प्रयागराज: ब्रिटिश हुकूमत ने 200 साल तक भारत पर राज किया, तब जाकर हमें हमारी आजादी नसीब हुई. कभी उस वक्त के बारे में आपने कल्पना की है, जब अंग्रेजों के हाथ में हमारी बागडोर थी और उनके खिलाफ बोलने पर फांसी दे दी जाती थी. उस वक्त अंग्रेजों की हैवानियत का आलम ये था कि सैकड़ों की संख्या में आजादी की मांग करने वालों को फांसी पर लटका दिया जाता था. इसके लिए इस्तेमाल किए जाते थे शहर के पेड़. ऐसा ही एक इमली का पेड़ प्रयागराज में है, जो आजादी के दीवानों के जुनून और अंग्रेजों की वहशत दोनों को देख चुका है. 


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

सैकड़ों क्रांतिकारियों को मरते देखा 'फांसी इमली' ने
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान यहां लगे इमली के पेड़ पर अंग्रेजों ने सौ से ज़्यादा क्रांतिकारियों को फांसी दी थी. प्रयागराज में मौजूद इस जगह पर इस वक्त न तो वो पेड़ बचा है, न ही साफ-सफाई, लेकिन यहां आकर देशभक्ति का वो जज्बा अब भी महसूस किया जा सकता है. 


इतिहास के झरोखे से: 15 अगस्त 1947 को लाल किले पर नहीं फहरा था तिरंगा,  3 साल बाद गाया गया राष्ट्रगान


बगावत करने पर अंग्रेज पेड़ पर लटकाकर फांसी देते थे
फांसी इमली स्मारक स्थल प्रयागराज के सुलेम सरांय इलाके में दिल्ली-हावड़ा नेशनल हाइवे नंबर टू के बगल में मौजूद है. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जो क्रांतिकारी बगावत का बिगुल बजाते हुए अंग्रेजों के हत्थे चढ़ जाता था, उसे यहीं मौजूद इमली के पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी जाती थी. इतिहास के पन्नों में दर्ज दस्तावेजों के मुताबिक अंग्रेजों ने यहां लगे इमली के पेड़ पर सौ से ज़्यादा क्रांतिकारियों को फांसी पर लटकाया था. इसी वजह से अंग्रेजों के शासन काल में ही इस जगह को फांसी इमली कहा जाने लगा था.


दीवानों का इतिहास दफ्न होता गया 
देश की आज़ादी के बाद यहां लगे पेड़ को शहीद स्मारक घोषित किया गया था. यहां कई क्रांतिकारियों की मूर्तियां लगाई गई थीं। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू खुद एक बार यहां आए थे, लेकिन वक्त के साथ यह पेड़ और स्मारक स्थल दोनों ही गुमनामी में खो गए. पुराने पेड़ की जगह इमली का ही नया पेड़ पैदा हो गया है. स्मारक स्थल के अंदर जाने के लिए बेहद छोटा गेट है, जहां झुककर ही दाखिल हुआ जा सकता है. मुख्य स्थल को लोहे के तारों और रस्सियों से बैरीकेड कर दिया गया है, यानी कोई वहां तक जा भी नहीं सकता.


WATCH LIVE TV