Barabanki News: इन दिनों इजराइल और ईरान के बीच भीषण जंग हो रही है. दोनों देश एक-दूसरे पर मिसाइल दाग रहे हैं. ऐसे में क्या आप जानते हैं कि ईरान के इतिहास का तार यूपी से जुड़ा हुआ है? जी हां, ईरान के इतिहास के तार यूपी के बाराबंकी से जुड़े हुए हैं. दरअसल, शिया धर्मगुरु सैयद अहमद मुसावी का जन्म बाराबंकी के पास किंटूर शहर में हुआ था. रिपोर्ट्स की मानें तो जब 1979 में इस्लामी क्रांति के जनक रुहोल्ला खुमैनी ईरान में बड़े हो रहे थे, तब उनका मुल्क एक लिबरल देश था. बचपन से ही खुमैनी का झुकाव आध्यात्मिकता की तरफ था. उनका शिया वर्ग से गहरा संबंध था, जो उन्हें अपने दादा सैयद अहमद मुसावी हिंदी से विरासत में मिला था. 


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खुमैनी के दादा अहमद हिंदी का जन्म यूपी के बाराबंकी के पास हुआ था. आगे चलकर वह ईरान चले गए. बाराबंकी में जन्मे हिंदी और उनकी शिक्षाओं ने ईरान के इतिहास को आकार देने में अहम भूमिका निभाई. उनके पोते खुमैनी ईरान के पहले सुप्रीम लीडर बने और इसे एक धार्मिक मुल्क में बदल दिया.


कौन संभालेगा विरासत?
ये सब और दिलचस्प है क्योंकि दुनिया इस वक्त ईरान की ओर देख रही है. सवाल उठ रहा है कि रविवार को एक हेलीकॉप्टर क्रैश में राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी की मौत के बाद वर्तमान सुप्रीम लीडर और खुमैनी के उत्तराधिकारी अयातुल्ला अली खामेनेई की विरासत कौन संभालेगा? खामेनेई के उत्तराधिकारी की दौड़ में रईसी दो दावेदारों में से एक थे. दूसरा खामेनेई का दूसरा बेटा मोजतबा है. खामेनेई के पूर्वाधिकारी खुमैनी थे, जिन्होंने ईरान को एक कट्टरपंथी शिया मुल्क और मिडिल ईस्ट में एक वैकल्पिक शक्ति केंद्र में बदल दिया.


बाराबंकी से ईरान गए थे मुसावी
अगर खुमैनी के दादा अहमद हिंदी ईरान नहीं गए होते तो ये मुल्क अपना वर्तमान स्वरूप नहीं ले पाता. ये बेहद अजीब और दिलचस्प है कि कैसे ईरान के इतिहास के तार यूपी के एक जिले से जुड़े हुए हैं. रिपोर्ट्स की मानें तो मुसावी ने भारत के साथ अपना जुड़ाव दिखाने के लिए सरनेम के रूप में 'हिंदी' का इस्तेमाल किया. उनके पोते रुहोल्ला खुमैनी को आगे चलकर 1979 की ईरानी क्रांति का जनक कहा गया. उन्होंने पश्चिम एशियाई देश को हमेशा के लिए एक धर्मतंत्र में बदल दिया. 1830 में अहमद मुसावी हिंदी बाराबंकी ईरान गए थे.


कब भारत आए थे मुसावी के पिता?
रिपोर्ट्स की मानें तो 18वीं शताब्दी की शुरुआत में अहमद मुसावी हिंदी के पिता दीन अली शाह मिडिल ईस्ट से भारत आए थे. लगभग 1800 में लखनऊ से लगभग 30 किलोमीटर पूर्व में बाराबंकी के पास अहमद हिंदी का जन्म हुआ था. ये वह वक्त था जब ब्रिटिश हुकूमत मुगलों को हराकर भारत पर नियंत्रण हासिल कर रही थी. उन मौलवियों में से एक अहमद हिंदी थे, जो इस्लामी पुनरुत्थान के विचार में विश्वास रखते थे. उनका मानना था कि मुसलमानों को समाज में अपना सही जगह फिर से हासिल करना चाहिए.


कब पहुंचे ईरान के खोमेन?
रिपोर्ट्स के मुताबिक, 19वीं शताब्दी की शुरुआत में बेहतर जीवन और अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए जगह की तलाश में अहमद हिंदी ने इराक से होते हुए ईरान की यात्रा की, जिसे उस समय फारस के नाम से जाना जाता था. 1830 में वह इराक के नजफ में अली के मकबरे की यात्रा के लिए भारत से निकले थे. वह चार साल बाद ईरानी शहर खोमेन में पहुंचे. उन्होंने वहां एक घर खरीदा और अपने परिवार का पालन-पोषण किया.


नाम में क्यों जोड़ा 'हिंदी'?
रिपोर्ट्स की मानें तो खोमेन में उन्होंने तीन महिलाओं से शादी की और उनके पांच बच्चे थे. एक किताब के मुताबिक, इनमें खुमैनी के पिता मुस्तफा भी शामिल थे. उस वक्त ईरान पर कजार वंश का शासन था और ये संघर्षों से जूझ रहा था. 1869 में अहमद हिंदी का निधन हो गया. उन्होंने पूरे जीवन 'हिंदी' सरनेम अपने नाम के साथ जोड़े रखा, जो भारत में उनके जीवन और समय की याद दिलाता था. उन्हें कर्बला में दफनाया गया था.


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