Jaswant singh jasol Life Story : जसवंत सिंह जसौल का 3 जनवरी 1938 को बाड़मेर के जसौल में जन्म हुआ. गांव में शुरुआती शिक्षा हुई. फिर छठी क्लास में मेयो कॉलेज में पढ़ने चले गए. मेयो में राजे रजवाड़ों के धनवान घरों के बच्चे पढ़ने आते थे, जो फर्राटेदार इंग्लिश बोलते थे. 


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जसौल ने हालातों के बीच खुद को असहज महसूस किया तो फैसला लिया कि अंग्रेजी का इस हद तक अध्ययन करेंगे कि दुनिया में अंग्रेजी के सबसे बेहतरीन वक्ताओं में उनकी गिनती होगी. जब वहां स्कूल पूरी की तो उन्हें मेयो के बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड मिला. 12वीं पास करने के बाद विदेश में पढ़ाई करनी चाही लेकिन परिवार उतना खर्चा उठाने में सक्षम नहीं था. तो आर्मी में भर्ती हो गए.


9 साल तक की आर्मी में नौकरी
फौजी के रुप में 1962 के युद्ध में अरुणाचल के नाथुला से मोर्चा संभाला. और 1965 के युद्ध में भी भाग लिया लेकिन इसी दौरान उनके मन में राजनेताओं प्रति नाराजगी पनपने लगी. नेताओं का राष्ट्र नीति और रक्षा नीति को लेकर जो रवैया था. उसको लेकर नाराजगी पनपने लगी. तो वो फौज को छोड़ राजनीति में आ गए.


ओसियां सीट से राजनीतिक सफर शुरु
जोधपुर की ओसियां सीट से 1967 का चुनाव निर्दलीय लड़ा. कुछ लोग ये मानते हैं कि वो स्वतंत्र पार्टी से चुनाव लड़ा था. सत्य ये है कि उन्हौने स्वतंत्र पार्टी की मुखिया महारानी गायत्री देवी से मुलाकात की थी. गायत्री देवी ने उन्हें पार्टी ज्वाइन करने की सलाह दी थी, जिसके बाद जसवंत सिंह ने जवाब दिया- 'आपकी पार्टी में बहुत सारे राजकुमार हैं.' जसवंत सिंह के इस जवाब से प्रभावित होकर गायत्री देवी के पति मानसिंह द्वितीय ने उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा- 'बहुत शानदार''.


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इन चुनावों में जसवंत सिंह ने जनसंघ के भैरोसिंह शेखावत से भी मुलाकात की थी. भैरोसिंह शेखावत ने उन्हें पार्टी ज्वाइन करने की सलाह दी. लेकिन जसवंत सिंह जनसंघ ज्वाइन करने को भी तैयार नहीं हुए. ओसियां उनका ससुराल था. और इन चुनावों में जसवंत सिंह को 14 हजार 562 वोट मिले. और वो चुनाव हार गए. सामने थे कांग्रेस के उम्मीदवार रणजीत सिंह, जिनको 20 हजार 236 वोट मिले. यानि 6 हजार वोटों से चुनाव हारे.


जोधपुर महाराजा गजेसिंह के सहयोगी बने
चुनाव हारे तो जोधपुर लौटे. खेती बाड़ी और दूध बेचने का काम शुरु किया. इसी बीच 1971 को जोधपुर महाराजा गजेसिंह जी विदेश से पढ़ाई कर लौटे. तो जसवंत सिंह एक विश्वस्त सहायक की भूमिका में गजेसिंह जी के साथ जुड़ गए. गजेसिंह का ससुराल भी ओसियां था और जसवंत सिंह का ससुराल भी ओसियां था. जोधपुर राजमाता और जसवंत सिंह की पत्नी दोनों भुआ भतीजी थी. इस भूमिका में करीब चार पांच साल रहे.


जोधपुर राजपरिवार की पूरी संपत्ति अगर व्यवस्थित तरीके से है. तमाम ट्रस्ट से और उम्मेद भवन पैलेस से लेकर दूसरी संपत्ति अगर व्यवस्थित है. तो इसका श्रेय जसवंत सिंह को ही जाता है.


आपातकाल के समय बढ़ा राजनीतिक संपर्क
1975 में आपातकाल के समय दिल्ली चले गए. यहां अटलजी से भी परिचय हुआ. परिचय हुआ सरदार आंग्रे से. आंग्रे जो ग्वालियर राजमाता विजयाराजे सिंधिया के निजी सचिव थे. आंग्रे के जरिए राजमाता से मुलाकात हुई. फिर मुलाकात हुई भैरोसिंह शेखावत से. 1977 में आपातकाल हटा. तमाम दलों ने मिलकर जनता पार्टी बनाई. देश में आम चुनाव हुए. भैरोसिंह शेखावत ने राजस्थान में जयपुर के आस-पास की सीटों का प्रभार जसवंत सिंह को सौंपा.


1977 का चुनाव जसवंत सिंह ने खुद नहीं लड़ा. राजस्थान में जनता पार्टी ने 152 सीटें जीती. और कांग्रेस 41 सीटों पर सिमट गई. तो सूबे में भैरोसिंह शेखावत के नेतृत्व में सरकार बनी. तीन साल के भीतर आपसी सिर फुटव्वल की वजह से जनता पार्टी टूट गई. जो नेता जनसंघ से जनता पार्टी में आए थे. उन्होने मिलकर भारतीय जनता पार्टी बनाई.


1980 में संसदीय करियर की शुरुआत
1980 में भैरोसिंह शेखावत ने राजस्थान से राज्यसभा के लिए जसवंत सिंह का नाम आगे किया. और जसवंत सिंह के ससंदीय करियर के ये शुरुआत थी. यही वो वक्त था, जब जसवंत सिंह को राष्ट्रीय राजनीति में पहचान मिलनी शुरु हुई. उसकी कई वजहें थी. बीजेपी के फाउंडर मेंबर. एक ऐसा पार्लियामेंट्रियन. जो फर्राटेदार इंग्लिश बोलता हो और हिंदी का भी उतना ही दमदार वक्ता हो. विदेश और रक्षा मामलों के एक्सपर्ट के रुप में पहचान बनी. रक्षा और विदेश मामलों पर जसवंत सिंह जसोल ने कई किताबें भी लिखी है. 1986 में दूसरी तरफ राज्यसभा भेजे गए.


अशोक गहलोत और जसवंत सिंह में मुकाबला
1989 का लोकसभा चुनाव जोधपुर से लड़ा. इन चुनावों में कांग्रेस की तरफ से अशोक गहलोत उम्मीदवार थे. जसवंत सिंह जसौल ने अशोक गहलोत को 66 हजार से ज्यादा वोटों से हराया था. तब गहलोत दो बार के सिटींग एमपी थे. जसवंत सिंह को 2,95,993 वोट मिले और अशोक गहलोत को 2,29,747 वोट मिले.


चित्तौड़गढ़ से तीन बार चुनाव लड़ा
चित्तौड़गढ़ से तीन बार लगातार चुनाव लड़ा. पहली बार 1991 में महेंद्र सिंह मेवाड़ को 18 हजार के करीब वोटों से हराया. 1996 में गुलाबसिंह शक्तावत को 48 हजार के करीब वोटों से हराया. 1996 के चुनाव में 13 दिन की वाजपेयी सरकार बनी थी और जसवंत सिंह को वित्त मंत्री बनाया गया था. इस दौरान एक रौचक फैसला. जसोल ने मौजूदा वक्त के बड़े कारोबारी घराने की जांच शुरु करवा दी. सरकार 13 दिन ही चली तो ज्यादा कुछ हुवा नहीं. फिर देवगोड़ा प्रधानमंत्री बने. करीब 11 महीने बाद इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने. 1998 में देश को फिर चुनावों में जाना पड़ा. जसवंत सिंह फिर चित्तौड़ से चुनावी मैदान में थे. लेकिन उसी कारोबारी घराने ने पूरी कोशिश की. कि जसवंत सिंह जीतकर संसद न पहुंच पाए. चित्तौड़गढ़ के चुनावों में जसवंत सिंह को हराने के लिए मुंबई से साजिशें रची गई. कांग्रेस के उदयलाल आंजना के सामने जसवंत सिंह करीब 25 हजार वोटों से हार गए.


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कारोबारी घराने ने संघ से मिलाया हाथ
इधर वाजपेयी राज्यसभा के जरिए जसवंत सिंह को संसद भेज मंत्री बनाने की तैयारी में थे. ये खबर उस कारोबारी घराने तक भी पहुंची. तो कारोबारी घराने ने संघ के जरिए फिल्डिंग सेट की. संघ प्रमुख के एस सुदर्शन रात को करीब 12 बजे अटलजी से मिलने पहुंचे. और कहा- जसवंत सिंह और प्रमोद महाजन को मंत्री न बनाया जाए. प्रमोद महाजन भी 1998 का चुनाव मुंबई नॉर्थ ईस्ट से हार गए थे. संघ ने वित्त मंत्री के तौर पर यशवंत सिन्हा का नाम दिया. और रात 12 बजे राष्ट्रपति भवन में दोबारा लिस्टें भेजी गई.


वरिष्ठ पत्रकार सबा नकवी ने अपनी किताब भगवा का राजनीतिक पक्ष में ये दावा किया है. कि- 'संघ के इस दखल से वाजपेयी काफी असहज थे. वाजपेयी जसोल को अपनी कैबिनेट में रखना चाहते थे'. अगले दिन सुबह आडवाणी ने जसौल को फोन कर शपथ में न आने की जानकारी दी. हालांकि आडवाणी के इस तरह के कमजोर स्टेंड को लेकर जसवंत सिंह के मन में नाराजगी भी रहती थी.


आडवाणी को लेकर कहते ये बातें
जसवंत सिंह अक्सर आडवाणी को लेकर कहते भी थे. कि ''आडवाणी ने कभी नेतृत्व नहीं दिखाया. यदि आप अपने साथियों के लिए खड़े नहीं होते तो फिर आप लीडर नहीं हैं. और आडवाणी जी अक्सर ऐसे मौकों पर या तो चुप रहे. या उसकी ज़िम्मेदारी दूसरों पर डाल दी. सवेरे उनका ही फोन आया. और मुझे मंत्री बनने से मना कर दिया. आडवाणी तब मेरे साथ खड़े हो सकते थे. लेकिन उन्होंने कहा कि आरएसएस के बड़े नेता मेरे शपथ लेने यानी मंत्री बनने के खिलाफ हैं. वो चुप रहे और जिम्मेदारी संघ पर डाल दी. जबकि अटल जी इस पर लड़ना चाहते थे. अपसेट भी हो गए. लेकिन आडवाणी जी ने सिर्फ इतना कहा कि आप शपथ नहीं लेंगे'.


योजना आयोग के उपाध्यक्ष बने जसवंत सिंह 
अटलजी ने जसवंत सिंह को योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाकर बड़ी जिम्मेदारी दी. और प्रधानमंत्री कार्यालय के करीब रखा. इसी बीच पोकरण परमाणु परीक्षण हुआ. अमेरिका समेत दुनिया के तमाम मुल्कों ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए. विदेश मंत्रालय अटलजी के खुद के पास था. तो जसवंत सिंह को अपना विशेष दूत नियुक्त किया. अमेरिका की तरफ से बातचीत की उप विदेश मंत्री स्ट्रोबि टालबोट. जसवंत सिंह और टालबोट ने तीन महाद्वीपों के सात देशों में 10 स्थानों पर 14 बार मुलाकात की. परिणाम- भारत और अमेरिका के बीच फिर दोस्ती हुई. अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन अपनी बेटी के साथ भारत दौरे पर आए. ये वही टालबोट थे.जिन्होंने कंधार विमान अपहरण कांड के बाद बीसवीं सदी का आखिरी रात में जसवंत सिंह को फोन किया. और बोले- ''मैं और मेरी पत्नी कितने खुश है. ये बता नहीं सकते. आपने बहुत शानदार काम किया है. नया साल मुबारक हो.''


कंधार विमान अपहरण कांड
वैसे कंधार अपहरण कांड की कहानी लंबी है लेकिन जब कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी में से कोई भी अगवा हुए लोगों के परिजनों का सामना करने को तैयार नहीं था. वो जसवंत सिंह ही थे. जिन्होंने परिजनों के गुस्से और सवालों का सामना किया. जब कोई मंत्री मीडिया के सवालों का सामना करने को तैयार नहीं था. तो वो जसवंतसिंह ही थे. जिन्होंने 28 दिसंबर के दिन प्रेस कांफ्रेंस की. तब तक विमान आतंकियों के कब्जे में था. जसवंत सिंह ने दिल्ली के शास्त्री भवन में प्रेस कांफ्रेंस की. इस प्रेस कांफ्रेंस के बीच में अगवा हुए लोगों के परिजन भी घुस गए थे.और जमकर हंगामा किया. यही विमान जब पहले अमृतसर में लैंड हुआ. तो जसवंत सिंह ही थे. जिन्होंने पंजाब पुलिस के टॉप अफसरों से बात कर विमान को ज्यादा देर तक रोकने की योजना पर काम करने की सलाह दी. हालांकि ये मामला गृह मंत्रालय का था जो उस वक्त आडवाणी के पास था. जब समाझौते के आखिरी पड़ाव में कंधार जिम्मेदार व्यक्ति की जरुरत पड़ी. तो कोई नेता या मंत्री जाने को तैयार नहीं था. कैबिनेट की बैठक में जब खामोशी छा गई. तो वो जसवंत सिंह ही थे. जो आतंकियों के साथ कंधार जाने को तैयार हुए.


दिल्ली से बाड़मेर वाया दार्जिलिंग
2004 में बीजेपी हारी. कांग्रेस सरकार बनी. जसवंत सिंह को फिर से राज्यसभा के जरिए संसद भेजा गया. राज्यसभा का लीडर ऑफ ऑपोजिशन बनाया. 2009 के चुनाव में उनको पश्चिम बंगाल की दार्जिलिंग सीट से चुनाव लड़ाया गया. और बंगाल से जीतकर संसद पहुंचने वाले जसवंत सिंह बीजेपी के पहले सांसद थे. औऱ बड़े मार्जिन से चुनाव जीता था. ढाई लाख से ज्यादा वोटों से चुनाव जीता. जसवंत सिंह को मिले थे 4 लाख 97 हजार 649 वोट. और दूसरे नंबर पर रहे सीपीआईएम के केंडिडेट जिबेश सरकार को 2 लाख 44 हजार 360 वोट मिले थे. एक और रोचक बात. दार्जिलिंग लोकसभा सीट के दायरे में 7 विधानसभा सीटें आती है. और इन सात में से तीन विधानसभा क्षेत्रों में 90 प्रतिशत से ज्यादा वोट जसवंत सिंह के पक्ष में पड़े थे.


इसके बाद 2014 के चुनाव हुए. जसवंत सिंह ये चुनाव बाड़मेर सीट से लड़ना चाहते थे. पार्टी ने टिकट काटा तो निर्दलीय मैदान में उतर गए. बीजेपी के कर्नल सोनाराम 4 लाख 88 हजार 747 वोट पाकर जीते. नंबर दो पर रहे जसवंत सिंह जिन्हैं मिले 4 लाख एक हजार 286 वोट. और कांग्रेस के हरीश चौधरी तीसरे नंबर पर रहे जिन्हैं 2 लाख 20 हजार 881 वोट मिले.


इन चुनावों के कुछ वक्त बाद ही दिल्ली में अपने आवास पर रात के समय फिसलने से सिर पर चोट लगी औऱ वो कौमा में चले गए. करीब 6 साल तक कोमा में रहने के बाद 27 सितंबर 2020 को उनका निधन हो गया.