दूसरे चरण में योगी पास या फेल? जानिए, पोलिंग बूथ पर मुस्लिम वोटर्स की भीड़ के मायने
उत्तर प्रदेश के असेंबली चुनाव (UP Assembly Election 2022) में दूसरे चरण के चुनाव सोमवार को संपन्न हो गए. इस चरण में मुस्लिम मतदाताओं की भीड़ मतदान केंद्रों पर उमड़ी. इस भीड़ के उमड़ने के मायने क्या हैं. क्या सीएम योगी आदित्यनाथ को इसका फायदा हुआ या नुकसान.
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नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश के असेंबली चुनाव (UP Assembly Election 2022) में सोमवार को दूसरे चरण की वोटिंग की गई. इन चुनावों में अखिलेश यादव की सोशल इंजीनियरिंग ने इसे कांटे का मुकाबला बना दिया है.
सोमवार को दूसरे चरण में उत्तर प्रदेश के 9 ज़िलों की 55 सीटों पर 61.80 प्रतिशत वोटिंग हुई. ये आंकड़े शाम 6 बजे तक के हैं. और इनमें कुछ बदलाव हो सकता है. पिछली बार इन्हीं सीटों पर लगभग 65 प्रतिशत वोटिंग हुई थी. इस हिसाब से इस बार 3 प्रतिशत कम वोट डाले गए हैं.
मुस्लिम इलाकों में हुई जबरदस्त वोटिंग
सोमवार को जिन 9 ज़िलों में वोटिंग थी, उनमें सात ज़िले ऐसे हैं, जहां 30 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम आबादी है. जबकि मुरादाबाद और रामपुर में मुस्लिम आबादी 50 प्रतिशत से ज्यादा है. कुल मिला कर कहें तो इस चरण में मुस्लिम वोटर्स बहुत महत्वपूर्ण थे. इन 9 ज़िलों की 55 में से कुल 38 सीटें ऐसी हैं, जिन पर मुसलमानों के वोट बहुत अहम हैं.
सोमवार को विभिन्न इलाकों में हुई वोटिंग का एक लाइन में सार ये था कि इस बार उन इलाक़ों में ज़बरदस्त वोटिंग हुई है, जहां मुस्लिम आबादी ज़्यादा है.
- हमारे अनुमान के मुताबिक, इस बार इन सीटों पर मुसलमान वोटर्स ने 65 से 70 प्रतिशत तक मतदान किया है. 2017 में ये आंकड़ा 50 प्रतिशत था. यानी 50 प्रतिशत मुस्लिम समुदाय के लोगों ने वोट ही नहीं डाले थे. लेकिन इस बार 15 से 20 प्रतिशत वोटिंग ज्यादा हुई.
हिंदू वोटर्स में दिखा कम उत्साह
- इसका सीधा सा मतलब ये है कि मुस्लिम मतदाता जानते थे कि उन्हें किसे और क्यों वोट करना है. हालांकि यहां दूसरा बड़ा Point ये है कि मुसलमानों के ज्यादा वोट डालने पर भी वोटिंग प्रतिशत 2017 की तुलना में कम है, जिससे ये पता चलता है कि हिन्दुओं ने इस बार कम वोटिंग की है. यानी हिन्दू वोटर्स में इस बार कम उत्साह दिखाई दिया है, जो बीजेपी के लिए अच्छी ख़बर नहीं है.
एक और बात..इन सीटों पर अधिक मुस्लिम मतदाता होते हुए भी पिछली बार बीजेपी को यहां शानदार जीत मिली थी. 2017 में बीजेपी ने यहां की 55 में से 38 सीटें, समाजवादी पार्टी ने 15 और कांग्रेस ने दो सीटें जीती थीं. जबकि बीएसपी को एक भी सीट नहीं मिली थी. ऐसा इसलिए हुआ था, क्योंकि अखिलेश यादव तब केवल मुस्लिम प्लस यादव वोटों की सोशल इंजीनियरिंग पर निर्भर थे.
अखिलेश यादव ने बनाया जातियों का नया फॉर्मूला
लेकिन इस बार उन्होंने अपना फॉर्मुला बदल दिया है. अब उन्होंने एक नया फॉर्मुला बनाया है और वो है, M प्लस Y प्लस J + S/M + K + G.. यानी मुस्लिम.. प्लस.. यादव.. प्लस.. जाट.. प्लस.. सैनी/मौर्य.. प्लस.. कुर्मी.. प्लस.. गुर्जर..
यानी जो बात हमने आपको पहले भी बताई थी कि योगी आदित्यनाथ और बीजेपी तो 80-20 के फॉर्मुले पर चुनाव लड़ रहे हैं. जिसमें वो 20 प्रतिशत मुस्लिम वोटर्स को छोड़ कर, 80 प्रतिशत हिन्दू वोटर्स को एकजुट रखने पर ज़ोर दे रहे हैं. आप ये भी कह सकते हैं कि बीजेपी केवल 80 नम्बर का पेपर Attempt कर रही है और 20 नम्बर के सवाल को उसने खाली छोड़ दिया है. जबकि अखिलेश यादव जानते हैं कि 20 प्रतिशत मुस्लिम वोट तो उनकी पार्टी को मिलेंगे ही इसलिए उन्होंने हिन्दू वोटों को अलग अलग भागों में बांट कर एक नई सोशल इंजीनियरिंग की है.
2017 में अखिलेश यादव की पार्टी इस क्षेत्र में इसलिए हार गई थी क्योंकि उसने मुस्लिम और यादव वोटों को एकजुट रखने के लिए मुस्लिम उम्मीदवारों को ज़्यादा टिकट दिए थे. इस बार उन्होंने ऐसा नहीं किया. इस बार उन्होंने ऐसी सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार ही नहीं उतारे, जहां मुस्लिम मतदाता जीत और हार का फैसला करते हैं.
रणनीति के तहत मुस्लिमों को दिए कम टिकट
सोमवार को जिन 55 सीटों पर वोटिंग हुई है, उनमें 52 सीटों पर अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के और तीन सीटों पर जयंत चौधरी की राष्ट्रीय लोकदल के उम्मीदवार थे. अखिलेश यादव ने ये जानते हुए 52 में से केवल 20 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिए कि यहां 38 सीटों पर मुस्लिम फैक्टर काम करता है.
उदाहरण के लिए सहारनपुर की देवबंद सीट पर समाजवादी पार्टी ने इस बार मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया. इस सीट से अखिलेश यादव ने कार्तिकेय राणा को टिकट दिया है, जो ठाकुर समाज से आते हैं. इस सीट पर 65 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम वोटर्स हैं और ठाकुर समाज की भी यहां अच्छी तादाद है. अब अखिलेश यादव को पता था कि अगर वो किसी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट देंगे तो ठाकुर समाज का वोट उन्हें नहीं मिलेगा, इसलिए उन्होंने इस सीट पर मुसलमानों का प्रभाव होते हुए भी एक हिन्दू को टिकट दे दिया. इसे हम उनकी स्मार्ट पॉलिटिक्स कहेंगे. पिछली बार उनकी इस गलती से बीजेपी ने ये सीट जीत ली थी.
सहारनपुर में गैर-मुस्लिमों पर लगाया दांव
इसे आप एक और उदाहरण से समझ सकते हैं. सहारनपुर ज़िले में कुल 6 विधान सभा सीटें हैं और यहां 40 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम मतदाता हैं. लेकिन अखिलेश यादव ने इन 6 में से केवल दो ही सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दी और बाकी सीटों पर अलग अलग जातियों के नेताओं को प्रत्याशी बनाया है.
जैसे कि सहारनपुर की नकुड़ सीट पर कुल साढ़े तीन लाख वोटर्स हैं. इनमें सबसे ज्यादा एक लाख 30 हज़ार मुस्लिम मतदाता हैं. दूसरे नम्बर 70 हज़ार जाटव समुदाय के वोटर्स हैं. अब अखिलेश यादव ने इस सीट से ना तो मुस्लिम नेता को अपना प्रत्याशी बनाया और ना ही जाटव समुदाय से किसी को टिकट दिया. उन्होंने धर्म सिंह सैनी को टिकट दिया क्योंकि सैनी जाति के यहां 35 हज़ार वोटर हैं. इससे पहले तक समाजवादी पार्टी यहां से मुस्लिम नेता इमरान मसूद को टिकट देती थी.
सोमवार को ज़ी न्यूज की टीम ने इन सीटों पर वोटिंग के दौरान जो देखा, उसकी पांच बड़ी बाते हैं.
पहला- यादव प्लस मुस्लिम वोटों के साथ OBC का कुछ वोट समाजवादी पार्टी के साथ गया है.
दूसरा- समाजवादी पार्टी को शाक्य, सैनी और कुर्मी वोट भी मिले हैं.
तीसरा- बीजेपी को ठाकुर, ब्राह्मण, निषाद, कश्यप और लोधी समाज के वोट मिले हैं. इनमें कुर्मी और सैनी समाज के भी 50 प्रतिशत वोट बीजेपी के खाते में गए हैं. ये ज़ी न्यूज की टीम का अनुमान है. जो दिनभर पोलिंग बूथ्स पर मौजूद रही.
चौथा- समाजवादी पार्टी और बीजेपी में पिछड़ी जातियों के वोट बंटे है. ये बीजेपी के लिए अच्छी ख़बर नहीं है. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बीएसपी इस क्षेत्र में काफ़ी कमज़ोर दिखाई दी.
पांचवां- अखिलेश यादव को जयंत चौधरी के साथ गठबन्धन करने से फायदा मिला है. हमारा अनुमान है कि जाट मतदाताओं ने एकजुट होकर इस गठबन्धन को वोट किया है.
बीएसपी के प्रति दिखा दलितों का झुकाव
यहां एक और Point ये है कि हमारा ऐसा आंकलन है कि दूसरे चरण में दलित मतदाताओं का झुकाव बीएसपी की तरफ़ रहा है. ये बीजेपी के लिए अच्छी ख़बर हो सकती है.
2017 में बीएसपी को इस क्षेत्र में कोई सीट तो नहीं मिली थी. लेकिन तब 12 ऐसी सीटें ऐसी थीं, जिन पर बीएसपी दूसरे नम्बर पर रही थी. इन 12 सीटों में से उस समय बीजेपी ने 8 सीटें जीती थीं. यानी बीएसपी का मजबूत होना, बीजेपी के लिए फायदेमंद है. अब अगर दलित वोट बीएसपी को मिले होंगे तो बीजेपी को इसका फायदा मिल सकता है.
हमारा अनुमान है कि बीजेपी के लिए पहला चरण बहुत मुश्किल था. दूसरा चरण उससे भी ज्यादा मुश्किल था. अब बाकी के चरणों में ये मुश्किल कम होती जाएंगी क्योंकि इन सीटों पर जाति और धर्म का ये फॉर्मुला काम नहीं करेगा. हालांकि हमारा आंकलन है कि दूसरे चरण में अखिलेश यादव की पार्टी 30 से 35 सीटें जीत सकती है. पिछली बार वो 15 सीटें ही जीते थे.
सोमवार को उत्तराखंड की 70 सीटों पर भी चुनाव हुए. शाम 6 बजे तक उत्तराखंड में 59.51 प्रतिशत वोटिंग हुई. 2017 में ये आंकड़ा लगभग 65 था. यानी इस बार लगभग पांच प्रतिशत कम वोट डाले गए हैं.
उत्तराखंड में बीजेपी के साथ कांग्रेस और आप भी टक्कर में
उत्तराखंड में हुई वोटिंग का एक लाइन में सार ये है कि मैदानी इलाक़ों में बीजेपी के पक्ष में अच्छी वोटिंग हुई है. जैसे हरिद्वार और देहरादून जैसी जगहों पर अच्छा प्रभाव रहा. हालांकि यहां कांग्रेस और आम आदमी पार्टी बीजेपी को अच्छी टक्कर दे रही है. पहाड़ी इलाक़ों में और खास तौर पर गढ़वाल क्षेत्र में कांटे की टक्कर दिख सकती है क्योंकि यहां बीजेपी के स्थानीय विधायकों के ख़िलाफ़ लहर है.
उत्तराखंड राज्य का गठन वर्ष 2000 में हुआ था. 2002 में वहां पहली बार चुनाव हुए थे. तब से वहां एक बार बीजेपी की सरकार आती है और एक बार कांग्रेस की सरकार आती है. अब देखना ये होगा कि क्या बीजेपी इस परम्परा को तोड़ पाएगी.
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गोवा में 79 परसेंट हुई वोटिंग
सोमवार को गोवा की भी 40 विधान सभा सीटों पर शाम 6 बजे तक लगभग 79 प्रतिशत वोटिंग हुई है. ये 2017 की तुलना में 2 प्रतिशत कम है. पिछली बार गोवा में 81.04 प्रतिशत वोट डाले गए थे. गोवा में लगभग दो दशकों के बाद बीजेपी बिना मनोहर पर्रिकर के चुनाव लड़ रही है क्योंकि वर्ष 2019 में उनका निधन हो गया था. मनोहर पर्रिकर के पुत्र उत्पल पर्रिकर पणजी से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं, क्योंकि बीजेपी ने उन्हें टिकट नहीं दिया. हमारा अनुमान है कि गोवा में आम आदमी पार्टी और TMC भी रेस में है. हो सकता है कि इस बार भी वहां किसी पार्टी को बहुमत ना मिले. 2017 में भी गोवा में किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था.