Opinion: अखिलेश यादव के बहुत जल्द, बहुत ज्यादा के पीछे क्या है?
कर्नाटक में भाजपा-विरोधी प्रचार को धार देने के लिए अखिलेश यादव के साथ उप्र की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के कर्नाटक जाने की ख़बरों पर फिलहाल सिद्धारमैया की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है.
क्या उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव बहुत जल्द बहुत ज्यादा हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं? उत्तरप्रदेश में पिछले साल के चुनाव में सत्ता से बेदखल होने के बाद अखिलेश कुछ ज्यादा ही आक्रामक रूप में हैं और देश में भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध किसी भी प्रकार के मोर्चे को अपना समर्थन देने को तत्पर हो रहे हैं. उनकी सक्रियता उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और भाजपा पर लगातार हमला बोलने तक ही सीमित नहीं है. एक ओर तो वे प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के साथ दीर्घकालीन गठबंधन के पक्षधर हैं, वहीं पिछले चुनाव में गठबंधन सहयोगी रही कांग्रेस के साथ उनकी पार्टी के रिश्ते कभी-हां कभी-ना के बीच झूलते रहते हैं. और अब उनके कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में जाकर प्रचार करने की ख़बरों के बीच उनकी ही पार्टी में मतभेद सामने आने लगे हैं.
सपा के महाराष्ट्र के नेता अबू आज़मी ने सार्वजनिक तौर पर सपा का कांग्रेस का साथ देने का विरोध करते हुए कहा है कि कांग्रेस पर विश्वास नहीं किया जा सकता और चूंकि कर्नाटक में कांग्रेस ने सपा के लिए कोई सीट नहीं छोड़ी है तो अखिलेश के वहां जाकर प्रचार करने का कोई औचित्य नहीं है. कांग्रेस ने अपने ‘स्टार प्रचारकों’ की सूची में अखिलेश का नाम शामिल किया है. कुछ समय पहले सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव भी सपा और कांग्रेस के बीच किसी भी प्रकार की संधि पर अपना विरोध जता चुके हैं.
यहां यह भी उल्लेख करना रोचक है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया का कहना है कि भाजपा के पास कर्नाटक में कोई नेता नहीं है इसलिए वह उत्तर भारत के नेताओं को प्रदेश में प्रचार के लिए उतार रही है. उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी तथाकथित “उत्तर भारत” के नेताओं में शुमार किया है. ऐसे में कर्नाटक में भाजपा-विरोधी प्रचार को धार देने के लिए अखिलेश यादव के साथ उप्र की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के कर्नाटक जाने की ख़बरों पर फिलहाल सिद्धारमैया की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है. बसपा ने कर्नाटक में जनता दल (एस) के साथ गठबंधन किया है, वहीं खबरें हैं कि सपा वहां स्वयं भी कुछ सीटों पर चुनाव लड़ सकती है.
उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ स्वयं भी कर्नाटक चुनाव प्रचार में जल्द ही फिर जाने वाले हैं और वे वहां 35 चुनाव सभाओं को संबोधित करेंगे. वे पहले भी कर्नाटक में चुनावी सभाओं को संबोधित कर चुके हैं.
भले ही अबू आज़मी के विरोध के बाद अखिलेश के कर्नाटक जाने पर असमंजस में हैं, लेकिन उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका और व्यापक बनाने के प्रयास लगातार जारी रखे हैं. तेलंगाना के मंत्री केटी रामाराव ने पिछले दिनों लखनऊ आकर अखिलेश से मुलाकात की और संकेत हैं कि यह तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव द्वारा प्रस्तावित भाजपा-विरोधी मोर्चे में अखिलेश को शामिल किए जाने के प्रयासों का हिस्सा है. तेलंगाना की सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के नेता ऐसा मोर्चा बनाने की दिशा में जनता दल (सेक्युलर), तृणमूल कांग्रेस और तमिलनाडु के नेताओं से मुलाकात कर चुके हैं.
भाजपा के विरोध में राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी एक दल या उनके किसी एक नेता द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती देना फिलहाल संभव नहीं दिख रहा, इसलिए पश्चिम बंगाल से ममता बनर्जी, तेलंगाना से चंद्रशेखर राव, उत्तरप्रदेश से अखिलेश यादव व मायावती ने इस जिम्मेदारी को संयुक्त रूप से अपने कंधों पर ले रखा है. ओडिशा के नवीन पटनायक व पंजाब से अमरिंदर सिंह ने फिलहाल अभी इस प्रक्रिया से अपने को बाहर रखा है और कर्नाटक से सिद्धारमैया तो अभी अपने ही चुनाव में व्यस्त हैं. ममता बनर्जी यह संकेत दे चुकी हैं कि कांग्रेस का ऐसे किसी मोर्चे में शामिल होने का स्वागत है, लेकिन केवल एक प्रतिभागी के रूप में – उसे इस प्रस्तावित मोर्चे का नेता पहले से ही नहीं माना जा सकता. इस वजह से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल का अपने को मोदी का स्वाभाविक (और सर्व-स्वीकृत) प्रतिद्वंद्वी मानने के विचार को ठेस लग सकती है. ऐसे में अगर ऐसा कोई मोर्चा बनता है और उसमें प्रधानमंत्री पद के दावेदार की जगह फिलहाल खाली मानी जाए, तो ऐसा संभव है कि अखिलेश अपने को उस जगह के लिए दावेदार मान रहे हों.
वैसे भी वे अब उत्तरप्रदेश विधानसभा या विधान परिषद के सदस्य नहीं हैं, ऐसे संकेत दे चुके हैं कि उनकी पत्नी डिंपल यादव शायद अगला लोकसभा चुनाव कन्नौज से न लड़ें, और अखिलेश स्वयं लोकसभा जाने के इच्छुक हो सकते हैं. वैसे भी अखिलेश देश के उन भाग्यशाली नेताओं में हैं जिन्हें कम उम्र में ही बड़ा पद और बड़ी जिम्मेदारी निभाने का मौका मिला है, भले ही इसके पीछे उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि की बड़ी भूमिका रही. उत्तरप्रदेश में तो सत्ता परिवर्तन का प्रस्तावित समय चार साल बाद आना है, और लोकसभा का चुनाव उससे पहले होना है, ऐसे में वहां भी अपनी ताकत आजमाने में हर्ज़ ही क्या है?
(रतनमणि लाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार है)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)