यूपी के इस शहर की बात निरालीः `कार्पेट सिटी` भदोही में ऐसे शुरू हुआ था कालीन बनाने का कारोबार, दिलचस्प है इतिहास
भदोही जिला उत्कृष्ट डिजाइनों के कालीन निर्माण और निर्यात के लिए विख्यात है. भारतीय कालीन को विश्व विख्यात करने और कालीन उद्योग में एशिया के सबसे बड़े कालीन मेले के जनक हाजी जलील अहमद अंसारी का नाम याद रखा जाएगा. यहां के हाथ से बुने हुए कालीन की पश्चिमी देशों में बहुत डिमांड में हैं. जानें भदोही के इस उद्योग से जुड़ी हर एक दिलचस्प जानकारी...
भदोहीः अगर आप उत्तर प्रदेश के अलग-अलग शहरों से जुड़ी वहां की खासियत और ऐतिहासिक जानकारियों को जानने में दिलचस्पी रखते हैं, तो यह जानकारी आपको जरूर अच्छी लगेगी. यूपी में आज भी ऐसे अनगिनत किस्से दफन हैं, जिनके बारे में शायद आप जानते भी नहीं होंगे. इनमें मुगलकालीन किस्से भी शामिल हैं. ये किस्से उत्तर प्रदेश की ऐतिहासिक धरोहर हैं. यूपी के जिलों की खास बात यह है कि हर जिले की एक अलग विशेषता है, जो सभी जिलों को एक-दूसरे से अलग पहचान देती है.
इसी क्रम में आज हम भदोही के बारे में बात करेंगे. भदोही को कालीन शहर नाम से जाना जाता है. दक्षिण एशिया में हाथ से कालीन बुनाई का सबसे बड़ा केंद्र होने के कारण भदोही 'कारपेट सिटी' के रूप में प्रसिद्ध है. यहां का हस्तनिर्मित कार्पेट अंतर्राष्ट्रीय बड़े बाजारों में बहुत लोकप्रिय हैं. आज जानेंगे भदोही के इस उद्योग से जुड़ी हर एक दिलचस्प बात...
भारतीय कालीन अपने डिजाइनों के लिए जाने जाते हैं
भदोही जिला उत्कृष्ट डिजाइनों के कालीन निर्माण और निर्यात के लिए विख्यात है.भारत में कालीन उद्योग को लाने का श्रेय मुगल बादशाह अकबर को जाता है, उसी तरह भारतीय कालीन को विश्व विख्यात करने और इस उद्योग में एशिया के सबसे बड़े कालीन मेले के जनक हाजी जलील अहमद अंसारी का नाम भी याद रखा जाएगा. अंसारी ने अपनी एक जिद में कालीन मेला लगाने की ठानी थी. यहां के हाथ से बुने हुए कालीन की पश्चिमी देशों में बहुत डिमांड में हैं.
कभी माली हालत खराब होने के चलते किया था यह काम
अंसारी ने बताया कि घर की आर्थिक हालत अच्छी न होने के कारण महज 8 साल की उम्र में वह अपने पिता हाजी बिस्मिल्लाह अंसारी के साथ कालीन बनाने के काम में हाथ बंटाने लगे. जिसके चलते 1945 में छठवीं कक्षा के बाद उनकी पढ़ाई छूट गई. कालीन बुनाई में दक्ष होने के कारण वह कम उम्र में ही एक कंपनी में मैनेजर बना दिए गए थे. इस दौरान 1960 में अखिल भारतीय कालीन निर्माता संघ से उनका नाता जुड़ा. साल 1967 में उन्होंने 'ताजमहल आर्ट्स' के नाम से अपनी कंपनी खोली.
भारत में कालीन मेले के सफर की शुरुआत
इंडिया में कालीन मेले के सफर के बारे में अंसारी ने बताया कि 1980 में दिल्ली के प्रगति मैदान में 10 लोगों को मेला लगाने के लिए बुलाया गया, लेकिन कोई विदेशी खरीददार न होने से बहुत निराशा हुई. इसके बाद हम लोगों ने कालीन मेला लगाने का संकल्प लिया और 20 लोगों ने अपना पैसा लगाकर ऑल इंडिया कारपेट ट्रेड फेयर कमेटी बनाई.
इसके बाद 15 लोगों ने देश के अलग-अलग शहरों में सर्वे किया. जिसके बाद दिल्ली के ताज होटल में मेला लगाने का फैसला किया गया. हालांकि, कई देशों को आमंत्रित किए जाने के बावजूद जवाब निराशाजनक ही रहा. 2 साल बाद होटल डी पेरिस के लॉन में मेला लगने लगा और धीरे-धीरे विदेशी खरीददार भी आने लगे.
मेले की लोकप्रियता बढ़ने से अखिल भारतीय कालीन निर्माता संघ के निवेदन पर केंद्र सरकार के कपड़ा मंत्री ने कालीन निर्यात को बढ़ावा देने की की पहल की. इस तरह दिल्ली के प्रगति मैदान में बड़े पैमाने पर मेला लगने लगा. अंसारी बताते हैं, नब्बे के दशक में मेला खासा लोकप्रिय हो गया फिर भदोही में मेला लगाने का विचार आया. भारत का कालीन निर्यात साल 1960 में 436 करोड़ रुपये था जो 2020 में 10 हजार करोड़ रुपये का आंकड़ा पार कर चुका है.
डिमांड में हैं भदोही और मिर्जापुर के कालीन
भदोही, मिर्ज़ापुर, पानीपत, जम्मू कश्मीर, राजस्थान समेत कई शहरों से कालीन का निर्यात किया जाता है, लेकिन पूरे देश में कालीन निर्माण और निर्यात के सबसे बड़े क्षेत्र भदोही और मिर्जापुर हैं. कालीन उद्योग से सबसे ज्यादा निर्यात यूएसए में किया जाता है. कालीन के निर्यात में लगातार तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है जिसकी सबसे बड़ी वजह यहां के कार्पेट की अच्छी क्वालिटी और यूनिक डिजाइन है. कई कालीन निर्माता देशों से हमारे देश के कालीन उद्योग की टक्कर होती है, लेकिन उसके बाद भी विदेशी मार्केट में भारतीय कार्पेट्स का दबदबा बरकरार है.
भारत में कालीन की कला का सफर
कालीन बुनाई की कला को भारत में लाने करने का श्रेय मुगल बादशाह अकबर को दिया जाता है. मुगल बादशाहों ने अपने शाही दरबारों और महलों के लिए फारसी कालीनों को संरक्षण दिया. उन्होंने अपनी मातृभूमि से फारसी कारीगरों को लाया और उन्हें भारत में स्थापित किया. मुगल कालीन महीन गांठ की क्लासिक फारसी शैली धीरे-धीरे भारतीय कला के साथ मिश्रित हो गई. मुगलों के संरक्षण में, भारतीय शिल्पकारों ने फारसी तकनीकों और डिजाइनों को अपनाया.
पंजाब में बुने गए कालीनों में मुगल वास्तुकला में पाई जाने वाली सजावटी शैलियों का इस्तेमाल किया गया था. इस तरह उत्पादित कालीन भारतीय मूल के विशिष्ट बन गए और उद्योग पूरे उपमहाद्वीप में फैल गया. मुगल काल में ये कालीन इतने प्रसिद्ध हुए कि उनकी मांग विदेशों में होने लगी. भारत में कालीन उद्योग कश्मीर, जयपुर, आगरा और भदोही जिले के साथ इसके उत्तरी भाग में ज्यादा फला-फूला.
ऐसे हुई भदोही में कालीन बनने की शुरुआत
भदोही का कालीन किस्सा मुगल काल से जुड़ा हुआ है. आइना-ए-अकबरी में इसका लिखित प्रमाण मिलता है. आइना-ए-अकबरी अबुल फजल द्वारा रचित 'अकबरनामा' का ही एक भाग है, जो 16वीं सदी के दौरान लिखी गई थी. इसमें अकबरी युग के जीवन, समाज, राज्य व्यवस्था, संस्कृति आदि के बारे में बहुत सी जानकारी मिलती है. कहा जाता है, बादशाह अकबर अपनी फौज के साथ इस रास्ते से निकल रहे थे. इस दौरान उनकी फौज के कुछ लोग पीछे छूट गए, जिन्होंने भदोही के आस-पास अपना डेरा डाल लिया. इन लोगों ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर कालीन बनाना शुरू किया.
ऐसे तैयार किया जाता है कालीन
कालीन का निर्माण करने में 4 चरण होते हैं. सबसे पहले सुंदर और आकर्षक डिजाइन तैयार की जाती है. डिजाइन को कागज की चादर पर तैयार किया जाता है, जिसे बुनकर कालीन पर उकेरते हैं. फिर उनकी रंगाई का काम होता है. ये काम कुशल शिल्पकार करते हैं. रंगाई के बाद इसे 40 डिग्री तापमान में सुखाया जाता है. इसके बाद शुरू होती है बुनाई की प्रक्रिया. इसके बाद तैयार हुई कालीन की धुलाई होती है. जिसके कारण कपास और ऊन की सफाई होती है.
भदोही में है देश का सबसे बड़ा कालीन बाजार
बुनकरों की कुशल कारीगरी के कारण पूरे विश्व में भदोही की हस्तनिर्मित कालीनों की एक अलग पहचान है. आज जहां चाईना, टर्की, इरान और पाकिस्तान से हस्तनिर्मित कालीनों का उद्यम सिमट रहा है, तो अपनी कला और परंपरा के कारण भारत में यह उद्योग उंचाइयों पर पहुंच रहा है.
इससे लाखों लोगों को रोजगार मिल रहा है. विश्व में मशहूर यूपी की कालीन नगरी भदोही में देश का सबसे बड़ा कालीन बाजार खुल गया है. अब यहां लोगों को विश्व की सबसे महंगी पर्शियन कार्पेट से लेकर हस्तनिर्मित रंग-बिरंगी कालीन आसानी से मिल सकेगी.
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