित शब्द उनके नाम में टाइटल के रूप में जुड़ गया.  


मिला संतूरवादक शिवकुमार शर्मा का साथ
अन्नपूर्णा देवी के मार्गदर्शन में नया आयाम को छुआ. करियर की नई ऊंचाई पर पहुंचने के लिए ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी छोड़ दी. 1960 के दशक में इनको संतूरवादक शिवकुमार शर्मा का साथ मिल गया. दोनो मिलकर शिव-हरि के नाम से अपना प्रोग्राम करने लगे. यह जोड़ी बड़ी मकबूल हुई. इस जोड़ी ने भारतीय सिनेमा में मशहूर फिल्मों जैसे चांदनी, सिलसिला, डर, फासले, साहिबान, और विजय जैसी फिल्मों में अपने मधुर संगीत का जलवा बिखेरा.