निमिषा श्रीवास्तव/लखनऊ: जब कभी भी हमारे देश की स्वतंत्रता, सम्मान और रक्षा की बात आती है तो हमारे मन में ऐसे कई वीरों के नाम आते हैं, जिन्होंने भारत के लिए सब कुछ न्योछावर कर दिया. हम खुद को भाग्यशाली समझते हैं कि देश की और हमारी सुरक्षा के लिए मर मिट जाने वालों की कमी नहीं है. वे वीर सपूत जो कई दशकों से भारत मां के लिए जान-ओ-तन फिदा करते आए हैं और आज भी कर रहे हैं. 


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वहीं, जब कभी भी 1999 के कारगिल संघर्ष की बात उठे, तो कैप्टन मनोज पांडे की तस्वीर आंखों के सामने आ जाती है. कहा जाता है कि मनोज पांडे ने जन्म ही भारत मां के लिए शहीद होने के लिए लिया था. 24 साल का वह जवान जो सेना में परमवीर चक्र लेने के लिए ही भर्ती हुआ था. 


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मां को दिया था घर आने का वादा, तिरंगे में लिपट कर पहुंचे थे मनोज पांडे
साल था 1999, महीना मई और जगह थी कारगिल. उस समय भारत की सरजमीन पर सब खुशहाल था... कि तभी भारत की पहाड़ियों और चोटियों पर अपना कब्जा जमा कर, देश की अस्मिता को तार-तार करने के इरादे से आतंकवादी और पाकिस्तानी सेना हमारे देश में घुस जाते हैं. लेकिन जब तक इंडियन आर्मी सीना तान कर खड़ी है, तब तक किसी के भी नापाक इरादे पूरे कैसे हो सकते हैं? ऐसे में 2 महीने चले संघर्ष में हमारे जवानों ने आतंकियों और पाकिस्तानी सेना को देश से बाहर खदेड़ दिया. लेकिन उस दौरान भारत के 527 बेटे शहीद हुए. शहीदों में ज्यादातर वह थे जिन्होंने अपने जीवन के 30 वर्ष भी न देखे थे.


जन्म से नहीं, लेकिन कर्म से गोरखा थे कैप्टन मनोज
"अगर खुद को साबित करने से पहले मुझे मौत आ गई, तो मैं मौत को ही मार डालूंगा." ये शब्द थे कैप्टन मनोज पांडे के. भारत के पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ कहते थे कि अगर कोई सैनिक यह कहता है कि वह मौत से नहीं डरता, तो या तो वह झूठ बोल रहा है या फिर पक्का गोरखा है. गोरखा नेपाल की पहाड़ी लड़ाका जाति है जिसकी सोच है कि डर कर जीने से अच्छा है मर जाना. भारतीय सेना की गोरखा रेजिमेंट में हर साल नेपाल से 1500 गोरखा सैनिक सेना में शामिल होते हैं. ऐसे ही 1997 में उत्तर प्रदेश का एक 22 साल का लड़का इस रेजिमेंट का हिस्सा बनता है. वह जन्म से तो गोरखा नहीं था, लेकिन सोच और साहस एकदम गोरखा. नाम था मनोज पांडे. 


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मां की कहानियों ने जगाया देश प्रेम
कारगिल युद्ध के दौरान उत्तर प्रदेश के सीतापुर के मनोज पांडे ने अपने जज्बे और बहादुरी के दम पर बटालिक सेक्टर, खालोबार हिल्स और जूबर टॉप से दुश्मनों का खात्मा कर दिया. जब वह बड़े हो रहे थे तो उनकी मां अक्सर उन्हें वीर क्रांतिकारियों की कहानियां सुनाया करती थीं. यहीं से मनोज पांडे के अंदर देश प्रेम ने जन्म लेना शुरू किया. अब उन्होंने ठान लिया कि जिएंगे तो देश के लिए और मरेंगे तो देश के लिए. 


सैनिक स्कूल के स्टार स्टूडेंट थे मनोज पांडे
सैनिक स्कूल में पढ़ाई के दौरान हर चीज में अव्वल रहने वाले मनोज पांडे हमेशा सेना में भर्ती होने का सपना देखते थे. उनके स्कूल में कोई सैन्य अधिकारी आ जाए तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता था. इसीलिए 12वीं पूरी कर उन्हें NDA का एग्जाम क्लियर किया और पुणे में ट्रेनिंग की. इसके बाद उनकी पोस्टिंग हुई 11 गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन में और पोस्टिंग मिली श्रीनगर. इसके बाद वह सियाचिन पर कार्यरत हुए.


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छुट्टियों में घर आने वाले थे मनोज, लेकिन...
1999 में मनोज पांडे ने अपनी मां से वादा किया था कि 25 जून को जन्मदिन पर घर आएंगे. लेकिन मई में दुश्मनों ने देश पर हमला कर दिया. ऐसे में सेना की सबसे आक्रामक रेजिमेंट, गोरखा राइफल्स को जिम्मेदारी सौंपी गई कि बटालिक सेक्टर, खालोबार हिल्स और जूबर टॉप को खाली कराया जाए. कारगिल युद्ध शुरू होने की वजह से मनोज पांडे ने अपनी छुट्टियां रद्द करा दीं. 3 जुलाई को मनोज पांडे को एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी मिली. उन्हें खालोबार हिल्स को दुश्मनों के कब्जे से छुड़ाने को कहा गया और इस मिशन से पहले ही उन्हें लेफ्टिनेंट से कैप्टन बनाया गया. 


अंत तक बचाए रखी पानी की एक घूंट
युद्ध के दौरान भीषण ठंड थी. ऐसी ठंड जो आपका खून जमा सकती है. बताया जाता है कि मनोज पांडे ने अपनी राइफल के 'ब्रीचब्लॉक' को अपने ऊनी मोजे से ढक रखा था, ताकि वह ठंड में जाम न होने पाए. हालांकि, उस समय तापमान 0 से काफी नीचे जाने लगा था, लेकिन सौनिकों की वर्दी पसीने से तरबतर थी, क्योंकि वे सीधी चढ़ाई चढ़ रहे थे. 


युद्ध के मैदान पर जाते समय हर सैनिक के पास एक लीटर की पानी की बोतल थी. लेकिन आधे रास्ते में ही सारा पानी खत्म हो गया था. हां, चारों तरफ बर्फ ही बर्फ थी, लेकिन उसे खाया नहीं जा सकता था क्योंकि बारूद की वजह से वह खराब हो चुकी थी. बताया जाता है कि कौप्टन मनोज पांड अपने सूखे होंठों पर जीभ फिराते रहे, लेकिन पानी की बोतल की तरफ नहीं देखते थे. बोतल में सिर्फ एक घूंट पानी बचा था. मनोवैज्ञानिक कारणों से वह चाहते थे कि पानी की एक घूंट को वह मिशन के अंत तक बचा कर रखें.


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एक रात में ही दुश्मनों को खत्म करने का प्लान
हड्डियां गला देने वाली ठंड में कैप्टन मनोज पांडे अपने कमांडिंग ऑफिसर कर्नल ललित राय और अपनी बटालियन के साथ आधी रात में ही खालोबार हिल्स के लिए बढ़े. 1600 फीट ऊपर दुश्मन ताक लगाए बैठे थे और उन्हें आता देख फायरिंग शुरू कर दी. इसके बाद बटालियन को 2 हिस्सों में बांटा गया. एक का नेतृत्व कर्नल ललित राय कर रहे थे और दूसरे का कैप्टन मनोज पांडे. मनोज पांडे ने सोचा कि सुबह होने से पहले ही दुश्मनों का खात्मा करना जरूरी है. ऐसे में बिना रुके बिना डरे वह अपने सैनिकों के साथ आगे बढ़ते गए और दुश्मनों के बंकरों का को नष्ट करते गए. इस दौरान आतंकी हमले में वह गंभीर रूप से घायल हो गए. उनके कंधे पर गंभीर चोटें भी आईं. ऐसे में सैनिकों ने उन्हें कहा कि अब केवल एक ही बंकर बचा है आप यहीं रुकिए हम उसे खत्म कर के आते हैं. लेकिन मनोज पांडे ने कहा कि हमारे कमांडिंग ऑफिसर ने मुझे ये जिम्मेदारी सौंपी है. मैं पीछे नहीं हटूंगा. 


हेलमेट को चीरते हुए मनोज पांडे के सिर में लगी थी गोली
जब वह आखिरी बंकर की तरफ रेंगते हुए गए, तब तक मनोज पांडे का काफी खून बह चुका था. लेकिन उनकी नजरें अपने टारगेट पर थीं. मनोज पांडे जैसे ही बंकर पर ग्रेनेड फेंकने के लिए खड़े हुए, वैसे ही दुश्मनों की मशीन गन की गोली उनके हेलमेट को पार करती हुई, माथे को चीरकर निकल गई. कैप्टन मनोज वहीं पर गिर पड़े. लेकिन अपनी आंखिरी सांसें और सारी ताकत समेटते हुए उन्होंने अपने साथियों से कहा 'न छोड़ो'. यानि किसी को मत छोड़ना. और फिर मनोज पांडे वीर गति को प्राप्त हो गए. 


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