जब भारतीय सेना ने लाहौर में फहरा दिया तिरंगा, ट्रक ड्राइवर ने पाक सेना के छुड़ा दिए थे छक्के
Time Machine on Zee News: भारत-पाकिस्तान युद्ध में द्वितीय विश्वयुद्ध के अनुभवी मेजर जनरल प्रसाद के नेतृत्व मे भारतीय फौज `इच्छोगिल` नहर को पार कर पाकिस्तान में घुस गई थी.
Zee News Time Machine: ज़ी न्यूज के खास शो टाइम मशीन में आज सोमवार को हम आपको बताएंगे साल 1965 के वीरता के किस्सों के बारे में जिसके बारे में आप शायद ही जानते होंगे. ये वही साल था जब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व में भारतीय सेना ने पाकिस्तान की धरती पर जाकर तिरंगा लहराया था. यही वो साल था जब एक मंदिर को देख पाकिस्तानियों को उल्टे पैर भागना पड़ा था. इसी साल पूरे देश ने हफ्ते में एक दिन का उपवास रखा था. आइये आपको बताते हैं साल 1965 की 10 अनसुनी अनकही कहानियों के बारे में.
लाहौर में लहराया तिरंगा
भारत-पाकिस्तान युद्ध में द्वितीय विश्वयुद्ध के अनुभवी मेजर जनरल प्रसाद के नेतृत्व मे भारतीय फौज 'इच्छोगिल' नहर को पार कर पाकिस्तान में घुस गई थी. ये नहर भारत-पाक की वास्तविक सीमा थी. भारत के पश्चिमी कमान के सेना प्रमुख ने तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल चौधरी को भारत-पाक पंजाब सीमा पर एक नया फ्रंट खोलने का प्रस्ताव दिया. जिसे सेनाध्यक्ष ने तुरंत खारिज कर दिया था. तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को यह बात जम गई. उन्होंने सेनाध्यक्ष के फैसले को काटते हुए इस हमले का आदेश दे दिया. जिसके बाद तेजी से आक्रमण करती हुई भारतीय थल सेना लाहौर की ओर आगे बढ़ने लगी, उसने लाहौर हवाई अड्डे समेत शहर के कई इलाकों पर कब्जा करते हुए तिरंगा लहरा दिया था. पाकिस्तान के लाहौर पर भारत के कब्जे की जानकारी जब अमेरिका को मिली तो वह दंग रह गया था. उसने भारतीय सेना से कुछ समय के लिए युद्ध विराम की अपील की ताकि वह अपने नागरिकों को लाहौर से निकाल सके. भारत ने अमेरिका की बात मान ली थी. जिसके बाद अमेरिका ने अपने नागरिकों को सुरक्षित निकालने का काम शुरू कर दिया था.
भारत की पहली सर्जिकल स्ट्राइक
1965 में पाकिस्तान की तरफ से लगातार हो रहे हमलों को देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने कहा था कि यदि आवश्यक हुआ तो भारत हमलावरों के ठिकानों पर भी हमला कर सकता है. यह लड़ाई लंबे समय तक चल सकती है. अगर घुसपैठ जारी रही तो हमें लड़ाई को दूसरी तरफ ले जाना होगा. तत्कालीन प्रधानमंत्री के इस बयान के बाद भारतीय सेना के हौसले बुंलद हो गए. भारतीय सेना का लक्ष्य उस चोटी पर कब्जा करना था, जहां से पाकिस्तान लगातार घुसपैठ कर रहा था. इसी बात को ध्यान में रखते हुए Indo Pakistan War 1965 से ठीक पहले भारत सेना ने पहली बार सीजफायर लाइन को पार कर पाकिस्तान पर सैन्य कार्रवाई की थी. पाक अधिकृत कश्मीर में मौजूद हाजी पीर दर्रे के पूरे इलाके को भारतीय सेना ने अपने कब्जे में ले लिया था. पाकिस्तान हाजी पीर दर्रे का इस्तेमाल लांच पैड के रूप में करता था. मेजर RS दयाल के नेतृत्व में 1-पैरा की टुकड़ियों ने पाकिस्तानी को सबक सिखाते हुए इस जगह पर तिरंगा फहराया था.
खुद के टैंकर को आग लगाकर भागे पाकिस्तानी
1965 की लड़ाई में भले ही पाकिस्तान के पास अत्याधुनिक तकनीक से लैस हथियार और टैंक थे लेकिन भारत के सिर्फ दो सैनिकों के खौफ से पाकिस्तानी सैनिकों को,अपने टैंकरों को खुद आग लगाकर भागना पड़ गया था. 10 सितंबर 1965 को अपने ताबड़तोड़ हमलों से पाकिस्तान के टैंको को ध्वस्त करने वाले भारत के शूरवीर अब्दुल हमीद युद्ध क्षेत्र में शहीद हो गये. हमीद की शहादत के बाद भारतीय सेना में निराशा फैल गयी और पाकिस्तान की सेना का मनोबल कुछ ज्यादा ही बढ़ गया जिसके बाद वो अमृतसर की तरफ बढ़ने लगी. लेकिन अमृतसर की तरफ बढ़ रही पाक की सेना को रोकने के लिये भारत के दो सैनिक घात लगाकर बैठे थे. जिनका नाम था मोहम्मद शफीक और मोहम्मद नौशाद. ये दोनों सेना की 4 ग्रेनेडियर्स विंग के जवान थे, जिगरी दोस्त शफीक और नौशाद दोनों ने एक साथ सेना ज्वाइन की थी. जैसे ही पाक सैनिकों का काफिला आगे बढ़ा शफीक और नौशाद ने उनपर एलएमजी से ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू कर दी. अचानक हुए इस पलटवार से पाकिस्तानी सैनिकों को संभलने तक का मौका न मिला. जान पर आते देख दुश्मन के सैनिकों में कोई पानी में कूद गया तो किसी ने खेत में भागना ठीक समझा. शफीक और नौशाद की फायरिंग में पाकिस्तानी ब्रिगेड के कमांडर ए आर शमीम और पाकिस्तान के फर्स्ट आर्म्ड डिविजन के मेजर जनरल नासिर अहमद खान मारे गये. ए आर शमीम और नासिर अहमद खान के मारे जाने से पाक का हौसला टूट गया. इस ऑपरेशन के बाद ग्रेनेडियर्स विंग के जवान शफीक और नौशाद ने पाकिस्तान की उस अमेरिकी जीप पर कब्जा कर लिया जिसमें पाकिस्तान कमांडर ए आर शमीम और मेजर जनरल नासिर अहमद खान के शव पड़े थे. जीप पर कब्जा हो जाने के बाद पाकिस्तानी सैनिकों में इतना खौफ फैल गया कि वो खुद के टैंकर में आग लगाकर पाकिस्तान की ओर भाग गए.
तनोट मंदिर ने की सैनिकों की रक्षा
17 से 19 नवंबर 1965 को पाकिस्तान ने तीन तरफ से राजस्थान बॉर्डर के तनोट पर आक्रमण कर दिया था. दुश्मन के तोपखाने जबरदस्त आग उगल रहे थे. तनोट की रक्षा के लिए मेजर जय सिंह की कमांड में 13 ग्रेनेडियर की एक कंपनी और सीमा सुरक्षा बल की दो कंपनियां दुश्मन की पूरी ब्रिगेड का सामना कर रही थीं. तभी एक ऐसा चमत्कार हुआ जिसे आज भी भारतीय सेना मानती है. ऐसा कहा जाता है कि (GFX IN ) तनोट में स्थित एक मंदिर ने उस वक्त भारतीय जवानों की रक्षा की. उस वक्त तनोट मंदिर के आसपास पाकिस्तानी सेना की तरफ से लगभग 3000 बम गिराए गए. लेकिन इस मंदिर पर एक खरोंच तक नहीं आई. और तो और मंदिर परिसर में गिरे 450 बम तो फटे भी नहीं. मान्यता थी कि माता ने भारतीय सैनिकों की मदद की और पाकिस्तानी सेना को पीछे हटना पड़ा था. इस घटना की याद में तनोट माता मंदिर के संग्रहालय में आज भी पाकिस्तान द्वारा दागे गये जिंदा बम रखे हुए हैं.
पद्म विभूषण पाने वाले वायुसेनाध्यक्ष
इतिहास में अपनी बहादुरी का परचम लहराने वाले मार्शल ऑफ द एयर फोर्स अर्जन सिंह को 1965 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था. मार्शल ऑफ इंडियन एयरफोर्स अर्जन सिंह की बहादुरी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1965 में जब पाकिस्तानी सेना ने टैंकों के साथ अखनूर शहर पर हमला कर दिया तो रक्षा मंत्रालय ने तुरंत वायुसेना प्रमुख अर्जन सिंह को तलब किया. सरकार ने उनसे पूछा कि वो कितनी देर में पाकिस्तान पर जवाबी कार्रवाई के लिए एयरफोर्स को तैयार कर सकते हैं. अर्जन सिंह ने सरकार से सिर्फ 1 घंटे का समय मांगा. उसके बाद उन्होंने अपने नेतृत्व में 1 घंटे से भी कम समय में पाकिस्तानी सेना और टैंकों पर बम बरसाना शुरू कर दिया. 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध में भारतीय वायुसेना ने गजब का जौहर दिखाया था, जिसकी वजह से पाकिस्तान ने भारत के सामने घुटने टेक दिए थे.
पाकिस्तानियों के छक्के छुड़ाने वाला ट्रक ड्राइवर
जिस समय भारतीय सेना पाकिस्तान पर चढ़ाई के लिए जा रही थी. उस दौरान सेना ने पंजाब से दिल्ली जा रहे एक ट्रक को रूकवा लिया था. इस ट्रक में गेहूं की बोरियां लदी थीं, फौज़ियों ने ट्रक ड्राइवर से कहा कि पाकिस्तान के खिलाफ चल रही लड़ाई में , हमें आपकी जरूरत है. जिसके बाद ड्राइवर ने ट्रक में लदी गेहूं की बोरियों को वहीं उतार दिया और सेना को लेकर पाकिस्तान की सीमा में घुस गया. इस ट्रक ने पाकिस्तानी सेना पर इस कदर, कहर बरपाया कि सभी ने दांतों तले उंगलियां दबा लीं. किसी फिल्म के सीन की तरह इस ट्रक ड्राइवर ने पाकिस्तानी सैनिकों पर चढ़ाई की. और तो और कई बार इस ट्रक ड्राइवर ने खुद दुश्मनों पर गोला-बारूद भी फेंका. ये कोई किस्सा नहीं है, ये हकीकत है.. उस ट्रक ड्राइवर का नाम कमल नयन था. जो उस समय ट्रक नंबर PNR 5317 को चलाता था. कमल नयन के पराक्रम और साहस को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें सेना के वीरता सम्मान अशोक चक्र से सम्मानित किया था.
जब देश ने रखा सप्ताह में एक दिन का उपवास
1965 में देश में अनाज का संकट पैदा हो गया. अमेरिका ने उस वक्त का फायदा उठाते हुए कुछ शर्तों के साथ भारत को अनाज देने की पेशकश की. तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी जानते थे कि अमेरिका से अनाज लिया तो देश का स्वाभिमान चूर-चूर हो जाएगा. इसिलए उन्होंने अमेरिका के सामने झुकना स्वीकार नहीं किया और अपनी पत्नी बच्चों के साथ उस दिन कुछ भी नहीं खाया, इससे शास्त्री जी को भरोसा हो गया कि यदि एक दिन भोजन न भी किया जाए तो इंसान भूख बर्दाश्त कर लेता है. परिवार के साथ इस प्रयोग के बाद उन्होंने देशवासियों से आह्वान किया कि वो एक दिन का उपवास करें. शास्त्री जी ने कहा,'हमें भारत का स्वाभिमान बनाए रखने के लिए देश में उपलब्ध अनाज से ही काम चलाना होगा. हम किसी भी देश के आगे हाथ नहीं फैला सकते. यदि हमने किसी देश द्वारा गेंहू देने की पेशकश को स्वीकार किया तो ये देश के स्वाभिमान पर गहरी चोट होगी. इसलिए अब से पेट पर रस्सी बांधो, साग-सब्जी ज्यादा खाओ, सप्ताह में एक दिन एक वक्त उपवास करो और देश को अपना मान दो.' शास्त्री जी के इस आह्वान का देशवासियों पर गहरा असर पड़ा. लोगों ने बिना किसी हिचक के अपने प्रधानमंत्री के आह्वान पर भरोसा किया और सप्ताह में एक दिन एक वक्त का खाना छोड़ दिया.
देश को मिला जय जवान, जय किसान का नारा
1965 में भारत एक तरफ जहां पाकिस्तान के साथ युद्ध में उलझा हुआ था, तो वहीं देश में आनाज का आकाल भी पड़ा हुआ था. ऐसे में सीमा पर जवानों का और खेत में किसानों का हौसला बढ़ाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने नारा दिया- जय जवान, जय किसान. लाल बहादुर शास्त्री ने लाल किले की प्राचीर से कहा, 'जो नारा मैं समझता हूं कि आज हमारे देश के लिए जरूरी है.. वो आपके सामने कहता हूं और प्रार्थना करता हूं कि आप मेरे साथ दोहराएंगे... ‘जय जवान, जय किसान’. तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ये नारा नहीं बल्कि एक हताशा और निराशा भरे माहौल में देश के लिए संजीवनी थी. शास्त्री जी ने लाल किले की प्राचीर से ही देश को यह बता दिया कि थोड़ा समय लगेगा जरूर लेकिन भारत मुश्किलों से निकलने के लिए न तो किसी के आगे झुकेगा और न किसी के आगे हाथ फैलाएगा.
जब पैदा हुए 3 खान सुपरस्टार्स
1965 में पैदा हुए तीन खान स्टार्स. जिन्होंने बॉलीवुड में अपनी बादशाहत अभी तक कायम कर रखी है. ये तीन खान है आमिर खान, शाहरुख खान और सलमान खान. तीनों खान में सबसे पहले आमिर खान का जन्म 14 मार्च 1965 को मुंबई, महाराष्ट्र में हुआ था. उनके पिता ताहिर हुसैन एक फिल्म निर्माता थे. वहीं शाहरूख खान का जन्म 2 नवंबर 1965 को दिल्ली में हुआ था, उनके पिता का नाम मीर ताज मोहम्मद खान था, जो पाकिस्तान में पेशावर के रहने वाले थे. सलमान खान का जन्म 27 Dec 1965 को इंदौर, मध्य प्रदेश में हुआ था. उनके पिता का नाम सलीम खान है जो मशहूर फिल्म लेखक रहे हैं. शानदार फिल्मों से बॉलीवुड इंडस्ट्री पर अपना दबदबा बनाने वाले इन तीनों खान ने भले ही अपने करियर की शुरूआत अलग-अलग ढंग से की हो. लेकिन आज भी बॉलीवुड में इन तीनों खान की तूती बोलती है.
राजपूत पैलेस है ताजमहल
विश्व के 7 अजूबों में शामिल ताजमहल पर विवाद उस वक्त उठा जब 1965 में इतिहासकार पीएन ओक की किताब The Taj Mahal was a Rajput Palace दुनिया के सामने आई. इस किताब में पीएन ओक ने दावा किया कि ये ताजमहल नहीं बल्कि राजपूत पैलेस है. पीएन ओक ने अपनी किताब में लिखा कि कोई किसी को मंदिर तोहफे में नहीं देता, शाहजहां के दरबार का लेखा-जोखा रखने वाले बादशाहनामा में इस बात को स्वीकार किया गया है कि मुमताज को दफनाने के लिए जयपुर के महाराजा जयसिंह से एक बड़े गुंबद की मांग की गई थी. जिसमें विशाल भवन हो और ये वही भवन है जो राजा मानसिंह के भवन के नाम से जाना जाता था. इसके अलावा पीएन ओक की किताब The Taj Mahal was a Rajput Palace में एक और घटना का जिक्र करते हुए लिखा गया है कि शाहजहां के दरबारी लेखक मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी ने अपने बादशाह नामा में इस बात का भी उल्लेख किया है कि शाहजहां की बेगम मुमताज-उल-मानी की मृत्यु के बाद उन्हें बुरहानपुर में अस्थाई तौर पर दफना दिया गया था, उसके 6 महीने बाद उन्हें अकबराबाद आगरा लाया गया और राजा मानसिंह के द्वारा लिए गए आगरा में स्थित एक असाधारण रूप से सुंदर और शानदार भवन में दोबारा दफनाया गया.
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