आज समाजवादी आंदोलन के शिखर पुरुष रहे मधु लिमये (Madhu Limaye) की जयंती है. एक ऐसा कद्दावर नेता जिसकी जरूरत मौजूदा दौर की सियासत को सबसे ज्यादा है. ऐसे दौर में जब सरकार की तरफ से विरोधी दलों को हमेशा संख्या बल के तराजू में तौला जाए। तो सहज रूप से जो पहला नाम जेहन में आता है वो है मधु लिमये (Madhu Limaye) का.


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मधु लिमये का संसदीय जीवन संघर्ष, साहस और सक्रियता की मिसाल है. उनका नाम उन गिने-चुने सांसदों में शुमार है, जिनका खौफ सत्ताधारी दलों के नेताओं के चेहरे पर नज़र आता था. कहते हैं काग़जों का पुलिंदा लेकर मधु लिमये (Madhu Limaye) जब संसद में प्रवेश करते थे तो सत्ताधारी सदस्यों के चेहरे से हवाईयां उड़ने लगती थी. उस दौर में सोशलिस्ट पार्टी (Socialist Party) के कुछ सांसदों ने कांग्रेस की प्रचंड बहुमत की सरकार के पसीने छुड़ा दिए थे. उस वक्त सरकार का विरोध वैचारिक और नीतिगत मसला था ना कि संख्याबल का.


मधु लिमये ने संघर्षों का जीवन 14-15 साल की उम्र में ही शुरू कर दिया था. आज़ादी के आंदोलन में जेल गए, 1944 में जब विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद रिहाई हुई तो गोवा मुक्ति सत्याग्रह शुरू कर दिया. मधु लिमये को गोवा सत्याग्रह में 12 साल की सज़ा हुई. यही नहीं पुर्तगालियों ने जेल में मधुलिमये को प्रताड़ित भी किया.


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मधु लिमये 1958 से लेकर 1959 तक सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष रहे, 1967-68 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष और 1977-1979 में जनता पार्टी के महासचिव रहे. इमरजेंसी के बाद के चुनाव में अहम भूमिका निभाने के बावजूद उन्होंने मंत्री बनने से इनकार कर दिया.


1964 के उपचुनाव में मधु लिमये मुंगेर से सांसद बने, इसके बाद 1967 के आम चुनाव में भी उन्होंने जीत हासिल की. हालांकि तीसरी बार वे त्रिकोणीय मुक़ाबले में मुंगेर से चुनाव हार गए. इसके बाद उन्होंने चुनाव लड़ने के लिए पड़ोसी सीट बांका का रूख किया. बांका में लगातार दो बार उन्होंने 1973 और 1977 में लोकसभा चुनाव में जीत हासिल की. इस दौरान मु्ंगेर और बांका में तत्कालीन कांग्रेसी उम्मीदवारों ने 'बिहारी बनाम बाहरी' का नारा दिया. मधु लिमये के विरोध में कांग्रेसियों ने 'बम्बईया बाहर जाओ' का नारा भी लगाया गया. लेकिन मधु लिमये बराबर जनता की पहली पसंद बने रहे. बिहार के सियासी जनमानस ने उन्हें अपार स्नेह दिया.


मधु लिमये का नाम संसद के उन गिने-चुने सदस्यों में शुमार है, जिन्हें गंभीर विमर्श के लिए याद किया जाता है. शरद यादव उन्हें चलती-फिरती संसद कहते हैं। उस दौर के पत्रकारों और राजनेताओं के मुताबिक संसदीय प्रणाली की समझ उनसे ज्यादा किसी को नहीं थी. एक संसद और सियासतदां के तौर पर उन्होंने अपनी जिम्मेदारी का बखूबी निर्वाह किया. जब उन्होंने सक्रिय राजनीति से रिटायरमेंट लिया तो गंभीर पठन पाठन किया. इस दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण किताबें लिखीं.


हर मुद्दे पर मधु लिमये की राय स्पष्ट थी. भारत की भविष्य की राजनीति की उन्हें किस कदर पहचान थी ये आरएसएस और जनता पार्टी के कुछ सदस्यों की दोहरी सदस्यता के मसले पर उन्होंने साबित भी किया. हालांकि दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर जनता पार्टी के विभाजन का जिम्मेदार उन्हें ठहराया गया लेकिन कुछ लोग ये भी मानते हैं कि अगर मधु लिमये जनता पार्टी के अध्यक्ष होते तो पार्टी नहीं टूटती.


सार्वजनिक जीवन में सादगी और शुचिता के वे इस हद तक पैरोकार थे कि उन्हें बतौर पूर्व संसद सदस्य मिलने वाली पेंशन लेने से भी इनकार कर दिया था. इतना ही नहीं उन्होंने अपनी पत्नी को भी कहा था कि उनकी मृत्यु के बाद वो उनकी पेंशन का एक रूपया ना लें. जब मधु लिमये संसद के सदस्य नहीं रहे तो बिना किसी दूसरी व्यवस्था के उन्होंने सांसद के तौर पर मिला आवास खाली कर दिया.