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Atal Bihari Vajpayee Poems:'रोते-रोते रात सो गई... अटल जी की ये 10 दमदार कविताएं जो आज भी रगों में भर देती हैं जोश

 16 अगस्त यानी आज पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की छठी पुण्यतिथि है. अटल जी ने राजनीति ही नहीं बल्कि ओजस्वी कवि और रचनाकार के रूप में भी जीवन अपना योगदान दिया. उनकी कई रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं, जिनको कई मौकों पर लोग आज भी सुनते हैं.

कदम मिलाकर चलना होगा

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कदम मिलाकर चलना होगा

क़दम मिला कर चलना होगा  बाधाएँ आती हैं आएँ घिरें प्रलय की घोर घटाएँ, पावों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ, निज हाथों में हँसते-हँसते, आग लगाकर जलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा।

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में, अगर असंख्यक बलिदानों में, उद्यानों में, वीरानों में, अपमानों में, सम्मानों में, उन्नत मस्तक, उभरा सीना, पीड़ाओं में पलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में, कल कहार में, बीच धार में, घोर घृणा में, पूत प्यार में, क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में, जीवन के शत-शत आकर्षक, अरमानों को ढलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ, प्रगति चिरंतन कैसा इति अब, सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ, असफल, सफल समान मनोरथ, सब कुछ देकर कुछ न मांगते, पावस बनकर ढलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन, प्रखर प्यार से वंचित यौवन, नीरवता से मुखरित मधुबन, परहित अर्पित अपना तन-मन, जीवन को शत-शत आहुति में, जलना होगा, गलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा। 

गीत नया गाता हूं

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गीत नया गाता हूं

गीत नया गाता हूं

टूटे हुए तारों से फूटे वासंती स्वर

पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर

झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात

प्राची में अरुणिमा की रेख देख पता हूं

गीत नया गाता हूं

टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी

अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी

हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा,

काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं

गीत नया गाता हूं

कौरव कौन, कौन पांडव

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कौरव कौन, कौन पांडव

कौरव कौन कौन पांडव, टेढ़ा सवाल है. दोनों ओर शकुनि का फैला कूटजाल है. धर्मराज ने छोड़ी नहीं जुए की लत है. हर पंचायत में पांचाली अपमानित है. बिना कृष्ण के आज महाभारत होना है, कोई राजा बने, रंक को तो रोना है.

 

दूध में दरार पड़ गई

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दूध में दरार पड़ गई

ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया? भेद में अभेद खो गया। बँट गये शहीद, गीत कट गए, कलेजे में कटार दड़ गई. दूध में दरार पड़ गई.

खेतों में बारूदी गंध, टूट गये नानक के छंद सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है. वसंत से बहार झड़ गई दूध में दरार पड़ गई.

अपनी ही छाया से बैर, गले लगने लगे हैं ग़ैर, ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता. बात बनाएँ, बिगड़ गई दूध में दरार पड़ गई.

मौत से ठन गई

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मौत से ठन गई

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ, लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ? 

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ, सामने वार कर फिर मुझे आज़मा 

मौत से बेख़बर, ज़िंदगी का सफ़र, शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर 

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं 

प्यार इतना परायों से मुझको मिला, न अपनों से बाक़ी है कोई गिला 

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किए, आँधियों में जलाए हैं बुझते दिए 

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है, नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है 

पार पाने का क़ायम मगर हौसला, देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई, मौत से ठन गई। 

मैंने जन्म नहीं मांगा था

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मैंने जन्म नहीं मांगा था

मैंने जन्म नहीं मांगा था,  किन्तु मरण की मांग करुंगा जाने कितनी बार जिया हूँ, जाने कितनी बार मरा हूँ। जन्म मरण के फेरे से मैं, इतना पहले नहीं डरा हूँ.

अन्तहीन अंधियार ज्योति की, कब तक और तलाश करूँगा. मैंने जन्म नहीं माँगा था, किन्तु मरण की मांग करूँगा.

बचपन, यौवन और बुढ़ापा, कुछ दशकों में ख़त्म कहानी. फिर-फिर जीना, फिर-फिर मरना, यह मजबूरी या मनमानी

पूर्व जन्म के पूर्व बसी दुनिया का द्वारचार करूँगा मैंने जन्म नहीं मांगा था, किन्तु मरण की मांग करूँगा.

पुन: चमकेगा दिनकर

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पुन: चमकेगा दिनकर

आज़ादी का दिन मना, नई ग़ुलामी बीच, सूखी धरती, सूना अंबर, मन-आंगन में कीच, मन-आंगम में कीच, कमल सारे मुरझाए, एक-एक कर बुझे दीप, अंधियारे छाए, कह क़ैदी कबिराय न अपना छोटा जी कर, चीर निशा का वक्ष पुनः चमकेगा दिनकर।

 

राह कौन सी जाउं मैं

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राह कौन सी जाउं मैं

चौराहे पर लुटता चीर, प्यादे से पिट गया वज़ीर,  चलूं आख़िरी चाल कि बाज़ी छोड़ विरक्ति रचाऊं मैं?  राह कौन-सी जाऊँ मैं? 

सपना जन्मा और मर गया, मधु ऋतु में ही बाग़ झर गया,  तिनके टूटे हुए बटोरूँ या नवसृष्टि सजाऊँ मैं? राह कौन-सी जाऊँ मैं? 

दो दिन मिले उधार में, घाटों के व्यापार में  क्षण-क्षण का हिसाब लूँ या निधि शेष लुटाऊँ मैं? राह कौन-सी जाऊँ मैं? 

रोते-रोते रात सो गई

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रोते-रोते रात सो गई

झुकी न अलकें, झपी न पलकें  सुधियों की बारात खो गई 

दर्द पुराना, मीत न जाना  बातों ही में प्रात हो गई 

घुमड़ी बदली, बूँद न निकली  बिछुड़न ऐसी व्यथा बो गई  रोते-रोते रात सो गई 

दूर कहीं कोई रोता है

10/10
दूर कहीं कोई रोता है

तन पर पहरा, भटक रहा मन, साथी है केवल सूनापन, 

बिछुड़ गया क्या स्वजन किसी का, क्रंदन सदा करुण होता है। 

जन्म दिवस पर हम इठलाते, क्यों न मरण-त्यौहार मनाते, 

अंतिम यात्रा के अवसर पर, आँसू का अशकुन होता है। 

अंतर रोएँ, आँख न रोएँ, धुल जाएँगे स्वप्न सँजोए, 

छलना भरे विश्व में, केवल सपना ही सच होता है। 

इस जीवन से मृत्यु भली है, आतंकित जब गली-गली है, 

मैं भी रोता आस-पास जब, कोई कहीं नहीं होता है। 

दूर कहीं कोई रोता है।