केंद्र सरकार ने एक और बड़ी घोषण की है कि देश में 20 नए विश्वविद्यालय खोले जाएंगे. वैसे सरकार पहले ही कई बड़ी योजनाओं पर काम करने की घोषणा कर चुकी है, सो इतनी बड़ी एक और योजना के एलान से उस पर खास तरह का बोझ भी आ गया है. शिक्षा के क्षेत्र में सरकार अभी तक कोई धमाकेदार एलान नहीं कर पाई थी, इसलिए इस एलान को एक बड़ी उम्मीद की तरह लिया जाना चाहिए था, लेकिन मीडिया में उसे उतने बड़े रूप में नहीं लिया गया. क्यों नहीं लिया गया? इसे आगे कभी देखेंगे, लेकिन फिलहाल एक लक्ष्य के तौर पर इसकी जांच-पड़ताल जरूर बनती है. तथ्यों के अभाव में ज्यादा विश्लेषण तो नहीं हो सकता फिर भी कम से कम लक्ष्य प्रबंधन के लिए उपलब्ध प्रबंधन प्रौद्योगिकी के हिसाब से इस एलान का आगा-पीछा देखा जा सकता है.


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लक्ष्य प्रबंधन के मौजूदा ज्ञान-विज्ञान के लिहाज से देखें तो पांच बातें जरूरी मानी जाती हैं. पहली यह कि लक्ष्य स्पेसिफिक हो यानी स्पष्ट रूप से केंद्रित हो. दूसरी बात कि लक्ष्य मेजरेबल हो यानी उसकी नापतोल हो सके. तीसरी यह कि अचीवेबल यानी हासिल करने योग्य हो. चौथी बात कि लक्ष्य रियलिस्टिक यानी प्रासंगिक व व्यावहारिक हो और अखिर में वह समयबद्ध हो. अंग्रेजी में अपने पहले अक्षरों को जोड़कर इसे स्मार्ट गोल के नाम से जाना जाता है.


स्पष्ट केंद्रित लक्ष्य
भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्री ने 20 विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों को बनाने की घोषण की है. सिर्फ 20 विवि की घोषणा है सो लक्ष्य में स्पेसिफिक होने का गुण है. विश्वस्तरीय के बारे में सोच विचार आगे हो सकता है. लेकिन यह उतना अस्पष्ट नहीं है कि इसमें शुरू से उलझा जाए. वैसे इसे आगे नापतौल के अध्याय में देख लेंगे.


नापतौल
20 विवि खुद ही नापतोल बता रहा है. ये संख्या कितनी बड़ी या छोटी है इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस समय देश में 350 सरकारी विवि चलरहे हैं. इनमें केंदीय विवि की संख्या 44 है. इनके अलावा प्रदेश स्तरीय निजी विवि और गैर सरकारी मानद विवि की कुल सख्या 283 तक पहुंच गई है. इनसे संबद्धकालेजों की संख्या का आंकड़ा 35 हजार पार कर गया है. इस लिहाज़ से केंद्र सरकार की ओर से दो-चार नहीं बल्कि एक साथ 20 विद्यालयों का एलान वाकई एक बड़ालक्ष्य है. लेकिन ये विश्वस्तरीय होंगे ये बात ज़रूर नापतौल में अड़चन पैदा करती है. खासतौर पर तब और ज़्यादा जब दुनिया में अभी विश्वस्तरीय विवि का पैमाना बननहीं पाया है. फिर भी विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालयों की मोटी-मोटी विशेषताओं को अपने विश्वविद्यालयों में साधा जा सकता है. काल के गाल में समाए अपने नालंदा औरतक्षशिला जैसे विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालयों को याद किया ही जा सकता है.


अचीवेबल
कोई ठान ले तो क्या नहीं कर सकता, सो यह कहना ज़रा अजीब लगता है कि कोई लक्ष्य अचीवेबल यानी हासिल करने लायक है या नहीं. फिर भी मोटे तौर पर आजकल यह देखा जाने लगा है कि लक्ष्य को साधने लायक संसाधन हमारे पास हैं या नहीं. संसाधनों का आकलन भी एक जटिल काम है. फिर भी एक विश्वस्तरीय विवि को खड़ा करने में आजकल आठ-दस हजार करोड़ का खर्च मामूली बात है. इस तरह दो लाख करोड़ का खर्च भी हो, तो निजी क्षेत्र की भागीदारी की मदद से वह भी संभव लगता है. विश्वविद्यालयों के लिए ज़मीन जैसे संसाधनों का प्रबंधन भी आजकल कोई मुश्किल काम नज़र नहीं आता. हम प्राकुतिक संसाधनों से संपन्न देशों में गिने जाते हैं. सो लैंड यूज़ बदलने के तरीके से यह काम भी आसान ही है.


रियलिस्टिक
यह बिंदु आजकल एक वैश्विक समस्या है. वैसे नए विश्वविद्यालय बनाने का यह काम नवोन्मेषी प्रकार का नहीं है. हम सैकड़ों विवि पहले से चला ही रहे हैं. बस दिक्कतकी कोई बात है तो नए विवि को विश्वस्तरीय रूप देने की है. जहां दुनिया में पहले से बने विश्वस्तरीय विवि अपना रूप बदलकर प्रौद्योगिकी संस्थानों का रूप धारण करते जा रहे हों, उस स्थिति में विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों के पैमाने भी छोटे हो गए हैं. सो ज्ञान के सृजन की ऐसी संस्थाओं को अपने देश में खड़ी करने की बात ज्यादा बड़ी नहीं लगती. कुछ लोगों को लगती भी हो, तो उनसे कहा जा सकता है कि कम से कम फिलहाल तो यह विचार यूटोपिया नहीं लगता. एक बार फिर दोहरा लें कि हम नालंदा और तक्षशिला वाले देश रहे हैं.


समयबद्धता
नए विश्वविद्यालयों की नई घोषणा में सबसे कठिन मुद्दा कोई है तो वह ये समयबद्धता का ही मुद्दा है. वैसे किसी परियोजना की डीपीआर यानी विस्तृत परियोजना रिपोर्टबनाने वाले प्रशिक्षित लोग आजकल समय का बजट बनाने पर ही ज्यादा ध्यान देने लगे हैं. उद्योग व्यापार जगत में आजकल की परियोजनाएं अपने घोषित समय से पहले ही पूरी होने लगी हैं. उन्हें पता है कि समय से काम होने से समय के अलावा धन और उर्जा की भी बचत होती है. मैनेजरों की फजीहत होने से भी बचती है. नए विवि काविचार अभी परामर्श के ही चरण में हैं सो यह सुझाव दिया जा सकता है कि भले ही यह काम दस की बजाए 15 साल में पूरा करने का लक्ष्य बना लें, लेकिन अच्छी तरह से हिसाब किताब बनाकर ही काम किया जाए.


कितना चुनौतीपूर्ण है ये काम
चूंकि ये कोई प्रौद्योगिक संस्थान खोलने का एलान नहीं है. प्रौद्यागिकी संस्थान पहले दिन से नतीजे देने का आश्वासन दे सकते हैं, लेकिन विश्वविद्यालय ज्ञान सृजन के केद्र होते हैं. और यह समय नए ज्ञान की ज्या़दा मांग नही कर रहा है. यह समय पुराने ज्ञान को तरह तरह से इस्तेमाल करने का समय है. सो आजकल के लिहाज़ से प्रौद्योगिकी संस्थानों की बजाए नए विश्वविद्यालयों की सार्थकता का हिसाब भी हमें लगाकर चलना चाहिए.


(लेखिका, खेल विशेषज्ञ और सोशल इंटरप्रेन्योर हैं.)