चले गए भाजपा को `सबका` साथ दिलाने वाले अटल
अटल जी को पता था कि भारत भावनाओं से चलने वाला मुल्क है. वह किसी वाद से जुड़ तो सकता है, लेकिन चल नहीं सकता.
‘ऐसा नहीं था कि बाजार में माल नहीं था, बाजार में माल था और माल बिकाऊ भी था, लेकिन कोई खरीदार नहीं था.'
भोपाल के लाल परेड ग्राउंड पर 1999 के लोकसभा चुनाव से पहले अटल बिहारी वाजपेयी बोल रहे थे. लोकसभा में सैफुद्दीन सोज के एक वोट से वाजपेयी सरकार गिरने के बाद ये चुनाव जरूरी हो गए थे. वाजपेयी चुनावी सभा में जो कह रहे थे, उसका इशारा था कि किस तरह वाजपेयी ने सांसदों की खरीद-फरोख्त से इनकार कर दिया था और सरकार गिर जाने दी थी.
एक बड़ा हुजूम था, जो लाल परेड ग्राउंड में उन्हें सुनने के लिए आया था. थोड़ी देर पहले ही अच्छी खासी बारिश हुई थी. मैदान की लाल मिट्टी गीली हो गई थी. मिट्टी जूतों से चिपक रही थी. मेरे खुद के जूते दो-दो किलो वजन के लग रहे थे. हल्की फुहार भी गिर रही थी. लेकिन लोग जमे हुए थे.
वाजपेयी जी ने और भी बहुत सी बातें कहीं होंगी जो इतनी सफाई से अब ध्यान में नहीं हैं. ध्यान में अगर कोई चीज है तो उनके अदा में घूमते हुए हाथ. मुस्कुराता हुआ चेहरा. ओज से भरी आंखें और वीर रस के कवि की तरह भीड़ पर छाया उनक वजूद.
मैं उस आदमी को सुन रहा था जिसने हिंदुस्तान में सियासत की 50 साल से चली आ रही धारा को बहुत सलीके से मोड़ दिया था. इस बदलाव के दौरान उसने सार्वजनिक जीवन और सार्वजनिक संवाद में कोई कटुता नहीं आने दी थी. यह वही नेता था जिसने एक तरफ बाबरी मस्जिद ढहने के पहले ‘मैदान समतल’ करने की बात कही थी और जो भविष्य में गुजरात दंगों के बाद ‘राजधर्म निभाने’ की बात कहने वाला था.
वह विरोधाभासों को साधने वाले अद्भुत शख्स थे. वह संतुलन बनाने का लाजवाब महारथी थे. दक्षिणपंथी राजनीति का सबसे बड़ा और सबसे पुराना चेहरा होने के बावजूद वह हमारे समय का सबसे उदारवादी और सबसे मॉडरेट और सहिष्णु नेता दिखाई देते थे.
एक ऐसा समय था, जब भारतीय जनता पार्टी कहीं थी ही नहीं और न उसके पास कोई उम्मीद ही थी. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए 1984 के लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस एकतरफा चुनाव जीत रही थी तो वाजपेयी कहते थे कि यह लोकसभा का नहीं, शोकसभा का चुनाव हो रहा है. और उनके आकलन के मुताबिक बीजेपी बुरी तरह हारी.
लेकिन बमुश्किल तीन साल बाद बीजेपी फिर मैदान में आ गई. अटलजी ने एक ऐसे समय में भारतीय जनता पार्टी को खड़ा कर दिया, जब किसी को उसकी उम्मीद नहीं थी. आज के समय में बड़ी संख्या में सवर्णों का वोट हासिल करना बीजेपी के लिए बड़ी बात नहीं है, लेकिन जब 1989 में वाजपेयी यह वोट मांगने निकले थे, तब भले ही उत्तर भारत में राम मंदिर की लहर चल रही थी, लेकिन ब्राह्मण और ठाकुर परिवारों में परिवार के मुखिया वही लोग थे जो पिछले 50 साल से कांग्रेस से जुड़े थे. उसके वोटर थे, उसके सपोर्टर थे, और कांग्रेस विचारधारा को जिया करते थे.
इसलिए उनकी मौजूदगी में पंजे को हटाकर कमल खिलाना बड़ी बात थी. आडवाणी का उग्र हिंदुत्व युवाओं को अपनी ओर खींच रहा था, लेकिन वाजपेयी का उम्रदराज उदार ब्राह्मण चेहरा सवर्ण हिंदू परिवारों में धीरे से एक ऐसी खिड़की खोल रहा था, जहां से झांककर पुराने सवर्ण कांग्रेसी परिवार संघ की शाखा में पनपी बीजेपी का नजारा लेने को तैयार हो गए थे. एक बार जब वे इस नए भगवा घर में दाखिल हो गए तो अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें कभी लौटने नहीं दिया.
वाजपेयी ने उनके सामने नए सपने रख दिए. वाजपेयी एक तरफ नवाज शरीफ से गले मिल रहे थे और भारत-पाक के बीच समझौता बस चला रहे थे, तो दूसरी तरफ कारगिल में पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब दे रहे थे. इतनी बड़ी लड़ाई के बाद वे एक बार फिर आगरा में इस षड्यंत्र के सूत्रधार परवेज मुशर्रफ के साथ बात करने को राजी थे.
वे धारा 370 और राम मंदिर से पीछे नहीं हटे, लेकिन 14 दलों से मिलकर बने एनडीए के कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में बीजेपी के डीएनए में शामिल मुद्दों के लिए कोई जगह नहीं थी. ऐसा करते समय भी वह बीजेपी के पुराने वोटर को नाराज नहीं कर रहे थे और नए जुड़े सहिष्णु वोटर को आशा की एक नई किरण दिखा रहे थे.
वाजपेयी के लिए यह नया काम नहीं था. विचारधाराओं को वक्त के हिसाब से फाइन ट्यून करना या यूं कहें पत्तों की तरह फेंट देना उनका पुराना हुनर था. जब उन्होंने जनसंघ का जनता पार्टी में विलय किया तो हिंदुत्व के एजेंडे से पूरी तरह बाहर होने की बात कही. वह धारा 370 और समान नागरिक संहिता भूल गए. जब जनता पार्टी से बाहर निकले और भारतीय जनता पार्टी बनाई तो उसके सिद्धांतों में गांधीवादी समाजवाद को आगे कर दिया. लेकिन देखा कि इससे बात बन नहीं रही है तो एक बार फिर दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद को भारतीय जनता पार्टी के मूल सिद्धांत में ले आए और गांधीवादी समाजवाद को पार्टी की आर्थिक नीतियों में एक छोटी सा कमरा दे दिया. इस बदलाव से राम मंदिर आंदोलन में आगे बढ़ना आसान हो गया. कोई चाहे तो उसे वैचारिक अवसरवादिता कह सकता है, लेकिन वाजपेयी ने इसे राजनीति का मध्यम मार्ग माना.
वह शिवाजी के छापामार युद्ध के सिद्धांतों पर चले. जब जरूरत पड़ी कम्युनिस्टों के साथ आ गए, जब जरूरत पड़ी उनके खिलाफ चले गए. संपूर्ण क्रांति और जेपी के समय समाजवादियों के साथ हो लिए और जब आडवाणी का राम रथ बिहार में रोका गया तो फिर जनता दल से अलग हो गए. कांग्रेस के अलावा शायद ही कोई पार्टी ऐसी थी जो उनके लिए ग्राह्य नहीं थी. क्योंकि कांग्रेस के लिए भी वे अछूत ही थे.
लेकिन इस खुली अदावत के बावजूद उन्होंने कभी यह कहने में गुरेज नहीं किया कि पंडित नेहरू ने कहा था कि अटल बिहारी वाजपेयी एक दिन भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे. बांग्लादेश निर्माण के बाद उन्होंने यह कहने में कोई लाग-लपेट नहीं किया कि इंदिरा गांधी दुर्गा हैं. और बोफोर्स कांड पर राजीव गांधी की राजनीति को तकरीबन खत्म कर देने वाले वाजपेयी ने राजीव के निधन के बाद यही कहा कि किस तरह उनकी बीमारी का इलाज सम्मान सहित कराने के लिए राजीव ने उन्हें सरकारी दौरे पर विदेश भेजने का इंतजाम किया था. राजनीति में व्यक्तिगत और सामाजिक बड़प्पन का यह आखिरी दौर था, जहां लड़ाई विचारधाराओं की थी व्यक्तियों की नहीं.
उन्हें पता था कि भारत भावनाओं से चलने वाला मुल्क है. वह किसी वाद से जुड़ जो सकता है, लेकिन चल नहीं सकता. जो लोग रामलला के नाम पर उनके साथ आ गए हैं, उन्हें साथ बनाए रखने के लिए कोई नया नारा देना होगा. कोई उम्मीद की किरण जगानी होगी. इसीलिए उन्होंने पोखरण में परमाणु विस्फोट कर एक नई किस्म के राष्ट्रीय गौरव का एहसास लोगों को कराया. उनकी सरकार में बजट पेश करने का समय शाम की बजाय सुबह किया गया, इसके माध्यम से उन्होंने संकेत दिया कि हम अंग्रेजों की परिपाटी से दूर हो रहे हैं.
वाजपेयी यहीं नहीं रुके. वह गांव और शहर में सड़कों का नया जाल बिछाने को तैयार थे. उन्हें पता था कि भारत में उभरता नया मध्यमवर्ग उनसे और भी बहुत कुछ चाहता है. वह गांव में प्रधानमंत्री सड़क ले जा रहे थे तो राष्ट्रीय राजमार्गों के मौजूदा ढांचे को नया अंदाज दे रहे थे.
इस सबके बीच दुनियाभर का विरोध मोल लेते हुए पूंजीवाद को उदारीकरण की शक्ल में आगे बढ़ा रहे थे. राष्ट्र की संपत्तियों का विनिवेश हो रहा था, सरकारी कर्मचारियों की पेंशन खत्म हो रही थी. देश में 'शाइनिंग इंडिया' का शोर हो रहा था. वाजपेयी के साथ लंबे समय तक काम करने वाले के एन गोविंदाचार्य ने उनकी मृत्यु से ठीक पहले दिए एक इंटरव्यू में लेखक से कहा कि इन सब प्रवृतियों को वाजपेयी जी समझ रहे थे. वे जानते थे कि यह दिखावटी चीजें उन भावनाओं के खिलाफ हैं, जिनके चैंपियन वह लंबे समय से रहे हैं. वह स्वदेशी के नारे के साथ राजनीति में चमके थे, वे 'शाइनिंग इंडिया' के शोर को पहचानते थे. उस समय पार्टी में खासी हैसियत रखने वाले और प्रोपगंडा की कमान संभालने वाले प्रमोद महाजन जब समय से पहले चुनाव कराने में जुटे तो वाजपेयी जी इसके पक्ष में नहीं थे. लेकिन जब पार्टी दूसरी दिशा में चली गई तो वह पार्टी के पीछे चल दिए.
उनका यही तरीका था, उनका यही अंदाज था. यही अंदाज उन्होंने तब दिखाया था, जब लालकृष्ण आडवाणी सोमनाथ से अयोध्या की यात्रा पर निकले थे. वाजपेयी को यात्रा पसंद नहीं थी लेकिन होने दी. यही अंदाज उन्होंने गुजरात दंगों के बाद दिखाया, जब उन्होंने राजधर्म की बात कही लेकिन जब पार्टी का रुख देखा तो राज्य में नेतृत्व परिवर्तन करने पर अड़े नहीं.
दरअसल अड़ना वाजपेयी का स्वभाव था ही नहीं. और यही उनकी भारतीयता भी है. उनकी भारतीयता कभी किसी चीज से उलझती नहीं है. वह गंगा नदी की तरह बहती जाती है. जब कोई पहाड़ सामने आता है तो बल खाती है. जब चट्टानें सामने आती हैं तो हर-हराती है. जब मैदान आता है तो नि:शब्द बहती चली जाती है. वह इस बात से परहेज नहीं करती कि उसमें कौन सी नदी, कैसा पानी लेकर, कहां मिल रही है. वह सिर्फ इस बात की फिक्र करती है कि उसका नाम गंगा ही रहे और वह गंगोत्री से गंगासागर की तरफ बढ़ती रहे.
अगर यात्रा जारी है तो बाधाओं की क्या चिंता. वाजपेयी यही करते रहे हुए जब 2004 में सत्ता से बाहर हो गए तो पूरी गरिमा के साथ हुए. और आज जब लंबी बीमारी के बाद वह दुनिया से विदा हुए हैं, तो भी पूरी शान और मर्यादा के साथ हुए हैं. आज उनके जाने से तिरंगा भी उदास है और भगवा भी उदास है. वाजपेयी चले गए. भारतीय राजनीति का नेहरू से लेकर मोदी तक का जमाना देखने वाला पुराना यात्री चला गया. लेकिन वह जाने के बाद भी भारतीय सियासत के कान में चुपके से कहता रहेगा- 'बाजार में माल था, माल बिकाऊ था, लेकिन खरीदार नहीं था. अलविदा अटल.'
लेखक जी न्यूज डिजिटल में ओपिनियन एडिटर हैं)
(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)