यूनिफॉर्म सिविल कोड क्या है? जानें इसके लागू होने से क्या फायदा, किस धर्म पर क्या पड़ेगा प्रभाव
What is Uniform Civil Code: आइये जानते हैं कि समान नागरिक संहिता (UCC) क्या है? इसके लागू होने पर लोगों को क्या-क्या फायदे मिलेंगे.
What is Uniform Civil Code and UCC Benefits: उत्तराखंड में जल्द ही समान नागरिक संहिता कानून लागू होने वाला है. आज यूसीसी ड्राफ्ट कमेटी ने सीएम पुष्कर सिंह धामी को अपनी रिपोर्ट सौंप दी है. कई लोगों के मन में यूसीसी को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं. ऐसे में आइये जानते हैं कि समान नागरिक संहिता (UCC) क्या है? इसके लागू होने पर लोगों को क्या-क्या फायदे मिलेंगे.
क्या है समान नागरिक संहिता?
यूनिफॉर्म सिविल कोड का अर्थ है भारत के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक कानून. समान नागरिक संहिता एक सेक्यूलर यानी पंथनिरपेक्ष कानून होता है, जो सभी धर्मों के लोगों के लिये समान रूप से लागू होता है. आसान शब्दों में कहें तो अलग-अलग धर्मों के लिये अलग-अलग कानून का ना होना ही 'समान नागरिक संहिता' की मूल भावना है. यूनिफॉर्म सिविल कोड देश के सभी नागरिकों पर लागू होता है, फिर चाहे वो किसी भी धर्म या क्षेत्र से संबंधित हो. देश के संविधान में भी इसका उल्लेख है. संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता का जिक्र किया गया है.
समान नागरिक संहिता के महत्वपूर्ण तथ्य
ऐसा विधान जो सब पर समान रूप से लागू हो. आर्टिकल 14 के अनुसार हम सब समान हैं. आर्टिकल 15 जाति धर्म भाषा क्षेत्र जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है. आर्टिकल 19 सभी नागरिकों को पूरे देश में कहीं पर भी जाने, रहने, बसने और रोजगार शुरू करने का अधिकार देता है.
समान नागरिक संहिता लागू होने पर क्या हैं फायदे-
1. भारतीय दंड संहिता के तर्ज पर देश के सभी नागरिकों के लिए एक भारतीय नागरिक संहिता लागू होने से देश और समाज को सैकड़ों जटिल, बेकार और पुराने कानूनों से मुक्ति मिलेगी.
2. अलग-2 धर्म के लिए लागू अलग-2 ब्रिटिश कानूनों से सबके मन में हीन भावना व्याप्त है इसलिए सबके लिए एक 'भारतीय नागरिक संहिता' लागू होने से हीन भावना से मुक्ति मिलेगी.
3. ‘एक पति-एक पत्नी’ का नियम सब पर समान रूप से लागू होगा. बांझपन या नपुंसकता जैसे अपवाद का लाभ एक समान रूप से मिलेगा, चाहे वह पुरुष हो या महिला, हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई.
4. विवाह-विच्छेद (तलाक) का एक सामान्य नियम सबके लिए लागू होगा. विशेष परिस्थितियों में मौखिक तरीके से विवाह विच्छेद की अनुमति भी सभी को होगी, चाहे वह पुरुष हो या महिला, हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई.
5. पैतृक संपति में पुत्र-पुत्री तथा बेटा-बहू को एक समान अधिकार प्राप्त होगा चाहे, वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई. संपत्ति को लेकर धर्म, जाति, क्षेत्र और लिंग आधारित विसंगति समाप्त होगी.
6. विवाह-विच्छेद की स्थिति में विवाहोपरांत अर्जित संपत्ति में पति-पत्नी को समान अधिकार होगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई.
7. वसीयत दान धर्मजत्व संरक्षकता बंटवारा गोद के संबंध में सभी पर एक समान कानून लागू होगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई और धर्म जाति क्षेत्र लिंग आधारित विसंगति समाप्त होगी.
8. राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र एवं एकीकृत कानून मिल सकेगा और सभी नागरिकों के लिए समान रूप से लागू होगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई.
9. जाति धर्म क्षेत्र के आधार पर अलग-अलग कानून होने से पैदा होने वाली अलगाववादी मानसिकता समाप्त होगी और एक अखण्ड राष्ट्र के निर्माण की दिशा में हम तेजी से आगे बढ़ सकेंगे.
10.अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग कानून होने के कारण अनावश्यक मुकदमे में उलझना पड़ता है. सबके लिए एक नागरिक संहिता होने से न्यायालय का बहुमूल्य समय बचेगा.
11.भारतीय नागरिक संहिता लागू होने से रूढ़िवाद कट्टरवाद सम्प्रदायवाद क्षेत्रवाद भाषावाद समाप्त होगा, वैज्ञानिक सोच विकसित होगी तथा बेटियों के अधिकारों मे भेदभाव खत्म होगा. सच्चाई तो यह है कि इसका फायदा बेटियों को ज्यादा नहीं मिलेगा क्योंकि हिंदू मैरिज एक्ट में महिला-पुरुष को लगभग समान अधिकार पहले से ही प्राप्त है. इसका सबसे ज्यादा फायदा मुस्लिम बेटियों को मिलेगा क्योंकि शरिया कानून में उन्हें पुरुषों के बराबर नहीं माना जाता है.
समान नागरिक संहिता लागू नहीं होने से क्या-क्या दिक्कतें हैं:
1. मुस्लिम पर्सनल लॉ में बहुविवाह करने की छूट है, लेकिन अन्य धर्मो में 'एक पति-एक पत्नी' का नियम बहुत कड़ाई से लागू है. बांझपन या नपुंसकता जैसा उचित कारण होने पर भी हिंदू, ईसाई, पारसी के लिए दूसरा विवाह अपराध है. IPC की धारा 494 में 7 वर्ष की सजा का प्रावधान है इसीलिए कई लोग दूसरा विवाह करने के लिए मुस्लिम धर्म अपना लेते हैं. भारत जैसे सेक्युलर देश में चार निकाह जायज है, जबकि इस्लामिक देश पाकिस्तान में पहली बीवी की इजाजत के बिना शौहर दूसरा निकाह नहीं कर सकता है. 'एक पति - एक पत्नी' किसी भी प्रकार से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि "सिविल राइट, ह्यूमन राइट और राइट टू डिग्निटी" का मामला है, इसलिए यह जेंडर न्यूट्रल और रिलिजन न्यूट्रल होना चाहिए.
2. विवाह की न्यूनतम उम्र भी सबके लिए समान नहीं है. मुस्लिम लड़कियों की वयस्कता की उम्र निर्धारित नहीं है और माहवारी शुरू होने पर लड़की को निकाह योग्य मान लिया जाता है, इसीलिए 9 वर्ष की उम्र में भी लड़कियों का निकाह किया जाता है. जबकि अन्य धर्मों मे लड़कियों की विवाह की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष और लड़कों की विवाह की न्यूनतम उम्र 21 वर्ष है. विश्व स्वास्थ्य संगठन कई बार कह चुका कि 20 वर्ष से पहले लड़की शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्व नहीं होती हैं और 20 वर्ष से पहले गर्भधारण करना जच्चा-बच्चा दोनों के लिए अत्यधिक हानिकारक है. लड़का हो या लड़की, 20 वर्ष से पहले दोनों ही मानसिक रूप से परिपक्व नहीं होते हैं, 20 वर्ष से पहले तो बच्चे ग्रेजुएशन भी नहीं कर पाते है. 20 वर्ष से पहले बच्चे आर्थिक रूप से भी आत्मनिर्भर नहीं होते है. इसलिए विवाह की न्यूनतम उम्र सबके लिए एक समान 21 वर्ष करना आवश्यक है. 'विवाह की न्यूनतम उम्र' किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह भी जेंडर न्यूट्रल और रिलिजन न्यूट्रल होना चाहिए.
3. तीन तलाक अवैध घोषित होने के बावजूद तलाक-ए-हसन एवं तलाक-ए-अहसन आज भी मान्य है. इसमें भी तलाक का आधार बताने की बाध्यता नहीं है और केवल 3 महीने प्रतीक्षा करना है लेकिन अन्य धर्मों में केवल न्यायालय के माध्यम से ही विवाह-विच्छेद किया जा सकता है. हिंदू, ईसाई, पारसी दंपति आपसी सहमति से भी मौखिक विवाह विच्छेद की सुविधा से वंचित है. मुसलमानों में प्रचलित तलाक का न्यायपालिका के प्रति जवाबदेही नहीं होने के कारण मुस्लिम बेटियों को हमेशा भय के वातावरण में रहना पड़ता है. तुर्की जैसे मुस्लिम बाहुल्य देश में भी किसी तरह का मौखिक तलाक मान्य नहीं है इसलिए तलाक का आधार भी जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए.
4. मुस्लिम कानून में मौखिक वसीयत एवं दान मान्य है लेकिन अन्य धर्मों में केवल पंजीकृत वसीयत एवं दान ही मान्य है. मुस्लिम कानून मे एक-तिहाई से अधिक संपत्ति का वसीयत नहीं किया जा सकता है जबकि अन्य धर्मों में शत प्रतिशत संपत्ति का वसीयत किया जा सकता है. वसीयत और दान किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह भी जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए.
5. मुस्लिम कानून में 'उत्तराधिकार' की व्यवस्था अत्यधिक जटिल है. पैतृक संपत्ति में पुत्र एवं पुत्रियों के मध्य अत्यधिक भेदभाव है, अन्य धर्मों में भी विवाहोपरान्त अर्जित संपत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं और उत्तराधिकार के कानून बहुत जटिल हैं. विवाह के बाद पुत्रियों के पैतृक संपत्ति में अधिकार सुरक्षित रखने की व्यवस्था नहीं है और विवाहोपरान्त अर्जित संपत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं. 'उत्तराधिकार' किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह भी जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए.
6. विवाह विच्छेद (तलाक) का आधार भी सबके लिए एक समान नहीं है. व्याभिचार के आधार पर मुस्लिम अपनी बीवी को तलाक दे सकता है, लेकिन बीवी अपने शौहर को तलाक नहीं दे सकती है. हिंदू, पारसी और ईसाई धर्म में तो व्याभिचार (Adultery) तलाक का ग्राउंड ही नहीं है. कोढ़ जैसी लाइलाज बीमारी के आधार पर हिंदू और ईसाई धर्म में तलाक हो सकता है लेकिन पारसी और मुस्लिम धर्म में नहीं. कम उम्र में विवाह के आधार पर हिंदू धर्म में विवाह विच्छेद हो सकता है लेकिन पारसी, ईसाई, मुस्लिम में यह संभव नहीं है. 'विवाह विच्छेद' किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए.
7. गोद लेने का नियम भी हिंदू, मुस्लिम, पारसी, ईसाई के लिए अलग-अलग है. मुस्लिम महिला गोद नहीं ले सकती है और अन्य धर्मों में भी पुरुष प्रधानता के साथ गोद लेने की व्यवस्था लागू है. 'गोद लेने का अधिकार' किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए.