नई दिल्ली: देश की अगली सरकार चुनने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. कुछ दिन बाद लोकसभा चुनावों के पहले चरण की वोटिंग भी होनी हैं. राजनीतिक पार्टियां लगातार इस कोशिश में हैं कि वे अपने ज्यादा से ज्यादा नेता संसद भवन तक पहुंचा सकें. सभी दल ताबड़तोड़ रैलियां कर रहे हैं. अभी कुछ सीटों पर उम्मीदवारों को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं हो पाई है लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि इस हफ्ते तक सभी नाम सामने आ जाएंगे. एक ओर जहां तमाम चुनावी सर्वे इस बार किसी ठोस नतीजे पर नहीं ले जा पा रहे हैं वहीं दूसरी ओर मतदाता भी अपने पत्ते खुलकर सामने नहीं रख रहा है. चुनाव के वक्त देश में बदली गठबंधन की गणित ने यह तय कर दिया है कि इन चुनावों में यूपी ही नहीं बल्कि तमाम अन्य राज्य भी सरकार बनवाने में महती भूमिका अदा करने वाले हैं.


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रैलियों में आ रही है जबरदस्त भीड़
अगर आप बड़े नेताओं की रैलियां देख रहे हैं तो आपको भी यह बात साफ पता चल रही होगी कि भले ही वह पीएम मोदी हों या राहुल गांधी या फिर किसी अन्य दल का कोई और नेता भीड़ तो हर रैली में उमड़ रही है. नारे भी जमकर लग रहे हैं लेकिन ये भीड़ अंत में पोलिंग बूथ पर ईवीएम में किसका बटन दबाएगी यह तो वही जानती है. हर चुनावों में तमाम चेहरे ऐसे भी नजर आते रहे हैं जो अलग-अलग पार्टियों की रैलियों में भी जाते हैं, इस बार भी यही हो रहा है.


गठबंधन के चलते यूपी में बदल गया है गणित
देश के सबसे ज्यादा संसदीय क्षेत्र (80) वाले राज्य उत्तर प्रदेश की बात करें तो वहां लंबे अरसे बाद सपा और बसपा एक साथ आईं तो राष्ट्रीय लोक दल ने भी अपने रास्ते बदल लिए. ये तीनों दल अब एक साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं. इसी वजह से यूपी में चुनावी गणित बदल गया है. ऐसा माना जा रहा है कि गठबंधन के चलते बीजेपी यूपी से 2014 जैसा चुनावी करिश्मा नहीं दिखा पाएगी क्योंकि उस चुनाव में उसे 71 और उसकी सहयोगी अपना दल को 2 सीटें हासिल हुई थीं. जबकि कांग्रेस को 2 और समाजवादी पार्टी को 5 सीटों पर ही जीत मिली थी वहीं बसपा का खाता तक नहीं खुल पाया था. सपा-बसपा ने गठबंधन इस लिए किया क्योंकि 2014 के चुनावों में अधिकतर सीटों पर इनके उम्मीदवार दूसरे और तीसरे नंबर पर रहे. यही वजह है कि दोनों पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व को लगा कि अगर प्रदेश में संयुक्त रूप से चुनाव लड़ा जाए तो बीजेपी के विजय रथ को रोका जा सकता है. कई चुनावी सर्वे में भी इस थ्योरी पर मुहर लगा चुके हैं. सर्वे बताते हैं कि इन चुनावों में गठबंधन 40 के आसपास और बीजेपी 35 के आसपास सीटें निकाल सकती है जबकि कांग्रेस के हाथ करीब 5 सीटें लग सकती हैं.


मध्य और पूर्वी भारत पर है बीजेपी की नजर
यूपी का नुकसान बीजेपी मध्य भारत और पूर्वी भारत में पूरा करने की जद्दोजहद कर रही है. आपको बता दें कि मध्य भारत में कुल 40 (मध्य प्रदेश की 29 और छत्तीसगढ़ की 11) संसदीय सीटें हैं जबकि पूर्वी भारत में बिहार की 40, पश्चिम बंगाल की 42 झारखंड की 14 और ओडिशा की 21 सीटें हैं. इन सभी राज्यों में एनडीए ने अपनी स्थिति काफी मजबूत की है. पश्चिम बंगाल में तो अप्रत्याशित रूप से उसका वोट शेयर बढ़ रहा है. 2017 और 2018 में हुए निकाय और पंचायत चुनावों में बीजेपी ने काफी बेहतर प्रदर्शन किया था. अब उसकी नजर लोकसभा चुनावों में ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने पर है. बिहार में जेडीयू के एनडीए के साथ आने के बाद स्थिक बदल चुकी है. भले ही बीजेपी इन चुनावों में कम सीटों पर चुनाव लड़ रही हो लेकिन उसका गठबंधन मजबूत नजर आ रहा है. मध्य भारत के दो राज्यों में हाल ही में राज्य सरकारें बदली हैं दोनों ही राज्य लंबे समय बाद कांग्रेस के हाथ लगे हैं लेकिन लोकसभा चुनावों में इसके बाद भी बीजेपी और कांग्रेस में काटे की टक्कर होने की उम्मीद जताई जा रही है.


पश्चिम और उत्तर के राज्य भी हैं महत्वपूर्ण
पश्चिम भारत की बात करें तो महाराष्ट्र की 48 सीटों पर बीजेपी और शिवसेना एक साथ लड़ रही है. लंबे समय तक शिवसेना अलग चुनाव लड़ने की तैयारी में रही लेकिन ऐन चुनाव के वक्त गठबंधन पर फैसला हो गया. एक तरह से इस गठबंधन ने भले ही मजबूत संदेश दिया हो लेकिन कांग्रेस और एनसीपी ने भी अपने उम्मीदवार चुन-चुन कर निकाले हैं वहीं दूसरी ओर मनसे (महाराष्ट्र नव निर्माण सेना) भी इनके समर्थन में नजर आ रही है. इसके बाद गुजरात (26) और राजस्थान (25) की 51 सीटों पर भी चुनावी टक्कर कड़ी ही होने की उम्मीद है. विधानसभा चुनावों में गुजरात में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन किया था लेकिन लोकसभा का परिदृश्य अलग है. ठीक ऐसे ही राजस्थान में भी कांग्रेस ने बीजेपी के पराजित किया था मगर विधानसभा चुनावों के दौरान चला वह नारा (मोदी तुझसे बैर नहीं, राजे तेरी खैर नहीं) काफी कुछ कह जाता है. उत्तर भारत में यूपी को अलग छोड़ दें तो पंजाब की 13, हरियाणा की 10, दिल्ली की 7, जम्मू-कश्मीर की 6, हिमाचल की 4, उत्तराखंड की 5 और चंडीगढ़ की 1 सीट को संयुक्त रूप से देखें तो कुल 46 सीटें होती हैं. पंजाब में कांग्रेस की हालत बेहतर है तो हरियाणा में बीजेपी. हिमाचल और उत्तराखंड में कांटे की टक्कर हो सकती है. जम्मू-कश्मीर में ताजा हालातों के बाद ऐसा लगता है कि वहां प्रादेशिक दल के हक में ही बेहतर परिणाम आ सकते हैं. 


इस बार निर्णायक हो सकता है दक्षिण का मूड
यूपी के बाद सरकार बनाने में अगर कोई इलाका बड़ा असर डाल सकता है तो वह दक्षिण भारत है. दक्षिण के बड़े राज्यों पर नजर डालें तो यहां तमिलनाडु में 39 सीटें हैं, कर्नाटक में 28 सीटें हैं, आंध्र प्रदेश में 25 सीटें हैं केरल में 20 सीटें हैं, तेलंगाना में 17 सीटें हैं. इन सभी राज्यों में प्रादेशिक दलों का बड़ा असर है. लक्षद्वीप, गोवा, अंडमान निकोबार की कुल 5 सीटों को जोड़ लें दो दक्षिण से 134 सांसद चुने जाने हैं. बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने यहां अपने-अपने हिसाब से गठबंधन कर रखे हैं. इस बार यही वह इलाका है जहां के आंकड़े अगली सरकार की तस्वीर तय करेंगे.



पूर्वोत्तर के राज्य भी डालेंगे असर
पिछले कई सालों से बीजेपी पूर्वोत्तर के राज्यों में अपना जनाधार मजबूत करने के लिए कड़ी मेहनत कर रही है. इन लोकसभा चुनावों में बीजेपी को इस बात का फायदा मिल सकता है. बीजेपी की नजर पूर्वोत्तर की 25 संसदीय सीटों में से ज्यादा से ज्यादा अपने पाले में लाने पर है. कांग्रेस असम (14), अरुणाचल (2) और मेघालय (2) में भले ही बीजेपी को टक्कर देती दिखाई दे लेकिन त्रिपुरा (2), सिक्किम (1), मिजोरम (1), मणिपुर (2) और नागालैंड (1) में उसे प्रादेशिक दलों से ही टक्कर मिलने वाली है.