आज हम जीवन के अंतिम सत्य.. यानी मृत्यु का एक आध्यात्मिक DNA टेस्ट करेंगे. आमतौर पर हमारे समाज में मृत्यु के बारे में बात नहीं की जाती क्योंकि लोगों को लगता है कि मृत्यु की बात करना अशुभ है.... क्योंकि मृत्यु दुख, तनाव और भय का वातावरण पैदा करती है. जन्म को हमेशा शुभ माना जाता है.. जबकि मृत्यु को हमेशा अशुभ माना जाता है. हमारा समाज मृत्यु से जुड़ी बातों पर चर्चा करने के बजाए इनसे बचना पसंद करता है लेकिन इस सत्य से बचा नहीं जा सकता क्योंकि जीवन के एक मोड़ पर मृत्यु से मुलाक़ात होना तय है. ओशो ने एक बार कहा था कि हर इंसान मृत्यु से भयभीत हैं, और इसकी वजह सिर्फ़ ये है कि उसने जीवन का स्वाद कभी लिया ही नहीं है. ओशो ने अपने प्रवचन में कहा था कि जो व्यक्ति ये जानता है कि जीवन क्या है, वो कभी मृत्यु से नहीं डरता, वो मृत्यु का स्वागत करता है. 


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सच ये है कि मृत्यु भेदभाव नहीं करती, जबकि जन्म हमेशा भेदभाव करता है.. अन्याय करता है... आपने गौर किया होगा कि जन्म होते ही इंसान की पहचान और उसका जीवन.. धर्म, जाति, देश और अमीरी या ग़रीबी के आधार पर बंट जाता है. जन्म लेते ही ये तय हो जाता है कि कोई किस जाति या धर्म से होगा. किसी भी इंसान का जन्म किसी अमीर के घर में हो सकता है या किसी गरीब के घर में भी हो सकता है. इस पर किसी का वश नहीं होता. इसी तरह कोई संपन्न देश में पैदा होता है.. तो कोई गरीब देश का निवासी बन जाता है. हैरानी की बात ये है कि जीवन का पूरा चक्र इस बात पर निर्भर है कि आप कहां पैदा होंगे.. और किस घर में पैदा होंगे. जबकि मृत्यु के मामले में कुछ भी तय नहीं है. मृत्यु की रेखा के पार... हर व्यक्ति बराबर है. मृत्यु बंटवारा नहीं करती वो राजा और रंक को बराबरी पर लाकर खड़ा कर देती है. ये वो आध्यात्मिक सत्य है जो हर इंसान को याद रखना चाहिए. जीवन भले ही धर्म और पंथ निरपेक्ष ना हो.. लेकिन मृत्यु धर्मनिरपेक्ष और पंथ निरपेक्ष है...मृत्यु के दरबार में हर कोई बराबर है.


आज हम दो लोगों की मृत्यु का ज़िक्र करना चाहते हैं.

ये दो तस्वीरें बताती हैं कि मृत्यु के बाद सब कुछ बराबर हो जाता है.. समतल हो जाता है... कामयाबी की ऊंची ऊंची इमारतें.. एक पल में बेकार हो जाती हैं.. उनका मोल मिट्टी के बराबर हो जाता है. इनमें से एक अंत्येष्टि अभिनेता शशि कपूर की है. और दूसरी अंत्येष्टि है राजनीति की मशहूर हस्ती जयललिता की.... जो एक साल पहले.. 6 दिसंबर 2016 को हुई थी. एक तरफ एक अभिनेता है और दूसरी तरफ एक राजनेता. दोनों में ही सपनों को यथार्थ में बदलने की कला थी. शशि कपूर ने समाज की घटनाओं को अपने अभिनय से जीवंत बनाया और सिनेमा वाले सपने बुने.. जबकि जयललिता ने राजनीति के अभिनय को साधने के लिए.. अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया... जयललिता ने अपने अपमान पर पैर रखकर अपने लिए सपनों का आसमान बुना.


इस बात को समझने के लिए यहां सन 1989 में हुई एक घटना का ज़िक्र करना ज़रूरी है. उस वक्त जयललिता तमिलनाडु विधानसभा में नेता विपक्ष हुआ करती थीं. अभी आपके टेलीविजन स्क्रीन पर दो अलग-अलग तस्वीरें हैं. आप तस्वीरों में देख सकते हैं, जयललिता ने काले रंग की साड़ी पहनी हुई है.. उनके बाल बिखरे हुए हैं और उन्हें सिर में चोट भी लगी है. जयललिता और उनकी पार्टी के नेता विधानसभा में बजट के दौरान सरकार की नीतियों का विरोध कर रही थीं  इसके बाद जैसे ही जयललिता सदन से निकलने के लिए तैयार हुईं, DMK के सदस्यों ने उन्हें रोकने की कोशिश की. जिससे जयललिता ज़मीन पर गिर गईं... 


अपमानित जयललिता ने उस दिन प्रतिज्ञा ली थी, कि वो उस सदन में तभी वापस कदम रखेंगी, जब वो महिलाओं के लिए सुरक्षित हो जाएगा. दूसरे शब्दों में वो अपने आप से ये कह रही थीं, कि वो अब तमिलनाडु विधानसभा में मुख्यमंत्री के तौर पर ही वापस आएंगी. और आगे चलकर ऐसा ही हुआ. सत्ता की ताक़त क्या होती है और अपने अपमान को वोटों में कैसे तब्दील किया जाता है.... ये जयललिता से ज़्यादा कोई और नहीं समझ सकता.


उन्होंने राजनीति के बहुत से उतार चढ़ाव देखे.. लेकिन अपनी आखिरी सांस तक... वो प्रासंगिक बनी रहीं. लेकिन कहते हैं कि वक़्त बहुत बलवान होता है आज उनकी मृत्यु को एक साल पूरा हो चुका है और अब जयललिता सिर्फ एक प्रतीक.. एक Symbol.. या एक तस्वीर बनकर रह गई हैं. एक ऐसी तस्वीर जिस पर माला पड़ी हुई है.. और उस माला में गुंथे.. यादों के फूल.. हर गुज़रते वर्ष के साथ सूखते जाएंगे. 


हालांकि शशि कपूर समय के इस महासागर में इतनी जल्दी विलीन नहीं होंगे, क्योंकि वो एक अभिनेता थे उन्होंने पूरे जीवन अपने आसपास के समाज को फिल्मों में उतारा उनकी फिल्में वो दस्तावेज़ हैं जो समय के इस महासागर में किसी नाव की तरह तैरती रहेंगी. उनके अभिनय पर आज से पचास साल बाद भी तालियां बजती रहेंगी.... शशि कपूर की फिल्में आज से 50 साल बाद भी देखी जाती रहेंगी.. और उन फिल्मों में 1950 से लेकर 1990 के दशक तक की खुशबू आती रहेगी. लेकिन किसी राजनेता ने कैसा काम किया... कैसे सत्ता हासिल की इसकी चर्चाएं धीरे-धीरे फीकी होती जाएंगी और हो सकता है कि समय के साथ उस नेता की छवि भी पूरी तरह बदल जाए.


राजनीति में कौन सा काम अच्छा होगा और कौन सा काम बुरा होगा इसका निर्णय.. काल... व्यक्ति और परिस्थितियों के अनुसार बदल जाता है. इसलिए अगर यादों की कसौटी पर राजनीति और सिनेमा को तौला जाए.. तो सिनेमा वाली यादें.. राजनीति की यादों पर हमेशा भारी पड़ती हैं. फिल्मों के डायलॉग सालों-साल याद रहते हैं... जबकि राजनीति के ज़्यादातर भाषण और डायलॉग्स...खो जाते हैं. वैसे जयललिता और शशि कपूर दोनों ही एक्टिंग से जुड़े हुए थे.. लेकिन जयललिता, एक्टिंग तक ही सीमित नहीं रहीं.. वो राजनीति की दुनिया में बहुत आगे बढ़ गईं,..और करीब 14 साल.. मुख्यमंत्री के पद पर रहीं... जबकि शशि कपूर संतुष्ट हो गये.


लेकिन इस फर्क के बावजूद मृत्यु सबको बराबरी पर लाकर खड़ा कर देती है चाहे कोई नेता हो या अभिनेता... मृत्यु के बाद उसके व्यक्तित्व के मायने नहीं रहते... सिर्फ उसका काम ज़िंदा रहता है. मृत्यु भेदभाव नहीं करती, अन्याय नहीं करती जबकि जन्म हमेशा भेदभाव करता है.. अन्याय करता है... आपने गौर किया होगा कि जन्म होते ही इंसान की पहचान और उसका जीवन.. धर्म और जाति के आधार पर बंट जाता है जन्म लेते ही ये तय हो जाता है कि कोई किस जाति या धर्म से होगा. किसी भी इंसान का जन्म किसी अमीर के घर हो सकता है या किसी गरीब के घर भी हो सकता है. इस पर किसी का वश नहीं होता.


इसी तरह कोई संपन्न देश में पैदा होता है.. तो कोई गरीब देश का निवासी बन जाता है. हैरानी की बात है कि जीवन का पूरा चक्र इस बात पर निर्भर है कि आप कहां पैदा होंगे.. और किस घर में पैदा होंगे. जबकि मृत्यु के मामले में कुछ भी तय नहीं है. मृत्यु की रेखा के पार... हर व्यक्ति बराबर है. मृत्यु बंटवारा नहीं करती वो राजा और रंक को बराबरी पर लाकर खड़ा कर देती है. ये वो आध्यात्मिक सत्य है जो हर इंसान को याद रखना चाहिए. गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन के सामने मृत्यु के रहस्य को उजागर किया था, आज मृत्यु के सत्य को समझने के लिए श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद से जुड़ा एक वीडियो आपको ज़रूर देखना चाहिए.