Uttarakhand UCC: गोवा के बाद उत्तराखंड अब देश का दूसरा ऐसा राज्य बनने जा रहा है, जहां जल्दी ही Uniform Civil Code आ जाएगा. उत्तराखंड विधानसभा में मंगलवार को मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने UCC बिल पेश किया. इस बिल के पास होने के बाद ही उत्तराखंड में कुछ नियम, सभी धर्म और वर्ग के लिए एक जैसे रहेंगे. जैसे विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, संपत्ति जैसे विषयों पर प्रदेश के सभी लोगों पर एक नियम लागू होगा.


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उत्तराखंड ने कर दिखाया


हमेशा ये कहा जाता रहा है कि भारत में कोई राज्य समान नागरिक संहिता नहीं ला सकता है और अगर ऐसा किया गया तो ये असंवैधानिक होगा. लेकिन उत्तराखंड ने ऐसा किया वो भी संवैधानिक तरीके से. संविधान की सातवीं अनुसूची में राज्य और केंद्र सरकार की शक्तियों का बंटवारा किया गया है. इसमें ही ये बताया गया है कि किस विषय पर कौन नियम बना सकता हैं. इसके अंदर तीन सूचियां हैं. संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची. समवर्ती सूची में वो विषय हैं, जिनपर राज्य और केंद्र दोनों कानून बना सकते हैं. इसमें संपत्ति, विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और बंटवारे से संबंधित नियम इसी सूची में शामिल हैं.


उत्तराखंड में UCC


जहां तक उत्तराखंड की समान नागरिक संहिता की बात है तो, इसे भी समवर्ती सूची के तहत बनाया गया है. आपने देखा होगा कि कोर्ट में दो तरह के मामले आते हैं. जिसमें एक है आपराधिक मामले और दूसरा है दीवानी यानी सिविल मामले. भारतीय न्याय संहिता के तहत इन दोनों ही मामलों में कार्रवाई की जाती है. सिविल मामलों में कुछ मामले ऐसे होते हैं, जो देश में सभी धर्मों के लिए समान नहीं हैं. जैसे विवाह के कानून हिंदुओं के लिए अलग, मुस्लिमों के लिए अलग हैं. अलग-अलग धर्मों में इन मामलों को निपटाने के लिए पर्सनल लॉ बनाए गए हैं. देश की आजादी के बाद उत्तराखंड वो पहला राज्य होगा, जहां UCC लागू होगा. और ये अलग-अलग धर्मों के पर्सनल लॉ में शामिल कुछ नियम पूरी तरह से नकार देगा.


नियमों का पालन समान रूप से करना होगा


उत्तराखंड में Uniform Civil Code लागू होने के बाद राज्य की जनता को कुछ खास नियमों का पालन समान रूप से करना होगा. कुछ मामलों में पर्सनल लॉ, धर्म विशेष के लोगों को विशेष अधिकार नहीं देगा. जैसे..


- विवाह से संबंधित मामले
- तलाक से संबंधित मामले
- लिव इन संबंधों से जुड़े मामले
- लिव इन संबंधों से पैदा होने वाले बच्चों से जुड़े मामले
- संपत्ति के उत्तराधिकार से जुड़े मामले


UCC बिल ड्राफ्ट में बहुत सारी बातें


विवाह से जुड़े नियम मैरिज एक्ट या पर्सनल लॉ में आते थे. लिव इन संबंधों या इनसे पैदा होने वाले बच्चों को लेकर कोई विशेष नियम नहीं था. इसी तरह से उत्तराधिकार से जुड़े नियम भी बेटा-बेटी में भेद करता था.UCC इन सभी मामलों का तोड़ है. 192 पेज के UCC बिल ड्राफ्ट में बहुत सारी बातें लिखी हुई हैं, लेकिन आज हम आपको इस बिल की मुख्य बातें बताएंगे. उत्तराखंड में UCC लागू होने के बाद, मुमकिन है कि ये देश के लिए समान अधिकार के मानक के तौर पर पेश किया जाएगा. उत्तराखंड में विवाह के मामलों को लेकर क्या बदलाव होने वाला है, इसके बारे में बताते हैं.


शादी के लिए लड़की की उम्र 18 और लड़के की उम्र 21


UCC लागू के होने के बाद बहु विवाह पर रोक लग जाएगी. यानी पत्नी या पति के मौजूद रहते, कोई भी व्यक्ति एक से ज्यादा विवाह नहीं कर पाएगा. सभी तरह की शादियों को रजिस्टर कराना जरूरी होगा शादी के लिए लड़की की उम्र 18 और लड़के की उम्र 21 वर्ष तय होगी. शादी जुड़े नियमों को लेकर सबसे ज्यादा विवाद हो रहा है. वजह ये है कि विवाह से जुड़े मामलों के लिए धर्मिक आस्थाओं के हिसाब से अलग-अलग व्यवस्था की गई है. हिंदुओँ के लिए हिंदू मैरिज एक्ट है, लेकिन बाकी धर्मों के लिए पर्सनल लॉ ही लागू है. पर्सनल लॉ में खासतौर से उन धर्मों की मान्यताओं के हिसाब छूट दी गई है.


बहु विवाह पर रोक


बहु विवाह पर रोक लगने से मुस्लिम धर्म के लोगों को चिंता है. दरअसल पर्सनल लॉ के मुताबिक मुस्लिम पुरुष 1 से ज्यादा शादियां करके पत्नियां रख सकते हैं. लेकिन UCC में पत्नी के रहते दूसरी शादी करने की मनाही है. इसी तरह से मुस्लिम पर्सनल लॉ में नियम है कि लड़की की शादी मासिक धर्म शुरू होने के बाद कभी भी की जा सकती है. लेकिन UCC कानून बनने के बाद, ऐसा नहीं होगा. उत्तराखंड में मुस्लिम लड़कियों की शादी की उम्र भी 18 वर्ष तय की गई है. कोर्ट में विवाह के 1 साल होने से पहले तक तलाक की अर्जी भी नहीं डाली जा सकेगी. अगर कोई इन नियमों का उल्लंघन करेगा, तो 6 महीने की जेल, और 50 हजार रुपये जुर्माना लगाया जाएगा. यही कुछ वजह हैं कि कई मुस्लिम धर्मगुरू और स्कॉलर, UCC का विरोध कर रहे हैं.


बाल विवाह जैसी प्रथाओं पर रोक


बाल विवाह जैसी प्रथाओं पर रोक इस्लामिक धर्मगुरुओं की चिंता का विषय है. क्या कई पत्नियां रखने का हक मिलना, इस्लामिक धर्मगुरुओं की इच्छा है? सिर्फ यही नहीं UCC का विरोध इसी तरह की कुछ और विषयों पर समान नियम लागू होने को लेकर हो रहा है. जैसे तलाक के नियम सभी धर्म और जातियों के लिए एक ही रहेगा. हिंदुओं के लिए तलाक के नियम मैरिज एक्ट में है, मुस्लिम धर्म के लोगों के लिए तलाक के मामले, पर्सनल लॉ में शामिल हैं. वर्ष 2019 में केंद्र सरकार ने तीन तलाक को खत्म कर दिया था. इसको लेकर भी काफी हंगामा हुआ था. लेकिन तलाक से जुड़े अन्य मामले जैसे हलाला और इद्दत जैसे मामलों पर भी UCC ने सख्त नियम बनाए हैं.


UCC में इसका ख्याल रखा गया


उत्तराखंड सरकार के UCC में तीन तलाक, इद्दत और हलाला जैसे प्रथाओं को प्रतिबंधित कर दिया गया है. तलाक से जुड़े नियमों के उल्लंघन पर 3 साल की सजा का प्रावधान भी है. उत्तराखंड के UCC में तलाक के बाद पत्नी को भरण पोषण भत्ता देने का नियम भी लागू होगा. मुस्लिम पर्सनल लॉ में भरण पोषण को लेकर कोई नियम नहीं था. तलाक से जुड़े नियम भी मुस्लिम पर्सनल लॉ में महिला विरोधी थे. यही वजह है कि UCC में इसका ख्याल रखा गया है. मुस्लिम धर्मगुरू इसका भी विरोध कर रहे हैं. लेकिन इतना तय है कि मुस्लिम महिलाओं को इससे राहत मिलेगी.


लिव-इन रिलेशनशिप का भी कराना होगा रजिस्ट्रेशन


महिला पुरुष संबंधों में नए ट्रेंड, लिव-इन संबंधों को लेकर अभी तक कोई खास नियम नहीं था. पारंपरिक रूप से शादियों को लेकर कानून बनाए गए, लेकिन साथ रहने के नए तरीके लिव-इन को लेकर कोई नियम नहीं थे. उत्तराखंड में पेश किए गए समान नागरिक संहिता में लिव इन संबंधों को लेकर भी नियम साफ किए गए हैं. देखा जाए तो जो नियम बनाए गए हैं, उसमें अधिकार पति-पत्नी वाले संबंधों की तरह ही दिए गए हैं. जैसे, अब उत्तराखंड में लिव-इन संबंधों का भी रजिस्ट्रेशन करवाना जरूरी होगा. रजिस्टर नहीं करवाने पर 3 महीने की सजा और 10 हजार रुपये जुर्माने का प्रावधान है. लिव-इन संबंधों से पैदा हुए बच्चों को भी वैवाहिक संबंध से पैदा हुए बच्चों की तरह अधिकार दिए जाएंगे. यही नहीं लिव-इन में रहने वाली महिला को अगर उसका पुरूष साथी छोड़ देता है, तो वो उससे गुजारा-भत्ता पाने का दावा कर सकती है.


इस नियम को लेकर कुछ विवाद भी


इस नियम को लेकर कुछ विवाद भी हैं. जैसे, लिव-इन संबंधों में महिला साथी को पत्नी की तरह भरण पोषण पाने का अधिकार दिया गया है. जबकि लिव-इन संबंधों में आमतौर पर दोनों ही व्यक्ति एक दूसरे से किसी भी वक्त अलग होने के लिए स्वतंत्र होते हैं. UCC में बनाया गया ये नियम, एक तरह से अपारंपरिक शादी की तरह ही है. भारत में पैतृक संपत्ति को लेकर परंपरागत रूप से अधिकार, बेटों का माना जाता है. लेकिन हिंदु परिवारों के लिए समय समय पर नियमों में बदलाव किए गए. हिंदू परिवारों में पैतृक संपत्ति पर बेटा और बेटी दोनों का हक बराबर होता है. लेकिन अन्य धर्मों में ऐसा नहीं था.


पैतृक संपत्ति से जुड़े नियम भी समान


उत्तराखंड की समान नागरिक संहिता में पैतृक संपत्ति से जुड़े नियम भी समान कर दिए गए हैं. अब हर धर्म के लोगों के लिए नियम यही है कि पैतृक संपत्ति पर बेटा और बेटी दोनों का समान अधिकार होगा. Unifor Civil Code का विरोध ये कहकर किया जा रहा है ये मुस्लिम विरोधी है. लेकिन सच्चाई ये है कि UCC के ड्राफ्ट में जो प्रावधान किए गए हैं, उससे समाज के हर वर्ग और धर्म के लोगों को समान अधिकार मिलेंगे. फिर चाहे वो कोई हिंदु हो, मुस्लिम हो, सिख हो या ईसाई . मुस्लिम धर्मगुरू इसलिए परेशान हैं क्योंकि जिन नियमों को UCC में सबके लिए अनिवार्य किया गया है. वो नियम हिंदुओँ में पहले से ही बदले जा चुके हैं, जबकि पर्सनल लॉ की मजबूरी की वजह से वो नियम मुस्लिम धर्म के लोगों पर लागू नहीं होते थे. UCC के आने के बाद से पर्सनल लॉ के ये नियम लागू नहीं हो पाएंगे. यही इन लोगों की परेशानी की वजह है.


'समान नागरिक संहिता' इस देश की जरूरत


'समान नागरिक संहिता' इस देश की जरूरत है. ये देश के हर वर्ग, धर्म, जाति के लिए कुछ मुद्दों पर समान नियम की बात करता है. जिससे पूरे समाज में एकरूपता आएगी. बहुत से लोग समान नागरिक संहिता का विरोध केवल ये मासूम तर्क देकर करते हैं कि, भारत सर्वधर्म समभाव और अनेकता में एकता वाला देश है. यहां पर धार्मिक परंपराओं में विविधता है. इसीलिए उनका मानना है कि 'समान नागरिक संहिता' जैसा कानून, इस सामाजिक ढांचे को खराब करेगा. अगर हम समान नागरिक संहिता के कुछ खास टॉपिक को उठाएं तो इसमें शायद कुछ भी गलत ना लगे. जैसे


सभी धर्मों पर होगा लागू


समान नागरिक संहिता में शादी की एक निश्चित उम्र सीमा तय की जा सकती है, जो सभी धर्मों पर लागू होगी. अभी तक हिंदू मैरिज एक्ट में लड़कियों की शादी की उम्र 18 वर्ष, और लड़कों की शादी की उम्र 21 वर्ष है. जबकि वहीं मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत लड़कियों की शादी की उम्र मासिक धर्म की शुरुआत के बाद मान ली जाती है. इसी तरह से लड़कों की शादी की उम्र 13-15 वर्ष के बाद मान ली जाती है.


क्या 12-13 वर्ष की बच्ची की शादी होनी चाहिए?


एक देश में दो अलग-अलग समुदायों के लिए शादी की उम्र में इतना अंतर क्यों है. अगर हम परंपराओं के नजरिए से अलग होकर देखें, तो क्या 12-13 वर्ष की उम्र की बच्ची की शादी होनी चाहिए? क्या ऐसे नियमों का पालन इसलिए होना चाहिए, क्योंकि पुरातन धार्मिक नियम ऐसा कहते हैं? अगर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस मुद्दे पर UCC का विरोध करता है, तो क्या वो बाल विवाह का समर्थन नहीं कर रहे हैं? वर्ष 1929 में बाल विवाह को कानूनी तौर पर पहली बार प्रतिबंधित किया गया था. भारत में भी बाल विवाह कानून के तहत दोषियों को 2 साल की सजा हो सकती है. ऐसा विवाह भी गैर कानून घोषित किया जाता है. लेकिन ये नियम मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत शादी करने वालों पर लागू नहीं होता है. क्या ये सही है कि एक देश में बाल विवाह जैसे मुद्दे पर दो अलग-अलग नियम बना दिए गए हैं.


हिन्दू-मुस्लिम में इतना भेद क्यों?


इसे देश की विंडबना कहिए कि शादी को लेकर दो अलग-अलग समुदायों के लिए देश का कानून अलग तरीके से व्यवहार करता है. जैसे अगर कोई 24 वर्ष का हिंदू पुरुष, 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की से विवाह और संबंध रखने का दोषी हो तो, उसे बाल विवाह निषेध अधिनियम के तहत सजा हो सकती है, इसके अलावा उस पर POCSO के तहत भी मामला दर्ज किया जा सकता है. ठीक यही अगर कोई 24 वर्षीय मुस्लिम पुरुष, 18 वर्ष से कम की मुस्लिम लड़की से विवाह और संबंध रखता है, तो उस पर ना बाल विवाह अधिनियम लागू होगा, ना ही POCSO लगेगा. ऐसा इसलिए है क्योंकि मुस्लिम पर्सनल लॉ के हिसाब से यौन परिपक्वता यानी Puberty की अवस्था में एक मुस्लिम लड़की शादी कर सकती है. यही नहीं लड़का-लड़की की आपसी सहमति की सूरत में उस पर POCSO भी नहीं लगेगा. 


बहुविवाह पर रोक लगेगी


ठीक इसी तरह से माना जा रहा है कि समान नागरिक संहिता में बहुविवाह पर रोक लगेगी. यानी एक व्यक्ति, कई महिलाओं से शादी नहीं कर पाएगा. ना ही एक महिला कई पति रख पाएंगी. लेकिन हम आपको अब इससे जुड़ा एक रोचक तथ्य बताते हैं. 'हिंदू मैरिज एक्ट' में बहुविवाह प्रतिबंधित है. यानी एक व्यक्ति, एक से ज्यादा पत्नियां नहीं रख सकता है. लेकिन वहीं मुस्लिम पर्सनल लॉ कहता है, कि एक मुस्लिम पुरुष 4 पत्नियां तक रख सकता है. यानी वो 4 शादियां कर सकता है. लेकिन इसमें एक ट्विस्ट ये है कि एक मुस्लिम महिला, चार मुस्लिम पुरुषों से शादी नहीं कर सकती है. यानी वो एक साथ चार पति नहीं रख सकती है.


समान नागरिक संहिता आना जरूरी


अब अगर इसमें कोई ये तर्क दे कि धार्मिक परंपराओं के तहत ऐसा किया जा रहा है. क्या ऐसा नियम खत्म नहीं होना चाहिए? अगर इस नियम को धार्मिक जरूरत भी मान लें, तो क्या ये महिलाओं के साथ भेदभाव नहीं है. क्या इस नियम के तहत पुरुषों को महिलाओं के मुकाबले ज्यादा अधिकार नहीं दिए गए हैं? केवल शादी से जुड़े नियम ही नहीं, तलाक से जुड़े नियम भी अलग-अलग समुदायों के पर्सनल लॉ में अलग-अलग हैं. नरेंद्र मोदी सरकार ने वैसे तो तीन तलाक के खिलाफ कानून लाकर, मुस्लिम महिलाओं के साथ कुछ न्याय किया है. लेकिन तलाक के बाद हलाला और इद्दत से नियमों के लिए भी समान नागरिक संहिता आना जरूरी है.


नियम केवल मुस्लिम महिलाओं के लिए ही


हिंदू मैरिज एक्ट में तलाक के लिए कानूनी प्रक्रिया का पालन करना होता है. जिसमें तलाक के बाद पुरुष और महिला कहीं भी अन्य जगह तुरंत विवाह करने के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं. तलाक होने के बाद आमतौर पर किसी तरह का कोई बंधन नहीं रहता है. लेकिन वहीं अगर हम केवल मुस्लिम पर्सनल लॉ की बात करें तो तीन बार तलाक कहकर, महिलाओं को तलाक देने की कुप्रथा, कानून बनाकर समाप्त कर दी गई. लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत तलाक के बाद महिला अगर दोबारा अपने पति से दोबारा विवाह करना चाहे, तो उससे पहले उसे किसी अन्य व्यक्ति से विवाह और संबंध रखने होते हैं, जिसे हलाला कहा जाता है.
विडंबना ये है कि ये नियम केवल मुस्लिम महिलाओं पर ही लागू होते हैं, ये पुरुषों पर लागू नहीं होते हैं. अगर कोई पुरुष, अपनी तलाकशुदा पत्नी से दोबारा विवाह करना चाहे, तो इस केस में भी महिला को ही हलाला से गुजरना पड़ता है, पुरुष को कुछ नहीं करना होता. क्या महिलाओं के साथ ये भेदभाव नहीं है.


'इद्दत' मुस्लिम पुरुषों पर लागू नहीं होता


इसी तरह से मुस्लिम पर्सनल लॉ में 'इद्दत' का एक नियम है. 'इद्दत' वो नियम है, जो किसी महिला के पति की मृत्यु के बाद या तलाक के बाद, महिलाओं के लिए ही बनाया गया है. नियम के मुताबिक महिला को अपने पति की मृत्यु या तलाक के बाद, कुछ समय तक 'एकांतवास' में रहना होता है. इस नियम के तहत मुस्लिम महिला पति की मृत्यु या तलाक हो जाने के करीब 40 दिनों तक, किसी अन्य के साथ विवाह नहीं कर सकती है. यही नहीं अलग-अलग परिस्थितियों में, ये समय सीमा बढ़कर 1 वर्ष तक भी हो जाती है. जबकि 'इद्दत' जैसा नियम, मुस्लिम पुरुषों पर लागू नहीं होता है. यहां भी इस नियम को बनाकर महिलाओं के साथ भेदभाव जैसी स्थिति है.


बड़ा सामाजिक बदलाव


सभी धर्मों और उनकी धार्मिक मान्यताओं का सम्मान होना चाहिए. इन उदाहरण से ये समझाना होगा कि समय के साथ-साथ सामाजिक रूप से बदलाव की जरूरत सभी को है. बाल विवाह और सती प्रथा जैसे नियम, किसी दौर में समाज की मान्यताओं का प्रतीक थे. उस दौर में सती होने वाली महिलाओं को देवी का दर्ज दिया जाता था. लेकिन समय के साथ लोगों को ये अहसास हो गया, कि किसी की मृत्यु के बाद, उसकी चिता पर उसकी पत्नी का जान दे देना, कोई दैवीय प्रथा नहीं, बल्कि आत्महत्या के समान है. ये ऐसी कुप्रथा थी, जिसको समाज ने धीरे-धीरे नकार दिया. आज सती प्रथा जैसी कोई घटना नहीं होती है, और बाल विवाह जैसे मामलो में कानूनी रूप से सज़ा मिलती है. समान नागरिक संहिता, देश के नागरिकों के लिए बनाया जाने वाला एक ऐसा नियम होगा, जो सभी समुदायों के पुरुष और महिलाओं के समान अधिकार सुनिश्चित करेगा. यकीन मानिए, आने वाले भविष्य में सभी इसको सहर्ष स्वीकार करेंगे और इस बड़े सामाजिक बदलाव का हिस्सा बनेंगे.