नई दिल्‍ली: 1972 में डीएमके को टूट का सामना करना पड़ा. एमजीआर करुणानिधि की कार्यशौली से संतुष्‍ट नहीं थे और उन्‍होंने ऑल इंडिया द्रविड मुन्‍नेत्र कष्‍गम (एआईएडीएमके) नाम से अलग पार्टी बना डाली. इसके बाद एमजीआर की लोकप्रियता ऐसी बढ़ी कि एआईएडीएमके डीएमके को आसानी से हराकर सत्‍ता में आ गई. एमजीआर 1977 में मुख्‍यमंत्री बने और बाद के कई साल सीएम बने रहे. 


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एमजीआर के रहते सत्‍ता नहीं मिली
1989 में एमजीआर की मौत के दो साल बाद करुणानिधि सीएम बन पाए. इस अंतराल में एमजीआर तमिलनाडु की कमान संभाले रहे. हालांकि उस साल विधानसभा में जो शर्मनाक घटना हुई उससे डीएमके की छवि पर असर पड़ा. उस समय जयललिता विपक्ष की नेता का जिम्‍मा संभाल चुकी थीं. विधानसभा में जयललिता की जासूसी को लेकर कई सवाल उठे. फिर डीएमके की छवि लगातार खराब होती चली गई. सिफी की रिपोर्ट के मुताबिक 1991 में डीएमके फिर चुनाव हार गई और जयललिता मुख्‍यमंत्री बन गईं.


हर 5 साल पर बदल जाती थी सत्‍ता
अगले दो दशक हर 5वें वर्ष दोनों नेताओं को सत्‍ता का सुख भोगने का मौका मिलता रहा. जून 2001 की उस घटना ने सभी को झकझोर दिया जिसमें करुणानिधि को फ्लाई ओवर स्‍कैम में आधी रात को गिरफ्तार कर लिया गया. पुलिस उन्‍हें घर से उठा ले गई थी. करुणानिधि ने आरोप लगाया कि वे लोग उनकी जान लेना चाहते हैं. 


स्‍टालिन बन गए सीएम इन वेटिंग
डीएमके को मजबूत करने में करुणानिधि के बेटे एमके स्‍टालिन और बेटी कनिमोझि का काफी योगदान रहा. हालांकि परिवार में कुछ मतभेद भी थे. अलागिरि को बाहरी की तरह देखा जाता था. वह परिवार से दूर ही रहते थे. स्‍टालिन की छवि एक नेता के रूप में बन चुकी है. उन्‍हें सीएम इन वेटिंग माना जा रहा है.