Jaipur: राजस्थान में बहादुर योद्धाओं की कहानियों का अपना इतिहास है. वहीं यहां के पर्व त्योहार भी अपने आप में अलग ही महत्व रखते हैं. ढूंढाड़ की भांति ही मेवाड़, हाड़ौती, शेखावाटी सहित इस मरुधर प्रदेश में ही नहीं बल्कि गांव- गांव में अखंड सुहाग की कामना का गणगौर पर्व मनाया जाता है. ईसर-गणगौर के गीतों से हर घर गुंजायमान रहता है.  अखंड सुहाग की कामना पहला सबसे बड़ा लोकपर्व गणगौर आज मनाया जा रहा है.


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शाही लवाजमे के बीच राजा रजवाड़ों के जमाने की तरह सिटी पैलेस जनाना डयोढ़ी से शाम 5. 45 बजे शाही ठाठबाठ से सवारी निकलेगी. 100 से अधिक कलाकार लोकगीतों नृत्य के जरिए राजस्थानी संस्कृति का प्रदर्शन करेंगे. वर्ष 1727 में शहर की स्थापना से ही माता गणगौर की सवारी निकाली जा रही है.जयपुर में गणगौर पर सिर्फ मां गौरी की ही पूजा की जाती है.  यूपी, एमपी, गुजरात, पंजाब सहित अलग-अलग राज्यों में यह पर्व मनाया जाता है. पर्यटन विभाग के उपनिदेशक उपेंद्र  सिंह शेखावत ने बताया कि यूएसए, फ्रांस, स्पेन, जापान, जर्मनी, यूके के अलावा देश के कई दूसरे से सैलानी भी जयपुर पहुंच चुके हैं.


इतिहासकार सियाशरण लश्करी ने बताया कि रियासत काल में दूसरे राज्यों के राजा महाराजा भी सवारी देखने के लिए आते थे. जयपुर में गौरी स्वरूपा गणगौर की ही सवारी निकलती है. जबकि अन्य रियासतों में ईसरजी और गणगौर मां की सवारी निकाली जाती है. इसके पीछे मान्यता है कि जयपुर के ईसरजी को कई वर्षों पहले किशनगढ़ रियासत ले जाया गया था. उसके बाद वे वापस नहीं लौटे. उनको वहीं पर पूजित किया जाता है. राजपरिवार में आज भी माता का रूप पूरी तरह सुरक्षित है. पर्व की पूर्व संध्या पर गुरूवार को सिंजारे पर महिलाओं ने हाथों पर मेहंदी रचाई. 


ऐसा माना जाता है कि गणगौर की विदाई का बाद कई महीनों तक त्योहार नहीं आते इसलिए कहा गया है तीज त्योहारा बावड़ी ले डूबी गणगौर. अर्थात जो त्योहार तीज श्रावणमास से प्रारम्भ होते हैं उन्हें गणगौर ले जाती है.गणगौर के बाद बसन्त ऋतु की विदाई व ग्रीष्म ऋृतु की शुरुआत होती है. दूर प्रान्तों में रहने वाले युवक गणगौर के पर्व पर अपनी नव विवाहित प्रियतमा से मिलने अवश्य आते हैं. जिस गोरी का साजन इस त्यौहार पर भी घर नहीं आता वो सजनी नाराजगी से अपनी सास को उलाहना देती है.


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