महादेव का अनोखा मंदिर जहां होती है उनके अंगूठे की पूजा, जानें इसके पीछे की कहानी
वैसे तो भगवान शिव के देशभर में ऐसे कई मंदिर हैं जिनके साथ कोई न कोई चमत्कारिक मान्यता अवश्य जुड़ी हुई है. ऐसा ही एक मंदिर राजस्थान के माउंट आबू में हैं जहां होती है शिवजी के अंगूठे की पूजा.
नई दिल्ली: आपको जानकर हैरानी होगी लेकिन ये सच है कि राजस्थान के इकलौते हिल स्टेशन माउंट आबू में भगवान शिव के छोटे-बड़े मिलाकर कुल 108 मंदिर हैं. पुराणों में तो माउंट आबू (Mount Abu) को अर्द्ध काशी के नाम से भी जाना जाता है. स्कंद पुराण की मानें तो काशी यानी वाराणसी शिव की नगरी है तो माउंट आबू भोलेशंकर (Lord Shiv) की उपनगरी है. माउंट आबू में मौजूद शिव के विभिन्न मंदिरों में से एक है अचलेश्वर महादेव (Achleshwar Mahadev Temple) मंदिर जो अपनी अनोखी विशेषता की वजह से भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर में मशहूर है.
भोलेनाथ के अंगूठे की होती है पूजा
माउंट आबू से करीब 11 किलोमीटर दूर अचलगढ़ की पहाड़ियों पर अचलगढ़ किले के पास स्थित है अचलेश्वर महादेव मंदिर. इस मंदिर की खासियत ये है कि एक तरफ जहां दुनियाभर के मंदिरों में शिव जी की मूर्ति या शिवलिंग (Shivling) की पूजा होती है वहीं, इस मंदिर में शिवजी के पैर के अंगूठे की पूजा होती है. यहां भोलेनाथ अंगूठे में वास करते हैं. ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर में स्थित भगवान शिव के अंगूठे के कारण ही माउंट आबू के पहाड़ टिके हुए हैं.
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दिन में 3 बार रंग बदलता है शिवलिंग
इस मंदिर की एक और खासियत ये है कि इस मंदिर में स्थापित शिवलिंग दिन में 3 बार अपना रंग बदलता है. यह शिवलिंग देखने में तो बिल्कुल सामान्य शिवलिंग की तरह है, लेकिन इसके बदलते हुए रंग सभी को हैरान कर देते हैं. शिवलिंग का रंग सुबह के समय लाल होता है. दोपहर के समय इसका रंग केसरिया में बदल जाता है. रात होते होते ही ये श्याम रंग का हो जाता है. इस मंदिर में पंचधातुओं से बनी नंदी (Nandi) की मूर्ति भी है.
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मंदिर से जुड़ी पौराणिक कथा
जब अर्बुद पर्वत पर स्थित नंदीवर्धन हिलने लगा तो हिमालय में तपस्या कर रहे भगवान शंकर की तपस्या भंग हो गई क्योंकि इसी पर्वत पर भगवान शिव की प्यारी गाय नंदी भी थी. लिहाजा पर्वत के साथ नंदी गाय को भी बचाना था. भगवान शंकर ने हिमालय से ही अंगूठा फैलाया और अर्बुद पर्वत को स्थिर कर दिया. नंदी गाय बच गई और अर्बुद पर्वत भी स्थिर हो गया. भगवान शिव के अंगूठे के निशान यहां आज भी देखे जा सकते हैं.