पटना : लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद पूरे देश की निगाहें उत्तर प्रदेश और बिहार के आंकड़ों पर जा टिकी हैं. बीजेपी और उसके सहयोगियों के खाते में आई यूपी की 62 और बिहार की 39 लोकसभा सीट कई कहानी बयां कर रही है. बिहार की बात करें तो यहां स्ट्राइक रेट लगभग 98 का रहा है. शायद एनडीए के नेताओं को भी इसका अंदाजा नहीं रहा होगा. नंबर के बारे में अंदाजा लगा भी लिए हों, लेकिन अधिकांश सीटों पर जो जीत का अंतर है, वह जरूर चौकाने वाला है.


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रिजल्ट के बाद अब तो शायद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी अपने उस निर्णय पर गौरव कर रहे होंगे, जिसमें उन्होंने आरजेडी के साथ गठबंधन तोड़ अपने पुराने सहयोगी बीजेपी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने का निर्णय लिया था. एनडीए में वापसी के साथ ही नीतीश कुमार की पार्टी के अब सीधे 2 से 16 सांसद हो गए हैं. वह इससे पहले भी दो मौके पर ऐसे निर्णय ले चुके हैं, जो उनकी राजनीतिक धाक को जमाने में कारगर साबित हुआ.


लोकसभा चुनाव के परिणाम से एक बात तो साफ झलक रही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे के बदौलत बीजेपी बिहार के जातिगत समीकरण को काफी हद तक ध्वस्त करने में सफल रही है. अधिकांश सीटों पर एनडीए उम्मीदवारों के जीत का अंतर दो लाख से अधिक है. जो कि चीख-चीख कर कह रहा है कि कैसे बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए नॉन यादव ओबीसी, ईबीसी और दलितों को अपने पक्ष में लाने में कामयाब रही है. इसमें कोई शक नहीं है कि इस गुट ने पीएम मोदी के नाम पर एनडीए उम्मीदवारों के पक्ष में अपना मत दिया है. चाहे वह उज्ज्वला योजना हो या फिर घर-घर शौचालय बनाना, केंद्र की इन तमाम योजनाओं का इन मतदाताओं पर असर रहा.


ऐसे में नीतीश कुमार के एनडीए में वापसी के फैसले को पलटकर देखने की आवश्यक्ता है, जिसका विरोध उनकी पार्टी के ही कई नेता भी किया करते थे. बिहार ने जिस कदर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भरोसा जताया है उससे तो यह साफ कहा जा सकता है कि बिहार में नीतीश कुमार के बिना भी बीजेपी अपने पुराने सहयोगी आरएलएसपी, हम और लोजपा के साथ लगभग इसी स्थिति में रहती. पूरे लोकसभा चुनाव के दौरान बिहार में भी नरेंद्र मोदी सरकार की योजना और राष्ट्रवाद का मुद्दा ही हावी रहा. इन्हीं मुद्दों पर बिहार की जनता ने अपार समर्थन दिया है.



अब पांच साल पीछे चलते हैं. 2014 के चुनाव से ठीक पहले नीतीश कुमार ने उसी नरेंद्र मोदी के नाम पर बीजेपी से अलग राह अपना ली थी, जिनकी तारीफ करते वह पूरे लोकसभा चुनाव के दौरान खुले मंच से करते नहीं अघाए. इस चुनाव में जेडीयू बिहार में महज दो सीटों पर सिमट कर रह गई थी. नीतीश कुमार इस्तीफा देकर बिहार की सत्ता जीतन राम मांझी के हाथ में दे दी, लेकिन मांझी के बार में उन्होंने जैसा सोचा, उससे वह विपरीत निकले. सीएम की कुर्सी पर बैठे-बैठ वह लगातार नीतश कुमार को चुनौती देते रहे. परिस्थितियों को भांपने में माहिर नीतीश कुमार ने समय से पूर्व मांझी का इस्तीफा ले लिया और दोबारा बिहार की गद्दी पर काबिज हुए.



सरकार का कार्यकाल पूरा होने के बाद नीतीश कुमार की अगुवाई में बिहार में महागठबंधन का गठन हुआ. 2015 के विधानसभा में बिहार में महागठबंधन की शानदार जीत हुई. इस चुनाव में आरजेडी के लिए मानो ऑक्सीजन मिल गया. पार्टी उठ खड़ी हुई. लालू यादव ने चतुराई दिखाते हुए तेजस्वी यादव को नीतीश के बाराबर खड़ा करने की लगातार कोशिश की. यह स्थिति नीतीश कुमार को असहज करने लगी. कहा जाता ही इस सबके बीच लालू यादव केंद्र सरकार में वित्त मंत्री अरुण जेटली के दर पहुंच गए और कानूनी पचरों से निकलने के लिए मदद मांगी. लेकिन अरुण जेटली ने यह संदेश नीतीश कुमार तक पहुंचा दी. इसके बाद नीतीश कुमार ने भी आरजेडी से अलग होने का मन बना लिया. अगर नीतीश कुमार आरजेडी के साथ बिहार में सरकार चला रहे होते तो आरजेडी के पुराने ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए यह कहना मुश्किल होता कि वह अपने विकास पुरुष वाली छवि को बनाए रख पाते, जो उनकी यूएसपी है.


इस चुनाव में बिहार में बीजेपी 23.6 प्रतिशत मतों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है. वहीं, 21.8 प्रतिशत मत के साथ दूसरे नंबर पर नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू रही. एनडीए की तीसरी सहयोगी लोजपा भी 7.9 प्रतिशत मत प्राप्त करने में सफल रही. तीनों दलों को 'मोदी सुनामी' का फायदा मिला. इस चुनाव में एनडीए का आंकड़ा 53.3 प्रतिशत तक जा पहुंचा है. अगर नीतीश कुमार आज बीजेपी साथ नहीं होते तो शायद उनकी स्थिति भी वैसी ही होती जैसी आज यूपी में मायावती और अखिलेश यादव की है.