लखनऊ: भारत को आजादी दिलाना कुछ साल की बात नहीं थी, बल्कि इसके पीछे कई दशकों की मेहनत और कई वीर बलिदानियों का खून बहा था. भारत मां के वह वीर बेटे, जो खुद आजादी की सूरत न देख सके, लेकिन देश को आजाद करने के लिए अपनी जान तक की परवाह न की. इनमें से एक बहादुर लाल थे राम प्रसाद बिस्मिल. उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में जन्मे बिस्मिल काकोरी कांड के कर्ता-धर्ताओं में से एक थे. 1918 के मैनपुरी कांड में भी उनकी अहम भूमिका रही थी. आज उनके 124वें जन्मदिवस पर हम आपको बताते हैं इस वीर शहीद की एक ऐसी कहानी जो शायद ज्यादा लोगों को न पता हो...


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11 जून 1897 को भारत माता की गोद में राम प्रसाद बिस्मिल ने जन्म लिया था. वे आर्यसमाज से प्रेरित थे. बिस्मिल एक क्रांतिकारी होने के साथ-साथ एक लेखक, इतिहासकार और साहित्यकार भी थे. वे बिस्मिल ही थे, जिन्होंने 'सरफरोशी की तमन्ना...' से हर देशभक्त को भावविभोर कर दिया था. आइए जानते हैं यह शेर उन्होंने कैसे और कब बनाया...


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अशफाक ने गुनगुनाया जिगर मुरादाबादी का शेर
स्वतंत्रता सेनानी अशफाक उल्ला खां और राम प्रसाद बिस्मिल में गहरी दोस्ती थी. एक दिन अशफाक किसी काम से बिस्मिल के घर शाहजहांपुर पहुंचे. दोस्त से मिलने के बाद वह काफी शायराना मूड में नजर आ रहे थे. ऐसे में उन्हें जिगर मुरादाबादी की कुछ लाइनें याद आईं और उन्हें गुनगुनाने लगे. वह लाइन कुछ ऐसी थी- "कौन जाने ये तमन्ना इश्क की मंजिल में है, जो तमन्ना दिल से निकली फिर जो देखा दिल में है."


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बिस्मिल को नहीं आया पसंद
बिस्मिल को यह शेर कुछ खासा पसंद नहीं आया, इसलिए अशफाक उल्ला खां के बोले हुए इस शेर पर बिस्मिल मुस्कुरा दिए. अशफाक को यह बात बुरी लग गई. उन्होंने कहा- "क्यों राम भाई! मैंने मिसरा कुछ गलत कह दिया क्या?" इसपर राम प्रसाद बिस्मिल ने जवाब दिया, "नहीं मेरे कृष्ण कन्हैया, यह बात नहीं है. मैं जिगर साहब की बहुत इज्जत करता हूं. मगर उन्होंने गालिब की पुरानी जमीन पर घिसा-पिटा शेर कहकर कौन-सा बड़ा तीर मार लिया? कोई नई रंगत देते तो मैं भी इरशाद कहता."


कुछ यूं आया सरफरोशी की तमन्ना...
इस बात को सुनकर अशफाक भी बड़े टेढ़े अंदाज में बोले, "तो राम भाई! अब आप ही इसमें गिरह लगाइए. मैं मान जाऊंगा आपकी सोच जिगर और मिर्जा गालिब से भी अव्वल दर्जे की है." यह बात सुन बिस्मिल ने कोई जवाब नहीं दिया. बस इतना कहा- "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है?"


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भावविभोर हो गए अशफाक
यह मिसरा सुनते ही अशफाक उल्ला खां रो पड़े. शेर उनके दिल को छू गया और इसी के साथ उन्होंने बिस्मिल को अपने गले से लगा लिया. इसके बाद उन्होंने बिस्मिल को 'उस्तादों के भी उस्ताद' पद से नवाजा.


1927 में हुए थे शहीद
19 दिसंबर 1927 वह दिन था जब राम प्रसाद बिस्मिल ने अपने देश की आजादी के लिए शान से कुर्बानी दी थी. उन्हें काकोरी कांड में शामिल होने के लिए अंग्रेजों ने फांसी की सजा सुनाई थी. फांसी के तख्त पर चढ़कर भी वह अंग्रेजों को चुनौती दे रहे थे. तख्त पर खड़े होकर बिस्मिल ने 'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है' गाया और इस शेर को अमर कर दिया. आज भी हम इसे गाते-गुनगुनाते जरूर हैं, लेकिन यह कहां से जन्मा, इसके बारे में कम ही लोगों को पता होगा.


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क्या जानते हैं आप?


  1. राम प्रसाद बिस्मिल जब किताबें लिखते थे तो उन्हें तीन नामों से ही छापते थे- राम, अज्ञात और बिस्मिल.

  2. शहादत के बाद बिस्मिल के शव का अंतिम संस्कार राप्ति नदी के किनारे हुआ. आज उसे राजघाट नाम से जाना जाता है.

  3. शाहजहांपुर से करीब 11 किलोमीटर दूर एक रेलवे स्टेशन को राम प्रसाद बिस्मिल के नाम पर रखा गया है.


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