नई दिल्ली: आदमखोर तेंदुए का अकेले सामना करने वाली, गुंडों के गिरोह को धूल चटाने वाली, यहां तक कि अपनी जान दाव पर लगा कर झांसी की रानी की जगह ले अंग्रेजों से लोहा लेने वाली झलकारी बाई का नाम इतिहास में सुनहरे अक्षरों से लिखा है. उन्होंने अच्छे जीवन के लिए स्वतंत्रता का इंतजार नहीं किया, बल्कि खुद ही रानी लक्ष्मी बाई का दाहिना हाथ बन अंग्रेजों से लड़ने के लिए रण में उतर गईं. 1857 के संग्राम की खास बात यह रही कि इस दौरान कीर्ति और यश से भरे पन्ने सिर्फ पुरुषों नहीं, बल्कि महिलाओं के हिस्से भी खूब आए. हिंदुस्तान में वीरों के इतिहास में एक सुनहरा नाम रहीं वीरांगना झलकारी बाई. 


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मैथिलीशरण गुप्त ने भी झलकारी बाई की बहादुरी पर यह शब्द लिखे थे-
जा कर रण में ललकारी थी, 
वह झांसी की झलकारी थी.
गोरों से लड़ना सिखा गई,
है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी.


ऐसे शुरू हुआ वीरांगना का जीवन
झलकारी बाई का जन्म 22 नवंबर 1830 को झांसी के निकट भोजला गांव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुनादेवी था. मां की मृत्यु उनके बचपन में ही हो गई थी. 


घुड़सवारी और शस्त्र चलाने की ली शिक्षा
झलकारी बाई बचपन से ही साहसी और दृढ़ थीं. उन्होंने घुड़सवारी और शस्त्र की शिक्षा ग्रहण की और खुद को एक अच्छा योद्धा बनाया. 


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डकैतों के गिरोह को भी चटा दी धूल
झलकारी बाई की वीरता की कहानियों में एक प्रसंग है कि एक बार डकैतों के एक गिरोह ने गांव के ही एक व्यापारी पर हमला कर दिया. तब झलकारी बाई ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था.


तेंदुए से भी अकेले ही लड़ गईं
एक और प्रसंग है कि एक बार जंगल में उनका सामना तेंदुए से हुआ. उससे डरे बिना उन्होंने न ही केवल अकेले ही उसका सामना किया बल्कि अपनी कुल्हाड़ी से उसे मार गिराया.   


रानी लक्ष्मी बाई से हूबहू मिलती थीं झलकारी बाई
इतिहास में लिखा गया है कि झलकारी बाई की शक्ल रानी लक्ष्मी बाई से हूबहू मिलती थी. इतिहासकारों ने उन्हें झांसी की रानी का हमशक्ल बताया है. एक प्रसंग के अनुसार एक बार गौरी पूजा का अवसर था और झलकारी बाई बाकी महिलाओं के साथ मिलकर रानी लक्ष्मी बाई का सम्मान करने पहुंचीं. उस समय झांसी की रानी उन्हें देखते ही अवाक रह गई थीं क्योंकि झलकारी हाई बिल्कुल उनकी तरह दिखती थीं. रानी लक्ष्मी बाई ने भी उनकी बहादुरी के किस्से सुने थे, जिसके चलते उन्होंने अपनी दुर्गा सेना में झलकारी बाई को शामिल कर लिया.
 
दहाड़ कर बोला 'मुझे फांसी दो!'
कहा जाता है कि संग्राम के दौरान एक जैसी शक्ल को ताकत बना कर झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मी बाई को किला छोड़ कर जाने की सलाह दी थी और खुद रानी के कपड़े पहन कर अंग्रेजों से लोहा लेने रण में उतर गई थीं. युद्ध करते हुए अंग्रेजों ने झलकारी बाई को चारों तरफ से घेर लिया और बंदी बना कर जनरल ह्यूरोज के सामने ले गए. वहां पर किसी ने उन्हें पहचान लिया और बताया कि वह रानी लक्ष्मी बाई नहीं बल्कि अनके दुर्गा दल की नायिका झलकारी हैं. 


जब जनरल ने पूछा कि उनके साथ क्या किया जाना चाहिए तो झलकारी बाई ने बहादुरी से रही, 'मुझे फांसी दे दो'. इस बात से प्रभावित जनरल ने उन्हें छोड़ दिया. हालांकि, उनकी मृत्यु कैसे हुई इस पर पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं. कुछ लोग मानते हैं कि रण में लड़ते-लड़ते वह वीर गति को प्राप्त हो गई थीं, जबकि कुछ का कहना है कि अंग्रेजों ने उन्हें फांसी दे दी थी या कारावास में ही उनकी मृत्यु हुई.  


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