जयपुर: पहले तो विधानसभा में पहुंचने की महत्वाकांक्षा, उसके लिए संघर्ष और चुनाव में जीत के बाद सदन का सदस्य बनना. लेकिन थोड़े ही दिन में सरकार पर दबाव बनाने के लिए इस्तीफे की पेशकश देना अब नेताओं का नया शगल बनता दिख रहा है. ताज़ा मामला पानाचन्द मेघवाल का है. जिन्होंने जालौर में दलित छात्र की मौत के मामले में सरकार को आड़े हाथ लेते हुए मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत को अपना इस्तीफ़ा भेज दिया.


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हालांकि, पानाचंद मेघवाल इस सरकार में इस्तीफे की पेशकश करने वाले पहले विधायक नहीं हैं, इससे पहले दो मन्त्रियों के साथ ही कुछ अन्य विधायक भी कभी इस्तीफ़े की पेशकश तो कभी अपने आचरण से इस तरह के संकेत देते हुए सरकार और उसके मुखिया को दबाव में लाने की कोशिश करते दिखे हैं.


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क्या सरकार पर दबाव बनाने की हो रही कोशिश?


राजस्थान में सरकार के विधायकों का मन भी अस्थिर हो रहा है. कभी विधायक सरकार को बचाने के लिए बाड़ेबन्दी में जाने से भी गुरेज नहीं करते हैं? तो कभी सरकार को दबाव में लाने के लिए इस्तीफ़े की पेशकश करते दिखते हैं. अब यह इस्तीफ़े और उसकी पेशकश वाकई में सच्चे हैं? या फिर सरकार को दबाव में लाने का हथियार यह बड़ा सवाल है. साथ ही लोगों के मन में जिज्ञासा इस बात की भी हैं? कि क्या वाकई ये विधायक जनता का इतना भला चाहते हैं? कि उसके लिए अपनी कुर्सी भी दांव पर लगाने के लिए तैयार हैं. या फिर दबाव के इस हथियार से ये नेता उनके ही समर्थन से सत्ता में बनी सरकार को आंख दिखाकर सिर्फ और सिर्फ अपना मतलब निकलवाने में जुटे दिखते हैं?


कई मंत्रियों ने की इस्तीफे की पेशकश


मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की सरकार को आंख दिखाने वालों में उनकी ही पार्टी के साथी विधायकों के साथ समर्थन देने वाले विधायक भी शामिल हैं. ताज़ा मामला बारां-अटरू के विधायक पानाचंद मेघवाल का है. जिन्होंने अपना इस्तीफ़ा मुख्यमन्त्री को भेजा है. प्रदेश में लॉ एण्ड ऑर्डर पर सवाल उठाने वाले मेघवाल को यह भी बखूबी ध्यान रहा होगा कि उनकी सरकार में कानून-व्यवस्था की ज़िम्मेदारी सरकार के गृह मन्त्री और मुख्यमन्त्री की भूमिका में दिख रहे मुखिया अशोक गहलोत की ही है. ऐसे में क्या वे गहलोत पर सवाल उठाना चाहते थे?


इससे पहले खेल मन्त्री अशोक चांदना, कृषि मन्त्री लालचन्द कटारिया इस्तीफ़े की पेशकश कर चुके हैं। इतना ही नहीं यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष और विधायक गणेश घोघरा भी इसी राह पर पिछले दिनों दिखे थे. इससे पहले मन्त्री हेमाराम चौधरी भी विधायक रहते हुए अपने क्षेत्र के विकास के मुद्दों पर नाराज़गी जताते हुए विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी को इस्तीफ़ा भेज चुके थे.


इसी तरह गाहे-बगाहे मन्त्री प्रमोद जैन भाया को घेरने वाले भरत सिंह भी कई मुद्दों पर सरकार से अपनी नाराज़गी जता चुके हैं। भरत सिंह की भावना भी ऐसी रही है जैसे वे सदन के सदस्य के रूप में काम नहीं करना चाहते हों। पिछले विधानसभा सत्र में तो वे सदन की एक भी बैठक में शामिल नहीं हुए। इसी तरह बसपा से आए राजेन्द्र गुढ़ा भी सरकार के रवैये को लेकर कई बार अलग चलते दिखे हैं तो लाखन मीणा तो एक कदम आगे निकलते हुए सरकार से समर्थन वापस लेने की मंशा जताते हुए भी दिखे हैं.


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क्यों उठे विधायकों के आचरण को लेकर सवाल?


दरअसल, विधायकों के इस आचरण को लेकर सवाल इसलिए उठते हैं क्योंकि इस्तीफ़ा देने की नियम-प्रक्रिया तय होने के बाद भी पढ़े लिखे ये विधायक उसे क्यों नहीं अपनाते? . सवाल इसलिए उठते हैं क्योंकि जब विधानसभा के कार्य संचालन के नियम प्रक्रिया के नियम संख्या 191 में इस बात का साफ़ ज़िक्र है? कि विधायक अपना इस्तीफ़ा सीधे सदन के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष को ही देगा. नियम तो यह भी कहता है? कि इस्तीफ़े में अपनी सदस्यता छोड़ने के लिए किसी कारण या दबाव का ज़िक्र भी नहीं किया जा सकता. अगर ऐसा ज़िक्र हुआ तो वह इस्तीफ़ा भी अपने आप में स्वत: ही अमान्य हो जाता है. ऐसे में क्या विधायकों के लिए इस्तीफ़े की पेशकश सिर्फ दबाव का एक हथियार बनकर रह गई है? सवाल उठता है? कि क्या विधायकों का यह तरीका जनहित में है? क्या यह धनहित में है? या सिर्फ विधायक के मनहित में है? और सबसे बड़ा सवाल यह कि क्या इस्तीफ़े की पेशकश का यह तरीका लोकतन्त्र या सदन हित में है?


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