Shirdi Sai Baba Row: साईं बाबा को लेकर एक बार फिर से सियासत गर्मा गई है. संत फकीर साईं बाबा को कुछ लोग हिंदू मान रहे हैं तो कुछ मुस्लिम. कुछ लोग उन्हें साईं तो कुछ चांद मियां बता रहे हैं. इसी को लेकर विवाद पैदा हो गया है.आइए आपको साईं के जीवन से परिचित कराते हैं. साईं वैसे खुद तो धर्म मजहब को नहीं मानते थे लेकिन बात अब उनके धर्म पर आ गई है.


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भक्त मानते हैं दत्तात्रेय का अवतार
श्री साईं सचरित्र के हवाले से कहा जाता है कि साईं दत्तात्रेय के अवतार थे. साईं बाबा को लेकर एक मान्यता यह है कि वह एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे. उनका जन्म 1838 के आस-पास माना जाता है. बाद में जाकर वह सूफी फकीर हो गए थे.  हालांकि साईं ने अपने से जुड़े इस तरह के सवालों को हमेशा खारिज किया. बताया जाता है कि साईं जब 16 साल के थे तब वह महाराष्ट्र के अहमदनगर के शिरडी गांव पहुंचे थे. उस वक्त उनका स्वरूप एक फकीर जैसा था.


हालांकि साईं कब शिरडी आई इसे लेकर एक राय नहीं है. साईं जब आए तो वह 3 साल शिरडी में रहे. फिर एक साल गायब रहे. हालांकि 1858 से वह लगातार शिरडी में रहे. बताया जाता है कि साईं एक जगह शांत बैठे रहा करते थे. जिसके बाद लोगों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हुआ. शुरू में कुछ गांव वाले उनके पास आते थे. जब कि कुछ गांव के बच्चे उन्हें पागल समझ पत्थर मारा करते थे. 


रानी लक्ष्मीबाई का दिया साथ
जब साईं शिरडी से दूर रहे तो वह फकीरों के संपर्क में आए. कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि वह अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने और रानी लक्ष्मीबाई का साथ देने गए थे. 1858 में साईं जब शिरडी लौटे थे तब उनको साईं के नाम से नवाजा गया था.  साईं का पहनावा फकीरों जैसा था. यही एक वजह भी है कि कुछ लोग साईं को मुस्लिम समझ लेते हैं. वह द्वारकामाई में धुनी जलाए रखते थे. वह इसकी राख को ही भक्तों को प्रसाद के रूप में देते थे. जिससे उनके भक्त ठीक होते थे. वह भक्तों को रामायाण महाभारत और कुरान की सीख देते थे. समय के साथ साईं के चमत्कार मशहूर होने लगे.


कब दुनिया से हुए विदा
1918 के आसपास का समय रहा होगा जब साईं ने अपने भक्तों को बताया कि वे दुनिया से विदा लेंगे. 15 अक्टूबर 1918 को उनका निधन हुआ. बाद में जहां साईं ने अंतिम सांस ली वहां भक्तों ने समाधि बना दी और उसकी पूजा आज भी जारी है.