Azadi Ka Amrit Mahotsav: मुरादाबाद के इस क्रांतिकारी के आधे हाथ के हौसले के आगे पस्त थी ब्रिटिश हुकूमत, कलम से थर्राते थे अंग्रेज
Unsung Hero Sufi Amba Prasad: सूफी अंबा प्रसाद ने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेजी सरकार की बुनियाद को बुरी तरह से हिला दिया था. हिंदू-मुस्लिम एकता के समर्थक सूफी जी ब्रिटिश सरकार के लिए सिरदर्द बन गए थे. जिसके चलते कई बार उन्हें जेल में भी डाला गया. उन्हें यातनाएं दी गईं.
आकाश शर्मा/मुरादाबाद: भारत की आजादी के 75 वर्ष (Independence Day 2022) पूरे होने पर देश भर में आजादी का अमृत महोत्सव (Azadi ka Amrit Mahotsav) मनाया जा रहा है. हर ओर जश्न-ए-आजादी की बयार बह रही है. इस मौके पर देश को आजाद कराने वाले स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान को भी याद किया जा रहा है. देश को आजाद कराने वाले लाखों अमर शहीदों में एक नाम मुरादाबाद के जन्मे अमर शहीद सूफी अंबा प्रसाद (Sufi Amba Prasad) का भी है. सूफी अंबा प्रसाद एक ऐसे कलम के सिपाही थे, जिन्होंने सबसे पहले अखबार में अंग्रेजों के खिलाफ लिखकर आजादी की आग को हवा देने का काम किया था. उन्होंने अपनी कलम की ताकत से गोरों की सरकार को थर्रा दिया था.
सूफी अंबा प्रसाद ने अंग्रेजी सरकार की बुनियाद को बुरी तरह से हिला दिया था. इतिहासकारों की मानें तो जन्म से ही सूफी अंबा प्रसाद का दाहिना हाथ सिर्फ आधा था, लेकिन देश भक्ति का जज्बा सिर पर हो तो कोई कहां रुक सकता है. उनका आधा हाथ आजादी के हौसले के लिए काफी था. सूफी अंबा प्रसाद अपने दाहिने पैर और बांये हाथ के सहारे लिखते थे. वह लेख अंग्रेजों के लिए सरदर्द था, क्योंकि अखबार की कॉपी आजादी की लौ को भड़का रही थी.
तीन महीने की हुई थी सजा
मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ. अजय अनुपम बताते हैं कि सूफी अंबा प्रसाद ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह को तेज करने के लिये मुरादाबाद के कानून गोयान से 1889 में सुदर्शन प्रेस नाम का छापाखाना खोला था. जहां से उन्होंने अपना पहला अखबार सितारा-ए-हिन्द निकाला. जिसमें उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के विरोध में लेख लिखे. जिससे घबराई गोरों की सरकार ने अखबार की सारी प्रतियां जब्त कर लीं. उनपर जुर्माना भी लगाया. लेकिन इससे वह बिल्कुल भी नहीं घबराये.
उन्होंने एक बार फिर 1890 में दूसरा अखबार जाम-ए-उल-उलूम शुरू किया. उसमें भी अंग्रेजी सरकार के खिलाफ विरोधी लेख लिखना जारी रखा. जिससे नाराज तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर सिराजुद्दीन ने उन्हें तीन महीने की सजा सुनाई थी. जेल से सजा काट कर आने के बाद सूफी अंबा प्रसाद ने अंग्रेजी सरकार की दमन नीतियों से परेशान होकर मुरादाबाद छोड़ दिया.
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कलकत्ता पहुंच छेड़ा देश की आजादी का सुर
मुरादाबाद छोड़ सूफी जी कलकत्ता चले गये. वहां उन्होंने अमृत बाजार पत्रिका को चलाया और सरकार विरोधी लेख लिखे. जिसके बाद सन 1905 में वह पंजाब चले गये और हिन्दुस्तान अखबार में काम किया. यहां भी उन्होंने अपनी कलम से आजादी के सुर ऊंचे रखे. जिससे नाराज अंग्रेज सरकार ने उनकी सारी सम्पति को जब्त कर लिया. इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और 1908 में बागी मसीहा पुस्तक लिखी. जो सरकार द्वारा जब्त कर ली गई. इसके बाद भी आजादी के नायक कलम के सिपाही ने 1909 में अंग्रेजो के खिलाफ पंजाब से पेशवा अखबार निकाला, जो अंग्रेजों ने चलने नहीं दिया.
हैदराबाद के निजाम ने दिया था अखबार निकालने का निमंत्रण
इतिहासकारों की माने तो जब अंग्रेजों ने सूफी जी को सजा देने की ठान ली थी, उनके अखबारों को चलने नहीं दे रहे थे. इस पर हैदराबाद के निजाम ने उन्हें निमंत्रण दिया था. वह भी अंग्रेजो के खिलाफ थे. निजाम ने कहा था कि आप हैदराबाद आइए. आपका सारा खर्च मैं उठाऊंगा, आप यहां से अखबार निकालिए.
सरदार भगत सिंह के चाचा थे करीबी
इतिहासकारों का कहना है कि सूफी जी के संपर्क में भारत माता सोसाइटी बनाने वाले सरदार भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह थे. वो उनके करीबियों में शामिल थे. जब सूफी जी को देश में अंग्रेजों ने परेशान कर दिया, तो वो उन्हीं लोगो के साथ नेपाल चले गए थे. ताकि सरकारी जुल्म से बचा जा सके.अंग्रेजों को उनकी तलाश हमेशा रहती थी क्योंकि सूफी जी से पहले किसी ने भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लिखने की हिम्मत नहीं जुटाई थी.
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अंबा प्रसाद ने ही रिसीव की थी शहीद अशफाक उल्ला खां की बॉडी
वहीं सूफी अंबा प्रसाद के संबंध में जानकारी देते हुए सूफी इस्लामिक बोर्ड के प्रवक्ता कशिश वारसी ने भी अद्भुत जानकारी साझा की. उन्होंने बताया कि जंग-ए-आजादी में सूफियों का अहम रोल रहा है. उनके बारे में बताते हुए मुझे गर्व हो रहा है क्योंकि हम उनके शहर से हैं. सूफी जी के बारे में एक विशेष बात साझा करते हुए उन्होंने बताया कि जब अशफाक उल्लाह खां को फांसी हुई, तो लखनऊ चार बाग रेलवे स्टेशन पर उनकी बॉडी को रिसीव करने वाले सूफी अंबा प्रसाद ही थे.
खास बात ये थी कि उस जमाने के प्रसिद्ध अखबार (टाइम्स ऑफ इंडिया) के कैमरा मैन को अपने साथ लेकर गए थे. उससे कहा था कि यह किसी छोटे आदमी का नहीं बल्कि एक बड़े आदमी का जनाजा है. इसलिए इसका फोटो भी बड़ा आदमी ही लेगा. इस तरह से सूफी अंबा प्रसाद ने अशफाक उल्ला खां को अपनी श्रद्धांजलि दी थी. कशिश वारसी ने बताया कि सूफी जी किसी ताकत से नहीं डरते थे. अपने देश की आजादी के लिए उनको जो लिखना होता था वो लिखते थे.
आखिरी दौर में चले गए थे ईरान
जीवन के आखिरी दौर में वह ईरान चले गये और ईरान में उन्होंने आबेहयात अखबार निकाला. सरकार के खिलाफ लिखना जारी रखते हुये 21 जनवरी 1917 को उन्होंने ईरान में अपने प्राण त्याग दिये.
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