फिरोजाबादः अगर आप उत्तर प्रदेश के अलग-अलग शहरों से जुड़ी वहां की खासियत और ऐतिहासिक जानकारियों को जानने में दिलचस्पी रखते हैं, तो यह जानकारी आपको जरूर अच्छी लगेगी. यूपी में आज भी ऐसे अनगिनत किस्से दफन हैं, जिनके बारे में शायद आप जानते भी नहीं होंगे. इनमें मुगलकालीन किस्से भी शामिल हैं. ये किस्से उत्तर प्रदेश की ऐतिहासिक धरोहर हैं. यूपी के जिलों की खास बात यह है कि हर जिले की एक अलग विशेषता है, जो सभी जिलों को एक-दूसरे से अलग पहचान देती है.


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इसी क्रम में आज हम फिरोजाबाद (Firozabad) के बारे में बात करेंगे. फिरोजाबाद, रंग-बिरंगी चूड़ियों के लिए जाना जाता है. यहां चूड़ी बनाना एक घरेलू व्यवसाय है, फिरोजाबाद कांच के कारखाने पीढ़ियों से पारंपरिक तरीकों से चलाए जा रहे हैं. यहां कि गलियों में घूमते हुए अपने हर तरफ इन रंग-बिरंगी खूबसूरत चूड़ियों को देख आपका मन भी रंगीन हो जाएगा. आज जानेंगे फिरोजाबाद के इस पारंपरिक व्यवसाय से जुड़ी हर एक दिलचस्प बात और इस शहर का इतिहास...


'सुहाग की नगरी' से है मशहूर फिरोजाबाद
यह शहर चूड़ियों के निर्माण के लिए विश्व विख्यात है. इसी वजह से इसे 'सुहाग की नगरी' भी कहा जाता है. फिरोजाबाद, आगरा से यानी कि विश्व के सातवें अजूबे ताजमहल की संगमरमरी चमक से महज 40 किलोमीटर दूर है. वहीं, देश की राजधानी दिल्ली से लगभग 250 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. यहां भारत की सबसे ज्यादा कांच की चूड़ियां, सजावट की कांच की चीजें, वैज्ञानिक उपकरण, बल्ब आदि बनाए जाते हैं. महिलाओं समेत शहर के अधिकांश लोग कांच के किसी न किसी सामान के निर्माण से जुड़े उद्यम में लगे हैं.


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ऐसे तैयार की जाती हैं यहां रंग-बिरंगी चूड़ियां
सबसे पहले रेत, सिलिका सेंड, सोडा एश और कैल्साइट का मिश्रण तैयार कर फर्नेश भट्टियों के पॉट में भरने के बाद यदि चूड़ियों के रंग के अनुसार कैडियम सल्फाइड व सिलेनियम (लाल रंग), कोबाल्ट (नीला रंग), कॉपर ऑक्साइड व कसीस (हरा व फिरोजी रंग), कैडियम (पीला रंग), मैग्नीश ऑक्साइड (काला रंग) और रेशम की चूड़ियों के लिए पोटेशियम सायनाइट आदि केमिकल इसी घोल में मिलाया जाता है.


1300 से 1500 डिग्री भट्टी के तापमान पर घोल पिघलकर कांच बन जाता है. इसके बाद चूड़ी बनाने की प्रक्रिया शुरू होती है. लोहे की रॉड में भट्टे से पिघला हुआ कांच निकाला जाता है और वहां से सिकाई भट्टी पर आता है. यहां कांच के टुकड़े को आकृति और आकार देकर गर्म कांच को ठंडा किया जाता है.


कई बार होदराई जाती है यह प्रक्रिया
मजदूर फिर से उसी कांच पर भट्टी से नया कांच लेता है. कांच पर कांच चढ़ाने की यह प्रक्रिया 3 से 4 बार दोहराई जाती है. यहां रंगीन कांच को गलाने के बाद उसे खींचकर तार के समान बनाया जाता है और एक बेलनाकार ढांचे पर लपेटा जाता है. तैयार मटेरियल को काट कर खुले सिरों वाली चूड़ियां तैयार की जाती हैं. चूड़ी एक गोल लंबे लच्छे के रूप में तैयार हो जाती है. इस गोल लंबे लच्छे को बेलन से उठाकर दूसरे ठिकाने पर रख दिया जाता है, जहां पर श्रमिक इसे हीरे के टुकड़े से काटकर चूड़ियों को अलग-अलग करते हैं. 


कई प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद बनती है रंग-बिरंगी चूड़ियां
अब इन खुले सिरों वाली चूड़ियों के सिरे जोड़े जाते हैं और चूड़ियों को एकरूप किया जाता है, ताकि जुड़े सिरों पर कांच का कोई टुकड़ा निकला न रह जाए. यह एक धीमी प्रक्रिया है, जिसमें कांच को गर्म और ठंडा करना पड़ता है. कई प्रक्रियाओं व हाथों से गुजरने के बाद कांच की फैंसी चूड़ियां यहां के कारखानों में तैयार की जाती हैं. चूड़ी उद्योग से यहां घरेलू महिलाएं और बच्चे भी जुड़े हुए हैं, जो अपने घर से ही जुड़ाई, झलाई, पैकिंग आदि का काम करते हैं.


बेहद ही दिलचस्प है चूड़ी निर्माण का इतिहास
साल 1962 में प्रकाशित साहित्यरत्न गणेश शर्मा (प्राणेश) द्वारा लिखी पुस्तक 'फिरोज़ाबाद परिचय' के अनुसार, यहां कांच बनाने की शुरुआत चंद्रवाड़ के राजाओं और आगरा के मुगल शासकों की राजधानी बनने से लगभग 250 से 300 साल पहले मानी गई है. गांव उरमुरा और रपड़ी में आसानी से रेता और सींग उपलब्ध हो जाता था, इसलिए फिरोजाबाद के लोग अपने मकान के नजदीक ही छोटी भट्टी तैयार कर कांच की चूड़ियां बनाया करते थे. ये चूड़ियां बहुत ही भद्दी और रंग विहीन होती थी. 


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विदेशों से मंगाया गया रंगीन कांच
समय बीतते के साथ ही कुछ लोगों ने ऑस्ट्रेलिया, जापान से रंग बिरंगी और चमकीले विदेशी कांच के टुकड़ों को मंगाना शुरू कर दिया. यहां के लोग निमकदानी और अंग्रेजी में ब्रोकिन ग्लास कहते थे. कारीगर इन्हीं से चूड़ियां बनाने लगें. यह माल बंबई और कलकत्ता से होकर आता था. इस कारण महंगा पड़ता था और इसे लाने में भी बहुत दिक्कत होती थीं, इसलिए कुछ लोगों ने देहरादून की कांच फैक्ट्रियों से कांच मंगवाया, लेकिन कालांतर में वह कारखाना भी बंद हो गया.


1910 में स्थापित हुआ पहला कारखाना 'द इंडियन ग्लास वर्क्स'
देहरादून में बंद हो चुकी कांच फैक्ट्री से जर्मनी के एक विशेषज्ञ फिरोजाबाद आए और साल 1910 में यहां का पहला कारखाना 'द इंडियन ग्लास वर्क्स' स्थापित हुआ. जानकारी के मुताबिक, इसके पीछे शहर के सेठ नंदराम के अथक प्रयास बताए जाते हैं. इस कारखाना भट्टी में कोयले की गैस से सिर्फ कांच ही पकाया और ब्लॉक ग्लास बनाया जाता था. 'द इंडियन ग्लास वर्क्स'  की स्थापना के साथ ही फिरोजाबाद में कांच बनाने की नींव पड़ी. इसके बाद यहां से अन्य जगहों पर भी कांच जाने लगा. इस समय तक बनने वाली चूड़ियां सिर्फ लाल, पीले, नीले रंग की भद्दी, मोटी और भारी हुआ करती थी.


हाज़ी रुस्तम उस्ताद ने डाली आधुनिक कारखाने की नींव
सबसे पहले 1920 में आधुनिक कारखाने की नींव हाज़ी रुस्तम उस्ताद ने डाली थी. हाज़ी कल्लू उस्ताद, कादिर बक्स और उस्ताद भूरे खां की मेहनत, उत्साह, लगन से फिरोजाबाद में भी सुंदर चूड़ियों का निर्माण होने लगा. अशिक्षित होने के बावजूद भी ये चारों कैमिकल का काम करने और रंग बनाने में माहिर थे. इन्हीं लोगों ने लकड़ी के बेलन का प्रयोग कर चूड़ियां बनाना शुरू किया, इनकी मेहनत रंग लाई.


इस तरह यहां चूड़ी कारीगरों की मेहनत, कुशलता और सरकार की व्यापार सुरक्षा नीति के चलते पूरे भारत में कांच की चूड़ियों की खूब खपत होने लगी. आगरा जिले की औद्योगिक जांच रिपोर्ट साल 1924 के मुताबिक, यहां का कांच उद्योग लगभग 12 हजार लोगों को रोज़गार देता था. रिपोर्ट के मुताबिक, आधुनिक तकनीक के कारखानों के खुलने से यहां कुटीर उद्योग-धंधे की आधार पद्धति नष्ट हो गई. यहां ब्लॉक ग्लास के 7 कारखाने हैं, जिनमें से 6 चालू हैं बाकी बंद हो गए.


हिन्दू धर्म में 'सुहाग का प्रतीक' है चूड़ियां
'सुहागनगरी' से ना सिर्फ प्रदेश में बल्कि पूरे देश में चूड़ियों का कारोबार होता है. परंपरागत कांच की चूड़ियों में समय के साथ कई नए प्रयोग किए जा रहे हैं, ताकि महिलाओं की कलाईयां और सुंदर लग सकें. चूड़ियां एक पारंपरिक गहना हैं. इसकी खनक से घर में खुशहाली आती है और वास्तुदोष भी दूर होता है. वहीं, हिन्दू धर्म में चूड़ियों को सुहाग का प्रतीक माना गया है. चमक-दमक और रंगीन होने के कारण चूड़ियों का महिलाओं के साज श्रृंगार में एक महत्वपूर्ण स्थान है. भारत और दक्षिण एशिया की महिलाएं कांच, प्लास्टिक, पीतल, लाख, हाथी दांत आदि कई प्रकार की चूड़ियां पहनती हैं. 


जानें फिरोजाबाद का ऐतिहासिक परिदृश्य
प्राचीन भारत में फिरोजाबाद का नाम 'चंदवार नगर' था. शहर को यह नाम सन् 1566 में मंसबदार फिरोजशाह द्वारा अकबर के शासन काल में दिया गया था. कहा जाता है कि राजा टोडरमल यहां से होकर गुजर रहे थे, तब उन्हें लुटेरों ने लूट लिया था. उनके अनुरोध पर, बादशाह अकबर ने अपने मंसबदार फिरोज शाह को यहां भेजा. वह दातूजी, रसूलपुर, मोहम्मदपुर, गजमलपुर, सुखमलपुर, निजामाबाद, प्रेमपुर रायपुरा से होते हुए यहां आए थे. जिसके प्रमाण के तौर पर फिरोज शाह का मकबरा और कटरा पठान के खंडहर मिलते हैं.


सन् 1662 में अंग्रेजों के शासन काल के दौरान मिस्टर पीटर जो ईस्ट इंडिया कंपनी से संबद्ध थे, वो भी यहां आए थे. जिसके लिखित प्रमाण 'गैजेट ऑफ आगरा एंड मथुरा' में मिलते हैं. शाहजहां के शासन में नवाब सादुल्ला को फिरोजाबाद जागीर के तौर पर दिया गया था. वहीं, दूसरी ओर यहां बादशाह जहांगीर ने 1605 से 1627 तक शासन किया. मुगलों के बाद जाटों ने भी यहां 30 साल तक शासन किया. 18वीं शताब्दी के अंत में यहां मराठों के सहयोग से हिम्मत बहादुर गोसाईं ने शासन किया.


ब्रिटिश शासन काल में इटावा जिले का हिस्सा था फिरोजाबाद  
इसके बाद यहां मिर्जा नवाब साहब लगभग 1782 तक रुकें. मराठों के फ्रेंच चीफ ने यहां 1794 में आर्डिनेंस फैक्ट्री लगाई थी. थॉमस ट्रविंग भी यहां पर घूमने आएं, जिसका जिक्र उन्होंने अपनी बुक 'ट्रेवल्स इन इंडिया' में किया. मराठों के तत्कालीन सूबेदार लकवाडो ने भी यहां एक किले का निर्माण कराया, जिसे वर्तमान की पुराने तहसील गेरई के नाम से जाना जाता है.


जनरल लेक और जनरल वेलाजल्ली ने 1802 में फिरोजाबाद पर आक्रमण किया था. ब्रिटिश शासन काल में फिरोजाबाद, इटावा जिले का हिस्सा था. महात्मा गांधी, सेमंत गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने भी 1900-1940 के बीच फिरोजाबाद का दौरा किया था. 


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