डी लिट की उपाधि देने में देरी, राजस्थान विश्वविद्यालय पर लगा 5 लाख का जुर्माना
राजस्थान राज्य मानव अधिकार आयोग (Rajasthan State Human Rights Commission) के अध्यक्ष जस्टिस गोपाल कृष्ण व्यास ने परिवादी डॉ. राकेश शास्त्री की लंबित प्रकरण में निर्णय दिया.
Jaipur: सेवानिवृत्त प्रोफेसर को डी लिट का प्रोविजनल सर्टिफिकेट देरी से देने के मामले में राज्य मानवाधिकार आयोग ने राजस्थान विश्वविद्यालय (Rajasthan University) पर 5 लाख रुपये का जुर्माना लगाया है. आयोग ने विश्वविद्यालय को क्षतिपूर्ति राशि देने की आदेश देते हुए इसकी पालना रिपोर्ट मांगी है.
राजस्थान राज्य मानव अधिकार आयोग (Rajasthan State Human Rights Commission) के अध्यक्ष जस्टिस गोपाल कृष्ण व्यास ने परिवादी डॉ. राकेश शास्त्री की लंबित प्रकरण में निर्णय दिया. श्री गोविन्द गुरु राजकीय महाविद्यालय बांसवाड़ा के सेवानिवृत संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ राकेश शास्त्री ने 15 अगस्त 1993 को डी.लिट. की उपाधि के लिए राजस्थान विश्वविद्यालय में आवेदन किया.
25 अप्रेल 1994 को विश्वविद्यालय से पत्र आने पर शास्त्री ने निर्धारित शुल्क एवं माईग्रेशन (मूल) आदि सभी अपेक्षित कागजात जमा करा दिए थे. पूर्ण प्रयास करने के बाद कुलसचिव ओपी गुप्ता के सघन प्रयासों से 20 सितम्बर 2013 को मौखिकी सम्पन्न हुई और इसके बाद 3 मार्च 2015 को सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त हो गए, किन्तु इस उपाधि का शास्त्री को आज तक भी प्रोवीजनल सर्टिफिकेट (provisional certificate) नहीं मिल सका.
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प्रोफेसर राकेश शास्त्री (Professor Rakesh Shastri) ने कहा कि 21 साल बीतने के बाद भी उन्हें डी.लिट. उपाधि का प्रोवीजनल सर्टिफिकेट तक नहीं मिल सका है. जिससे विश्वविद्यालय द्वारा दी जाने वाली इस उपाधि की उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह सहज ही लग जाता है.
राजस्थान विश्वविद्यालय ने अपना जवाब अंतिम रुप से 24 नवंबर 2016 को पेश किया. डॉ. राकेश शास्त्री ने अपने प्रार्थनापत्र के साथ डी.लिट शोध कार्य की रुपरेखा ही प्रस्तुत नहीं की थी. शोध कार्य (Research Work) के लिए गठित समिति द्वारा मांगे जाने पर डॉ. शास्त्री ने 11 मार्च 2000 को जवाब भेजा कि पंजीकरण तिथि से डी.लिट. शोध कार्य पूर्ण करने की न्यूनतम समयावधि तीन वर्ष निर्धारित थी.
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इधर डॉ.शास्त्री ने शोधकार्य के पूर्ण होने में देरी को देखते हुए 7 मई 2005 में पत्र लिख कर तीन वर्ष का समय विस्तार मांगा. कुलपति कार्यालय ने 26 अगस्त 2005 को दो वर्ष के लिए समय विस्तार प्रदान किया गया. उक्त समय में भी कार्य पूरा नहीं करने पर डॉ. शास्त्री ने पुनः पत्र 11.8.2006 को शोधकार्य जमा कराने की अवधि एक वर्ष और बढ़ाने की प्रार्थना की जिस पर कार्यालय 4 सितम्बर 2007 तक का समय विस्तार प्रदान किया गया. डी.लिट. थीसिस जमा कराने की अधिकतम समयावधि 8 वर्ष देय थी. अन्तत: शोधार्थी ने लगभग 7 वर्ष का समय लेकर दिनांक 23.7.2007 को अपनी डी.लिट. शोध थीसिस विश्वविद्यालय में जमा करवाई.
तीन बाहय परीक्षकों में से एक परीक्षक ने डॉ. शास्त्री की थीसिस का मूल्यांकन कर उस पर डी.लिट. उपाधि प्रदान करने से अस्वीकार कर दिया. अन्य दो परीक्षकों की रिपोर्ट्स संलग्न करते हुए तीसरे बाहय परीक्षक से अपनी अनुशंषा पर पुनः विचार करने हेतु पत्र लिखा. उक्त परीक्षक ने अपनी अनुशंषा /राय बदलने में असमर्थता व्यक्त कर दी. इसी दौरान एक बाहय परीक्षक की मृत्यु हो गई. अतः कुलपति द्वारा अन्य बाह्य परीक्षक नियुक्त करने हेतु लिखा गया. सीनेट द्वारा ग्रेस पास नहीं होने के कारण 7 जुलाई 2015 को आयोजित दीक्षान्त समारोह में डॉ. शास्त्री को उपाधि प्रदान नहीं की जा सकी परन्तु अगली बैठक में ग्रेस पास होने पर 7 जुलाई 2016 को आयोजित दीक्षान्त समारोह (Convocation ceremony) में डॉ. शास्त्री को विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट. की उपाधि प्रदान की गई.
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इधर विश्वविद्यालय द्वारा भेजी गई रिपोर्ट की प्रति परिवादी को भेजकर प्रतिकिया तलब की गई. प्रतिकिया में परिवादी ने पुनः अपने पक्ष को दोहराते हुए कहा कि वह क्षतिपूर्ति प्राप्त करने का अधिकारी है. आयोग द्वारा सम्पूर्ण तथ्यों का अवलोकन करने के बाद यह पाया कि स्वीकृत रुप से यह विवाद का विषय नहीं है कि परिवादी ने डी.लिट. हेतु प्रथम बार अपना प्रार्थनापत्र दिनांक 15.8.1993 को प्रस्तुत किया तथा सात वर्ष बाद उसके विषय “महाभारत एवं कालिदास के भावचित्रों तुलनात्मक अध्ययन” का पंजीकरण करते हुए विश्वविद्यालय ने पंजीकरण नम्बर जारी किया.
परिवादी ने वर्ष 2007 में डी.लिट. उपाधि के लिए शोध प्रबन्ध व इसके सार को नियमानुसार रसीद के माध्यम से शुल्क जमा कराते हुए जमा करवा दिया. लेकिन विश्वविद्यालय द्वारा उसे कोई प्रोवीजनल सर्टिफिकेट नहीं दिया गया, न ही उसे डी.लिट. की उपाधि प्रदान की गई. डॉ राकेश शास्त्री ने 16 जून 2015 को आयोग के समक्ष अपना परिवाद प्रस्तुत किया. परिवाद पर नोटिस जारी होने के बाद वर्ष 2016 में परिवादी को डी.लिट. की उपाधि प्रदान की गई.
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आयोग अध्यक्ष जस्टिस गोपालकृष्ण व्यास (Justice Gopalkrishna Vyas) ने तथ्य स्पष्ट किया है कि शैक्षणिक संस्थाओं में शीघ्र कार्रवाई किया जाना आवश्यक होता है क्योंकि छात्र योग्यता हासिल करने के बाद ही उसका लाभ प्राप्त कर सकता है. आयोग में परिवाद प्रस्तुत करने के बाद परिवादी को डी.लिट. की उपाधि प्रदान की गई परंतु इससे पूर्व परिवादी सेवानिवृत (retired) हो चुका था, इसलिए डी.लिट. की उपाधि निर्र्थक और सारहीन हो गई, जिसका लाभ परिवादी को नहीं मिल पाया.
विश्वविद्यालय नें अपने जवाब में यह कहीं नहीं लिखा है कि परिवादी अकेला इस देरी के लिए जिम्मेदार है. उन हालातों का जिक्र किया गया है जो विश्वविद्यालय (University) के नियंत्रण में थे लेकिन कोई आवश्यक कार्रवाई विश्वविद्यालय स्तर पर नहीं की गई. अतः स्पष्ट है कि विश्वविद्यालय स्तर पर कछुए की चाल से कार्रवाई की गई है.
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राजस्थान राज्य मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष, न्यायाधिपति गोपाल कृष्ण व्यास ने फ़ाइल पर उपलब्ध दस्तावेजात एवं रिपोर्ट के आधार पर आदेश में कहा है कि परिवादी को डी.लिट.की उपाधि प्राप्त करने के लिए वर्षों तक इन्तजार करना पड़ा और इस दरमियान परिवादी सेवानिवृत भी हो गया, इसके लिए राजस्थान विश्वविद्यालय व उसके अधिकारी व कर्मचारी जिम्मेदार है.
आयोग अध्यक्ष ने राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर को निर्देशित किया है कि परिवादी राकेश शास्त्री को राजस्थान विश्वविद्यालय पांच लाख रुपये क्षतिपूर्ति के रुप में इस आदेश की प्राप्ति से दो माह की अवधि में अदा
करें तथा पालना रिपोर्ट आयोग के समक्ष 11 जनवरी, 2022 तक पेश करें.