Mughal Kebab Controversy Varanasi: अब खाना भी हिंदू और मुसलमान हो गया है. अभी तक लोग शाकाहारी और मांसाहारी में बंटे थे, लेकिन अब मुगलई बनाम बनारसी की बहस छिड़ गई है और इसकी शुरूआत वाराणसी से ही हुई है. दरअसल, कबाब को लेकर एक हैरान करने वाली रिसर्च सामने आई है. वाराणसी के रहने वाले वर्तुल सिंह ने अपनी किताब में कबाब को लेकर एक ऐसा दावा कर दिया है, जिसे लेकर बहस शुरु हो गई है. 


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कबाब कौन लाया, किसने बनाया!


पहले रसगुल्ला फिर बटर चिकन और अब कबाब पर जंग छिड़ गई है. नॉनवेज के शौकिनों को तो कबाब का नाम सुनते ही मुंह में पानी आने लगता है. जुबान चटखारे लेने लगती है. कबाब के शौकिन ना मजहब जानते हैं ना कोई दीवार जानते हैं उन्हें तो बस अच्छा जायका चाहिए. जहां बेहतरीन कबाब की खुशबू आई. उधर ही लपक लिये, लेकिन अब एक हैरान करने वाली रिसर्च सामने आई है. वाराणसी के रहने वाले वर्तुल सिंह ने अपनी किताब (A Journey in to the heart of the city) में दावा किया है कि कबाब मुगलई नहीं है. बल्कि विशुद्ध बनारसी है. वर्तुल का दावा है कि कबाब की पैदाइश वाराणसी में 12वीं सदी से ही हो गई थी. जबकि मुगल इसके 300 साल बाद भारत आए. किताब में दावा  किया गया है कि बनारसी में डिश का नाम 'सलाई मसू ग्रिहा' था. जिसे सीख पर मांस चढ़ाकर बनाया जाता था और ये काफी पहले से बनारस में लोकप्रिय थी. हालांकि कबाब भारत कैसे पहुंचा इस पर अलग-अलग कहानियां हैं.


जितने कबाब, उतनी कहानियां


कुछ जानकार कहते हैं कि ये तुर्की की डीश है जो अफगानों के जरिए भारत पहुंची. जायके के कुछ जानकार ये भी मानते हैं कि कबाब एक फारसी शब्द है. इसका मतलब तलना या भूनना और ये फारस से निकला है. ये उज्बेकिस्तान के समरकंद से भारत पहुंचा है. कबाब के बारे में एक कहानी ये भी है कि इसकी पैदाइश उन इलाकों में हुई जहां जंग हुई और जहां खानाबदोश लोग रहते थे. वो अपनी सुविधा के हिसाब से गोश्त को भूनकर खाते थे. जिसे कबाब नाम दिया गया. कई इतिहासकार ये भी दावा करते हैं कि मुगल अपने साथ ईरानी खानसामे को भारत लेकर आए थे. जिन्होंने कबाब नाम का लजीज डीश परोसी. एक कहानी ये भी है कि 17वीं सदी में औरंगजेब ने गोलकुंडा का किला फतह किया था. इस दौरान उसके सैनिकों ने खाने के लिए नई डीश का ईजाद किया. जिसे कबाब नाम दिया गया. जितने कबाब हैं उतनी कहानियां भी हैं, लेकिन कबाब की नई रिसर्च ने मुगलई बनाम बनारसी की नई बहस छेड़ दी है.


वाराणसी की एक खासियत


वाराणसी की एक खासियत है, जो आज भी बरकरार है कि अगर आप कोई खास मिठाई या नाश्ता खाना चाहते हैं जो सिर्फ सर्दियों में ही मिलता है, तो वह आपको गर्मियों में कभी नहीं मिलेगा. आज भी, जब हर चीज साल भर जमी हुई और संरक्षित मिलती है, बनारसी व्यंजन मौसमी सामग्री से कभी समझौता नहीं करते. यहां तक कि आम घरों में भी मौसमी व्यंजन बनते हैं. बनारसी मिठाई बनाने वालों को कारीगर कहा जाता है, जो दर्शाता है कि उन्हें कितना सम्मान दिया जाता है. अन्यथा, आमतौर पर इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द हलवाई है.