कांग्रेस अलापती रही दलित राग, लेकिन भाजपा को मिल गया इनका साथ, जानिए क्यों...
बीजेपी ने रणनीति के तहत 14 अप्रैल को डॉ. भीमराव आंबेडकर की 127वीं जयंती के मौके पर अधिकतम अखबारों में विज्ञापन दिए थे.
नई दिल्ली: कर्नाटक की जनसंख्या में 23 फीसदी हिस्सा अनूसूचित जाति का है. जो किसी भी चुनाव नें निर्णायक भूमिका निभाती है. हालांकि परंपरागत तौर पर दलितों को कांग्रेस का वोटर माना जाता रहा है, लेकिन हाल के कुछ सालों में ये मिथ टूटता-सा दिख रहा है. बीजेपी की लगातार की जा रही सोशल इंजीनियरिंग का ही नतीजा है कि दलितों के दिल में बीजेपी जगह बना रही है.
बीजेपी ने अपनी रणनीति के तहत 14 अप्रैल को डॉ. भीमराव आंबेडकर की 127वीं जयंती के मौके पर अधिकतम अखबारों में विज्ञापन दिए थे. जिसमें मुख्यतौर पर आंबेडकर का ये विचार 'लोकतंत्र सिर्फ सरकार का स्वरूप नहीं है. ये मुख्यत: सबके साथ जीने, सबको साथ लेकर चलने से जुड़ा अनुभव है. ये एक तरह का स्वभाव है जिसमें हम अपने साथ जीने वालों के प्रति सम्मान और पूजा का भाव रखते हैं', छापा गया था. यही नहीं इस बार के चुनाव में लेफ्ट दलित समूह, जिसमें सबसे ज्यादा हाशिये पर पड़े समुदाय आते हैं और जो एक बड़ा वर्ग है. उनका झुकाव बीजेपी की ओर नज़र आया.
जबकि पिछली कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने दलितों को लुभाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी. अपने पांच साल के कार्यकाल में कर्नाटक सरकार ने अपने परंपरागत दलित वोटरों के लिए बहुत काम किया, जिनमें 88,000 करोड़ का फंड दलित उत्थान के लिए दिया जाना भी शामिल है. यहां तक कि सिद्धारमैया ने खुद को भी एक दलित नेता की तरह ही प्रोजेक्ट किया था.
बीजेपी ने लगाई सेंध
अगर पिछले चुनावी आंकड़ों पर नज़र डालें तो 2004 में जब खंडित जनादेश मिला था उस दौरान बीजेपी को अनूसूचित जाति के लिए आरक्षित 33 सीटों में में से 13 सीट हासिल हुईं थी. वहीं कांग्रेस को 7 और जेडी(एस) को 9 सीट मिली थी. इसके मुकाबले 2008 के चुनाव में जब बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, उस दौरान उसे 36 में से 22 सीट हासिल हुई थीं, वहीं कांग्रेस को 8 सीटों से संतोष करना पड़ा था. पिछले चुनाव में जहां कांग्रेस को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ था उस दौरान उन्हें 17 सीट मिलीं थी, वहीं बीजेपी के खाते में 6 सीटें गईं थी. और जेडी(एस) को 9 सीट मिलीं थी. लेकिन यहां गौर करने वाली बात ये है कि दलित वोटर लगातार कांग्रेस के हाथों से फिसलता जा रहा है. वहीं बीजेपी उस खेमें में सेध लगा रही है.
देखें- कर्नाटक चुनाव में क्या रहा दिग्गजों का हाल
दलितों और मुस्लिमों की संख्या लिंगायत और वोक्कालिगा की जनसंख्या से अधिक है. राज्य में अनुसूचित जातियों की संख्या कुल आबादी की 19.5% है जो कि राज्य में सबसे बड़े जातीय समूह के रूप में उभरी है. इसके बाद मुस्लिमों का स्थान है जो कि राज्य की कुल जनसंख्या का 17 प्रतिशत हैं. इन दोनों समुदायों के बाद लिंगायत व वोक्कालिगा का स्थान आता है जो कि क्रमशः 14 फीसदी व 11 फीसदी हैं. अन्य पिछड़ा वर्गों में कुरुबा राज्य की कुल जनसंख्या में अकेले 7 फीसदी हैं. बता दें कि राज्य में 20 फीसदी जनसंख्या अन्य पिछड़ा वर्ग की है.
मुद्दे से नहीं भटकने दिया
आंकड़ों के अनुसार राज्य में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, मुसलमान व कुरुबा की जनसंख्या को मिला दें तो ये राज्य की कुल जनसंख्या की 47.5 फीसदी जनसंख्या हो जाती है. बीजेपी ने इसी बात की गंभीरता को समझते हुए अपनी कई पिछली गलतियों को सुधारा, जिसमें येदियुरप्पा को दलित के घर पर वहीं बना हुआ खाना खाना भी शामिल है. गौरतलब है कि पिछली बार उन्हें दलित के घर बाहर से आया हुआ खाना खाने को लेकर आलोचना का सामना करना पड़ा था. वही केंद्रीय मंत्री अनंत हेगड़े के इस बयान कि बीजेपी सत्ता में आई ही इसलिए है कि वह संविधान को बदल सके. इस बयान को लेकर दलितों में खासा रोष देखने को मिला था और उन्होंने येदियुरप्पा के सामने आपत्ति भी दर्ज की थी. बीजेपी ने इन सभी मुद्दों पर दलित वोटर को भटकने नहीं दिया और उनकी आपत्ति को दूर करने की पूरी कोशिश की.
कर्नाटक में दलितों को दो रूपों में देखा जाता है, जिनमें एक रूप दायां पक्ष और दूसरा बायां पक्ष है. बायां पक्ष दाएं पक्ष के मुकाबले संख्या में ज्यादा है. वहीं एक खास बात ये भी है कि दायां पक्ष, बाएं पक्ष की तरह शैक्षणिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से पिछड़ा हुआ नहीं है.
खास बात ये रही कि इस बार के चुनाव में बीजेपी ने बाएं पक्ष को अपने पक्ष में लाने के लिए जीजान लगा दी थी यहां तक कि उसने अपनी रणनीति के तहत उन जगहों पर ज्यादा ध्यानकेंद्रित किया जहां कांग्रेस की सरकार के दौरान समुदायों को नज़रअंदाज़ किया गया था. इससे ये जाहिर होता है कि बीजेपी ने दलितों को लुभाने के लिए आक्रामक रणनीति का इस्तेमाल किया और वो इसमें काफी हद तक सफल भी हुई है.
दलित मठ के प्रमुख को भी साथ लिया
कर्नाटक के दलितों में मदीगा और चालावाडी दो अहम उपजातियां हैं. जिनके वोट चुनाव के नतीजों पर माकूल असर डालते हैं. गौरतलब है कि मदीगा जाति परंपरागत रूप से चमड़े का काम करने वाली जाति है जिसे अब भी अछूत माना जाता है. मदीगा जाति के लोगों की पिछली सरकार से ये शिकायत थी कि दलितों को दिए जाने वाले बजट का एक बड़ा हिस्सा चालावाड़ी के खाते में जाता है. मदीगा जाति के लोग चाहते हैं कि उन्हें 8 से 10 फीसदी आरक्षण का लाभ मिले, लेकिन उन्हें इतना लाभ मिल नहीं रहा है. चित्रदुर्ग में दलित मठ के प्रमुख मधारा चेन्हैयाह के साथ अमित शाह ने 45 मिनट की लंबी बैठक की थी जिसके बाद ये कयास लगाए जा रहे थे कि हो सकता है उन्होंने मदीगा जाति के आरक्षण पर कोई बात की हो.
मध्य कर्नाटक के चार जिलों की 26 विधानसभा सीटों पर दलित मठ का अहम रोल है. बीजेपी ने इन दलित मठों के प्रमुख का आशीर्वाद लेने में भी कोई देरी नहीं की थी.
इन सबसे ऊपर कहीं ना कहीं वोटर अब ये समझने लग गया है कि केंद्र में जिसकी सरकार है उसका साथ देना उनके लिए फायदेमंद साबित हो सकता है नहीं तो जिन सुविधाओं की वो बाट जोह रहे हैं वो उन तक पहुंचना मुश्किल हो सकता है.