दिलीप कुमार से पहले और दिलीप कुमार के बाद...
दिलीप कुमार को Accidental Actor कहा जाता है.. क्योंकि ना तो उन्हें बचपन से हीरो बनने का शौक था...और ना ही उन्होंने एक्टिंग की कोई पढ़ाई की थी,और शायद यही वजह है कि उनकी अदाकारी में एक स्वाभाविकता थी,जिससे उनके किरदार दर्शकों पर एक गहरा असर छोड़ते थे.
1947 में भारत को आजादी मिली और 1947 में ही फिल्म जुगनू के जरिए दिलीप कुमार ने पहली बार एक एक्टर के तौर पर सफलता हासिल की. हिंदी सिनेमा के 100 साल के इतिहास के शुरुआती दौर में जिस तरह से नाटकीय अभिनय होता था, उस तरीके को बदलते हुए दिलीप कुमार ने सादगी से बोले गए डॉयलॉग्स और चेहरे के सधे हुए हावभाव को अहमियत देते हुए अभिनय के एक नए प्रकार को जन्म दिया.
युवा पीढ़ी और समाज पर छोड़ी गहरी छाप
दिलीप कुमार को Accidental Actor कहा जाता है.. क्योंकि ना तो उन्हें बचपन से हीरो बनने का शौक था...और ना ही उन्होंने एक्टिंग की कोई पढ़ाई की थी,और शायद यही वजह है कि उनकी अदाकारी में एक स्वाभाविकता थी,जिससे उनके किरदार दर्शकों पर एक गहरा असर छोड़ते थे. दिलीप कुमार के निधन के साथ ही हिंदी सिनेमा की उस तिकड़ी का भी अंत हो गया जिसने 50 और 60 के दशक में सिनेमा को नई उंचाइयों पर पहुंचाया. राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार... ये वो एक्टर्स थे जिनकी फिल्मों ने समाज और उस वक्त की युवा पीढ़ी पर अपनी गहरी छाप छोड़ी.
अशोक कुमार ने दिया सक्सेस मंत्र
दिलीप कुमार ने अपने एक्टिंग करियर का सबसे पहला और महत्वपूर्ण मंत्र अशोक कुमार से सीखा था. वो अशोक कुमार की कही गई बात को खुद के लिए Acting Guideline मानते थे. अशोक कुमार ने दिलीप कुमार को समझाया था की ACTING IS ALL ABOUT NOT ACTING... उन्होंने दिलीप कुमार से ये भी कहा कि मेरी ये बात तुम्हें अभी confuse करेगी, परेशान करेगी, लेकिन जब तुम कैमरे के सामने रहोगे तो तुम्हें मेरी बात का अर्थ समझ आ जाएगा. अशोक कुमार को अपना आदर्श मानने वाले दिलीप कुमार ने अपनी हर फिल्म में इस बात का ख्याल रखा कि उनकी भाषा, उनके हाव-भाव, यहां तक की आवाज भी किरदार पर हावी ना हो, बल्कि उसे खूबसूरत बनाने का काम करे.
बंटवारे से पहले आए बॉम्बे
दिलीप कुमार का जन्म पेशावर में हुआ था और बंटवारे से पहले ही उनका परिवार मुंबई, (जो उस वक्त बॉम्बे हुआ करता था) वहां आकर बस गया था, लेकिन बंटवारे का दर्द सीधे तौर पर ना झेलने के बावजूद दिलीप कुमार के मन पर उस दौर की घटनाओं ने गहरा असर छोड़ा. मनोज कुमार के भारत कुमार बनने से पहले दिलीप कुमार ही थे जिन्होंने 1948 में आई 'शहीद' में एक राष्ट्रवादी युवा की भूमिका निभाई जो 1942 के Quit India Movement में शामिल होता है.
54 साल तक स्क्रीन पर राज
दिलीप कुमार का करियर 1944 से शुरु हुआ और 1998 तक चला. 54 साल तक हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सक्रिय रहने वाले दिलीप कुमार ने अपने करियर में हर तरह के किरदार निभाए. लेकिन 'देवदास' और 'मुगल-ए-आजम' जैसी फिल्में करने की वजह से उन्हें ट्रैजेडी किंग का खिताब मिल गया
इन दो iconic फिल्मों के अलावा भी दिलीप साहब ने कई ऐसी फिल्मों में काम किया जिसमें उनका रोल ट्रैजिक था. रील लाइफ में सीरियस रोल करते करते दिलीप कुमार की रियल लाइफ पर भी असर पड़ने लगा. एक वक्त पर उन्हें Pyschiatrist की मदद भी लेनी पड़ी जिन्होंने उन्हें सलाह दी कि वो कुछ अलग तरह की और हल्की फुल्की फिल्में भी करें और दिलीप साहब ने ऐसा किया भी, लेकिन दर्शकों के दिल के सबसे ज्यादा करीब वही किरदार रहे जिनमें दिलीप कुमार ने अपनी जान निकालकर रख दी.
5 साल के लिए लिया था ब्रेक
5 दशक के करियर में एक वक्त ऐसा भी आया जब दिलीप कुमार ने फिल्मों से ब्रेक लिया.1976 में दिलीप कुमार लगभग 5 साल के लिए सिल्वर स्क्रीन से दूर हो गए. ये वो दौर था जब हिंदी सिनेमा में राजेश खन्ना का दबदबा था. उन्हें बॉलीवुड का सबसे बड़ा सुपरस्टार माना जाने लगा था. 1973 में दिलीप कुमार की ही छोड़ी हुई फिल्म 'जंजीर' ने अमिताभ बच्चन को सुपरस्टार बना दिया. इस दौरान दिलीप साहब ने अपने करियर को नई दिशा देने की ठानी और फिर 1981 'क्रांति' से उन्होंने कैरेक्टर रोल्स करने शुरु किए और 'शक्ति', 'मशाल', 'कर्मा' और 'सौदागर' जैसी शानदार फिल्मों में काम किया. दिलीप कुमार ने ये साबित कर दिया था कि उनकी एक्टिंग में इतना दम है कि चाहे उनके पहले कितने भी बेहतरीन कलाकार रहे हों या उनके बाद कितने भी बड़े स्टार आ जाएं... उनकी जगह लेना असंभव है...और जैसा कि अमिताभ बच्चन ने अपनी श्रद्धांजलि में कहा कि हिंदी सिनेमा का जब भी इतिहास लिखा जाएगा वो हमेशा Before Dilip Kumar और After Dilip Kumar रहेगा.
(लेखिका अदिति अवस्थी ज़ी न्यूज़ में एडिटर-एंटरटेंमेंट हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखिका के निजी विचार हैं)