Rajasthan Zayka Special Story: 15 अगस्त 1947 के बाद राजस्थान के जयपुर के अलावा अजमेर व्यावर सहित ऐसे कई मशहूर स्थान है जहां देशी से लेकर विदेशी मेहमान को ये फूड और मिठाई लुभाते है. आज उन ठिकानों की बात, जिनके स्वाद का सफर तब से आजतक बरकरार है. जारी है आजादी से पहले और आजादी के बाद के चटखारे की कहानी-

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1942 से जयपुर की शान लक्ष्मी मिष्ठान भंडार का घेवर
यूं तो घेवर पूरे राजस्थान में बनता है, लेकिन राजस्थानी जायका में बिना घेवर की बात नहीं बनती है. जो पिछले 80 साल से जयपुर की शान बना हुआ है. वर्ल्ड हेरिटेज में शुमार 'वाल सिटी' जयपुर के जौहरी बाजार में स्थित लक्ष्मी मिष्ठान भंडार है जहां वर्ल्ड फेमस पनीर घेवर पर तैयार होता है. इसके ऑनर अजय अग्रवाल ने बताया कि घेवर मुगल काल से ही बनाया जा रहा है.



जयपुर का पूर्व राजपरिवार भगवान को छप्पन भोग में घेवर जरूर परोसता था. आज पीएम मोदी से लेकर अमिताभ बच्चन और कई बॉलीवुड सेलिब्रिटीज भी इसके मुरीद हैं. घेवर कहां से आया इसका कोई प्रमाण किसी के पास मौजूद नहीं है, लेकिन पनीर घेवर की शुरुआत अजय अग्रवाल के दादा ने की थी.


अडानी, अंबानी अमिताभ जैसे लाखों दीवाने
अजय अग्रवाल ने बताया कि पनीर घेवर आम जनता के साथ राजनेताओं और बॉलीवुड सेलिब्रिटी के साथ दुनियाभर में मशहूर है. भारत का ऐसा कोई प्रधानमंत्री या फिर राजस्थान का ऐसा मुख्यमंत्री नहीं है जिसने हमारे पनीर घेवर का जायका नहीं चखा हो. तो आप भी जयपुर में है और घेवर का स्वाद नहीं चखा हो तो इस आजादी के जश्न में इसका स्वाद चख लें.


अजमेर का कढ़ी-कचौरी  80 साल पुरानी
अजमेर में लोग ब्रेकफास्ट की शुरुआत एक खास जायके से करते हैं. देशभर में चटनी के साथ खाई जाने वाली कचौरी को गर्मा-गर्म कढ़ी के साथ परोसा जाता है. ये कॉम्बिनेशन जरा हटके है जो आम तौर कहीं नहीं मिलती है. कचौरी के साथ कढ़ी का तड़का ऐसा स्वाद पैदा करता है कि उद्योगपति मुकेश अंबानी से लेकर सचिन तेंदुलकर तक उंगलिया चाटते रह गए थे.


मौसम चाहे जो भी हो, साल भर कढ़ी-कचौरी की दुकानों पर खाने वालों की भीड़ उमड़ती है. अपनी बारी के लिए घंटो इंतजार करती है यहां की भीड़.  राजस्थानी जायका में अजमेर के शानदार जायका कढ़ी-कचौरी का लुफ्त इस आजादी के जश्न में जरुर उठाएं.


शहर के सबसे पुराने कारोबारी में से एक श्रीमानजी कचौरी वाले के संचालक प्रशांत जोशी कहते हैं कि कढ़ी कचौरी अजमेर की परंपरा बन चुकी है. इसकी शुरुआत करीब 80 साल पहले मानी जाती है. शुरुआत में केवल एक-दो दुकानें हुआ करती थीं, लेकिन आज शहर में करीब 1000 बड़ी-छोटी दुकानों पर करीब 2 लाख कचौरी रोज बिक रही है. कईं बड़ी नामचीन हस्तियां भी इस स्वाद की मुरीद हैं. वहीं इसकी महक विदेशों तक पहुंच गई है.


दादी के लड्डू 1938 से ब्यावर से विदेशों तक फैली धाक
ब्यावर में सबसे पहले 1938 में तिलपट्टी बनाने का श्रेय रामधन भाटी को जाता है. आज रामधन भाटी की चौथी पीढ़ी में उनके पड़पोते प्रदीप सिंह भी इसी कारोबार में जुटे हैं. घरों में जिस तरह घर की बुजुर्ग महिलाएं सर्दियों में तिल के लड्डू बनाती थीं, उन्हीं पर रामधन ने प्रयोग किया. इसका टेस्ट पसंद आया तो धीरे-धीरे इसमें बदलाव हुए और फिर तिल के बराबर महीन बनने वाली तिलपट्टी अस्तित्व में आई. मांग बढ़ने लगी तो लोकल कारीगरों ने इस काम को आगे बढ़ाया.


विदेशों में भी ब्यावर की धाक
तिलपट्टी का स्वाद देश ही नहीं बल्कि सात समुंदर पार विदेशी लोगों की जुबान पर भी चढ़ चुका है. देश के बाहर रहने वाले भारतीयों की ओर से ब्यावर की तिलपट्टी मंगवाई जाती है. देश में यह मुख्यत: मुंबई, बेंगलुरु, चेन्नई, सूरत, दिल्ली, कोलकाता, रायपुर, इंदौर, जयपुर, सूरत, पुणे आदि जगहों पर भी भेजी जाती है.


'कोटा की रानी' और 'कोटा का राजा' का स्वाद
देश भर में कोचिंग के लिए मशहूर सिटी कोटा यहां लोगों के दिन की शुरुआत हींग से बनी कचौरी से होती है, लेकिन जब तक चाय की चुस्की लेते समय कड़कदार कड़के न मिल जाएं, सारा स्वाद अधूरा रहता है. बारिश में तो डिमांड कई गुना बढ़ जाती है. ये हैं कोटा के कड़के, जिसके तीखे और कुरकुरे स्वाद के दीवाने विदेशी मेहमान भी है.


हींग कचौरी को 'कोटा की रानी' के नाम से बुलाते हैं, तो कड़कों को 'कोटा का राजा' कहा जाता है. बेसन के मोटे कड़क सेव को यहां कड़के नाम से जाना जाता है. जिसकी शुरुआत करीब 120 साल पहले सन 1902 में बाल जी सैनी ने की थी.


उनके 72 साल के पोते मोहन सैनी आज भी सुबह 6 बजे भट्टी जलाकर कड़के के पाये तैयार करते हैं. 7 बजते ही दुकान के बाहर ग्राहकों की भीड़ लगती है. दिनभर 12 से 15 घंटे ऐसा स्वाद तैयार करते हैं जो कहीं और नहीं मिलता. बाल जी सैनी की चौथी पीढ़ी आजादी से पहले और आजादी के बाद भी इस स्वाद को बरकरार रखा है.


पुष्कर का मालपुए,  250 साल का इतिहास
ऐसी मिठाई (Sweat) है, जिसको आमतौर पर लोग बरसात के दिनों में अधिक पसंद करते हैं, लेकिन तीर्थराज पुष्कर में तो बारह मास ही दूध की रबड़ी व देशी घी से निर्मित मालपुओं की बिक्री बड़े चाव से हो रही है. यहां के मालपुओं का स्वाद देश-दुनिया तक प्रसिद्ध है. विदेशी पर्यटक भी मालपुओं को स्वीट चपाती के नाम से फैमस है. 


250 साल से पुष्कर में बन रहे मालपुए
हलवाई ओम जाखेटिया व प्रदीप कुमावत के अनुसार पुष्कर में करीब ढाई सौ साल से मालपुए बनाए जा रहे हैं. कुछ दशक पहले तक कस्बे में तीन चार दुकानों पर ही मालपुए बनाए जाते थे, लेकिन प्रसिद्धि बढने के साथ ही अब दस से अधिक दुकानों पर मालपुए बनाए जाकर बेचे जा रहे हैं. गरम-गरम शक्कर की चाशनी से लबरेज देशी घी से निर्मित रबड़ी के मालपुए एक बार खा लिए तो इसके दिवाने हो जाएंगे. चासनी में केसर और इलायची मिलाने से मालपुओं का स्वाद और भी बढ़ जाता है.


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जोधपुर का मिर्ची बड़ा
खाने-पीने के मामले में शौकीन जोधपुर का हर जायका निराला है. यहां के खान-पान की बात हो और मिर्ची बड़े का जिक्र न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता. आपको हैरानी होगी कि अकेले जोधपुर में हर रोज करीब एक लाख से ज्यादा मिर्ची बड़े खाए जाते हैं. मिर्ची बड़े के दीवाने केवल जोधपुर में ही नहीं देश और विदेशों में भी है. यहां तक कि लंदन में तो जोधपुरी मिर्ची बड़ा फेस्टिवल भी हो चुका है. 


मालिक सत्यनारायण अग्रवाल ने बताया कि बीते 45 वर्षों से उनके यहां मिर्ची बड़ा बिक रहा है. उनके पिताजी के दादाजी ने शहर के परकोटे के अंदर जूनी मंडी में छोटी से दुकान की शुरुआत की थी आज उनकी चौथी पीढ़ी भी इसी काम से जुड़ी है. आज यह जोधपुर की पहचान बन गया है.


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