ज्योतिषाचार्य शशिशेखर त्रिपाठी: छठ पूजा का पर्व सूर्य देवता और षष्ठी देवी की आराधना का प्रतीक है. इस पर्व में भक्त नहाय-खाय, खरना, विधि-विधान से पूजन करना और डूबते व उगते सूर्य को अर्घ्य देने के साथ-साथ कोसी भरने की परंपरा का पालन करते हैं. यह परंपरा बहुत प्राचीन है, जिसे भक्त अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए अपनाते हैं. मान्यता है कि सतयुग में सबसे पहले माता सीता ने छठ पूजा कर कोसी भरी थी, जिसके बाद यह परंपरा समाज में प्रचलित हो गई.


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सूर्यास्त के बाद भरी जाती है कोसी


छठ पूजा में कोसी भरने का विशेष महत्व है. कार्तिक शुक्ल मास की षष्ठी तिथि पर, जब भक्त डूबते सूर्य को अर्घ्य देते हैं, उसके बाद वे अपने घरों या छत पर कोसी भरने की परंपरा निभाते हैं. इस वर्ष यह परंपरा 7 नवंबर को सूर्यास्त के बाद, लगभग 5:48 बजे के बाद पूरी की जाएगी.


निसंतान दंपति अवश्य लें, कोसी भरने का संकल्प


छठ पर्व सूर्य और छठी मैया के प्रति आभार व्यक्त करने का अवसर प्रदान करता है. इस पर्व में भक्त मान-सम्मान, धन-वैभव में वृद्धि और कष्टों को दूर करने का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं. जिस भी दंपति के संतान नहीं है, उसे संतान सुख की कामना से छठ पूजा में कोसी भरने का संकल्प अवश्य लेना चाहिए. मान्यता है कि जो लोग श्रद्धा-भाव से छठी मैया का पूजन करते हैं, उनकी संतान प्राप्ति की इच्छा शीघ्र पूरी होती है.


इच्छापूर्ति के बाद कोसी भरना है आवश्यक


जिन भक्तों ने छठ पूजा के दौरान किसी मनोकामना की पूर्ति के लिए कोसी भरने का संकल्प लिया है, उन्हें अपनी इच्छा पूरी होने के बाद कोसी अवश्य भरनी चाहिए. यह संकल्प विधि-विधान से पूरा करना आवश्यक होता है और इसे टालना शुभ नहीं माना जाता है.


कोसी भरने की विधि


कोसी भरने की परंपरा के अनुसार, सबसे पहले 5, 7 या 11 गन्ने का घेरा बनाया जाता है. ध्यान रखें कि गन्ने टूटे हुए न हों और उनमें पत्ते भी लगे हों. गन्ने के घेरे पर लाल रंग का एक कोरा वस्त्र या साड़ी बांधी जाती है. इसके भीतर आटे से रंगोली बनाई जाती है. फिर इस रंगोली पर मौसमी फल, ठेकुआ, सुथनी और अदरक से भरी डलिया रखी जाती है. डलिया में मिट्टी का एक कोसी पात्र रखा जाता है, जिसमें पानी, अक्षत, सिक्का, पान-सुपारी आदि रखे जाते हैं. कोसी के ऊपर सिंदूर लगाकर दीपक जलाया जाता है.