Bawariya Gang: हिंदुस्तान में जब भी गुनाहों की फेहरिस्त को खंगाला जाता है तो एक गैंग का जिक्र बार-बार मिलता है. साल दर साल, दशकों और शतकों से एक गैंग या फिर कहें एक समाज जिसने खौफ की कई इबारतें गढी. लेकिन समझना होगा कि यह समाज आखिर राजस्थान से निकल कर क्यों इतना क्रूर होता गया या यूं कहे देश में आतंक का पर्याय बनता गया. हम बात कर रहे हैं बावरिया समाज की. जो अंग्रेजों के शासन से ही समाज से बहिष्कृत रहा. 


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ऐसे बना खौफ का दूसरा नाम बना बावरिया गैंग
2005 -2006 का वो साल था जब हिन्दुस्तान की सियासत एकाएक दहल उठी. दिल्ली से दक्षिण तक एक ही गैंग की चर्चा होने लगी. दरअसल बावरिया गैंग ने तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता के खास विधायक टी.सुदर्शन और कांग्रेस नेता टीएम नटराजन की हत्या कर दी थी. यह गैंग तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश में लूट और हत्या की कई वारदातों को अंजाम दे चुका था लेकिन रहनुमाओं को निशाना बना कर बावरिया गैंग जयललिता सरकार की हिट लिस्ट में आ गई.  


बरसों पहले राजस्थान से निकले इस गैंग के खातमें की जिम्मेदारी भी राजस्थान  से तालुक रखने वाले आईपीएस सांगाराम जांगिड़ को मिली. जयललिता ने तत्कालीन पुलिस महानिरीक्षक (कानून व्यवस्था) सांगाराम जांगीड़ की अगुवाई में टीम गठित की और फिर शुरू हुआ 'ऑपरेशन बावरिया गैंग'. 


जूती बनी बाविरया गैंग तक पहुंचने की कड़ी
तमिलनाडु की सियासत दो नेताओं की हत्या से गर्म थी. आईपीएस सांगाराम जांगिड़ ने मामले की जांच 
शुरू की. मौका-ए-वारदात से एक जोड़ी जूती मिली. जिससे साफ हो गया कि हत्या उत्तर भारत की एक गैंग ने की. जिसके बाद जांगीड़ ने अपने 50 साथी अधिकारियों और पुलिसकर्मियों के साथ राजस्थान समेत हरियाणा और उत्तरप्रदेश में ऑपरेशन लॉच किया. ऐसे अपराधों में शामिल रहने वाले बावरिया और कंजर गिरोह की पड़ताल की गई.


ऐसे हुआ खुलासा
आईपीएस सांगाराम जांगिड़ की जांच सही दिशा में बढ़ी और करीब पांच महिने बाद बड़ी सफलता मिली. जांच के दौरान आगरा जेल में 1996 में बंद रहे आरोपियों के फिंगर प्रिंट मौका-ए-वारदात से लिए गए फिंगर प्रिंट से मेल हो गए. जांच को आगे बढ़ाते हुए सांगाराम की टीम ने चंबल के बिहड़ कहलाने वाले इलाके धौलपुर और भरतपुर से लेकर यूपी के मेरठ और हरियाणा के पलवल में छापेमारी करते हुए कुल 13 लोगों को धर दबोचा. इस गैंग का सरगना भरतपुर का रहने वाला ओम बावरिया था. ओम बावरिया समेत गिरफ्तार किए गए उसके गैंग के लोगों ने विधायक की हत्या सहित अन्य अपराध करने की बात कबूली. मामला कोर्ट में चला और पकड़े गए दो लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई, बाकि को को अलग-अलग धाराओं में सजा दी गई.


 
ऐसे ही क्रुर नहीं बनी बावरिया गैंग
बावरिया समाज के क्रुर बनने की कहानी तीन शतक पुरानी है. आजादी की पहली लड़ाई यानी 1857 की जंग में कबीलाई और खानाबदोश जनजातियों ने भी बढ़-चढ़कर अंग्रेजों से लोहा लिया. इस विद्रोह से अंग्रेज सतर्क हो गए. जिसके बाद लोगों को नियंत्रण करने के लिए कई नए कानून बनाए गए. अंग्रेजी हुकुमत के दौरान, क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट (1871) के तहत जिन जनजातियों को आपराधिक जनजाति के रूप में घोषित किया गया था, उनमें बावरिया जनजाति भी शामिल थी. इस काले कानून के तहत पूरे समुदाय को अपराधियों की श्रेणी में रखा गया था. 


अंग्रेजी हुकुमत के दौरान बावरिया समाज को अपने नजदीकी पुलिस स्टेशन में हर रोज तीन बार हाजिरी देनी होती थी. यहां तक कि बच्चों और बूढ़ों तक को नहीं छोड़ा गया. दूसरे गांव या इलाकों में जाने के लिए इन्हें अनुमति लेनी पड़ती थी. लिहाजा ऐसे में इस जनजाति पर “आपराधिक जनजाति” का ठप्पा लगा दिया गया. आजादी के कुछ साल बाद ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम’ को कानूनी रूप से खत्म कर दिया गया. लेकिन समाज में इन्हें लेकर तस्वीर नहीं बदली. जिसके चलते बरसों तक इन्हें बहिष्कृत रखा गया. हालांकि अब बावरिया समाज की कुछ हद तक तस्वीर बदल रही है.


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