शहर की भागदौड़ भरी जिंदगी से दूर जंगल की हसीं शाम दिलों-दिमाग पर कई ऐसे अहसास छोड़ जाती है, जिसे शायद ही कभी भुलाया जा सके. कुछ वक्त पहले मैंने भी इसका अनुभव किया. यूं तो वाइल्ड लाइफ और खासकर बाघ के प्रति प्रेम में मैंने कई जंगलों का दीदार किया है, लेकिन मध्यप्रदेश के पन्ना की यात्रा बेहद खास रही.


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छतरपुर जिले में आने वाला पन्ना नेशनल पार्क 1645.08 स्क्वेयर किलोमीटर में फैला है और राज्य के सबसे घने जंगलों में शुमार है. हर रोज सैंकड़ों पर्यटक इसके दीदार के लिए पहुंचते हैं. पर्यटकों के लिए अभ्यारण्य दिन में दो बार खुलते हैं, सुबह और शाम. बारिश के मौसम में अपेक्षाकृत पर्यटकों की आवाजाही यहां बंद रहती है. मैं जिस वक्त पन्ना पहुंचा, बादल दिल खोलकर बरस रहे थे. बादलों का ऐसा रूप देखकर मन में आशंकाओं ने जन्म लिया कि कहीं उल्टे पैर वापस न लौटना पड़े, लेकिन शायद इंद्रदेव ने मेरी सुन ली. बादलों ने बरसना बंद किया और एक रोमांचकारी यात्रा की शुरुआत हुई. 


पर्यटकों को सैर कराने के लिए पार्क प्रबंधन ने कई इंतजाम किए हैं, जिनमें जीप जैसी गाड़ियां शामिल हैं. अधिकतर जीप आसपास के ग्रामीणों की हैं, जिन्हें पार्क प्रबंधन द्वारा प्रशिक्षित किया गया है. इसका उद्देश्य गांव वालों को रोजगार के साधन मुहैया कराकर उन्हें जंगल के करीब लाना है. जंगल और जंगली जीवों की सुरक्षा काफी हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि ग्रामीण उनके बारे में क्या सोचते हैं. पन्ना पार्क प्रबंधन ने इस दिशा में पिछले कुछ वक्त में काफी काम किया, जिसके सकारात्मक परिणाम अब देखने को मिल रहे हैं.


गेट खुलते ही मैं एक जीप में सवार होकर अभ्यारण्य में दाखिल हो गया. जंगल में अगर आप हर छोटी बात का आनंद लेना चाहते हैं तो प्रशिक्षित गाइड का होना बेहद जरूरी है. पन्ना में गाइडों के लिए फीस निर्धारित की गई है, ताकि पर्यटकों के साथ लूट जैसे हालात पैदा न हों. पार्क में हमारा स्वागत सबसे पहले चीतलों के झुंड ने किया. खाने-पीने की आसान उपलब्धता के चलते यहां चीतल काफी संख्या में हैं, जो बाघ और उसके जैसे मांसाहारी जानवरों के लिए अच्छी बात है. थोड़ा और आगे बढ़ने पर हमारा सामना सांभर से हुआ. जीप की आवाज सुनकर मां अपने छोटे बच्चे को लेकर झाड़ियों में जा छुपी. बच्चा बड़ी उत्सुकतावश हमारी तरफ टकटकी लगाए देख रहा था, मानों पूछ रहा हो कि मेरे घर में आप कौन? कुछ देर तक एक-दूसरे को देखने का सिलसिला चलता रहा, इसके बाद सांभर मां-बच्चा हमारी नजरों से ओझल हो गए.


पन्ना में चीतल के साथ-साथ सांभर भी काफी ज्यादा हैं. जंगल आने वालों की पहली तमन्ना बाघ का दीदार होती है, निसंदेह मेरी सोच भी इससे जुदा नहीं थीं, लेकिन बाघ के इंतजार के हर पल में जंगल की कई अनगिनत खूबसूरतियों का मैं अनुभव कर रहा था. ऊंचे-नीचे रास्तों से गुजरते समय गाइड ने कई ऐसे पेड़ और पक्षियों के बारे में बताया, जिनके नाम भी इससे पहले सुनने में नहीं आए थे. हमारी जीप देओरादेव से आगे कि ओर चली जा रही थी, जिन गांवों को अभ्यारण्य की सीमा में शामिल किया गया उनके नाम संबंधित इलाकों के लिए आज भी इस्तेमाल किए जाते हैं. देओरादेव भी उन्हीं में से एक हैं. 


अचानक गाइड ने ड्राइवर को रुकने के लिए कहा, मेरी निगाहें भी गाइड के हाथ की दिशा में घूम गईं. झाड़ियां काफी तेजी से हिल रहीं थीं, मानों कोई युद्ध चल रहा है. कुछ ही देर में एक जैकॉल (सियार) मुंह में मांस दबाए तेजी से निकला और हमारी जीप के सामने से होता हुआ जंगल के दूसरी ओर ओझल हो गया. चंद ही मिनट में एक दूसरा जैकॉल उसी दिशा में भागता नजर आया, भोजन को लेकर इस तरह के द्वंद्व जंगल में आम हैं. कई बार यहां शिकार करने वाला खुद भूखा रह जाता है. दिन का पहला फेरा खत्म होने को था, इसलिए ड्राइवर ने जीप वापस गेट की तरफ मोड़ दी. बेहद रोमांचकारी यात्रा के पहले पड़ाव में काफी कुछ देखने और जानने-समझने का मौका मिला. हालांकि बाघ के दीदार की हसरत अभी भी अधूरी थी.



शाम के वक्त एक बार फिर हमारी जीप पार्क में दाखिल हुई. गाइड को विश्वास था कि इस बार बाघ देखने को मिल जाएगा. पन्ना में बाघों की तादाद ज्यादा होने के चलते आमतौर पर पर्यटकों को उनके दीदार के लिए ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ता, लेकिन फिर भी जंगल में बाघ का सामना काफी हद तक किस्मत पर निर्भर करता है. मुझे उम्मीद थी कि मेरी किस्मत इस मामले में साथ जरूर देगी, गाइड का विश्वास देखकर भरोसा और भी ज्यादा बढ़ गया था. कुछ आगे पहुंचने पर घने जंगल के बीच से एक नदी बहती दिखाई दी. कर्णावती नामक यह नदी पन्ना नेशनल पार्क को दो भागों में विभाजित कर आगे बढ़ जाती है. 


नदी का सुर्ख नीला पानी देखकर जेहन में रुमानी कहानियों की याद खुद ब खुद ताजा होने लगी थी. सुख-सुविधाओं से लबरेज शहर की जिंदगी से दूर कुछ क्षण यहां गुजाकर लगा मानो वक्त यहीं थम जाए. ऊंचाई से निहारने पर नदी की खूबसूरती ऐसी प्रतीत हो रही थी जैसे कोई अप्सरा गांव की पगडंडियों पर मटके से पानी छलकाते हुए आगे बढ़ रही है. एक लंबा सा चक्कर लगाकर वापस लौटते वक्त नदी के बीच चट्टान पर बैठा एक विशालकाय मगरमच्छ देखने को मिला. आमतौर पर मगरमच्छ हल्की सी आवाज सुनकर भी पानी में उतर जाते हें, लेकिन इसे हमारी मौजूदगी की परवाह नहीं थी. वो सिर्फ मुंह खोलकर गुजरती धूप का आनंद उठाने में मगन था.


अपने अंदर अनगिनत कहानियां समेटे कर्णावती ने मुझे उस हकीकत से भी परिचित कराया जिसे मैं अब तक महज सुनता आ रहा था. ‘सुरखाव के पर लग गए हैं’, इस कहावत का हम अक्सर इस्तेमाल करते हैं, लेकिन इसकी उत्पत्ति का पता मुझे पन्ना आकर ही चला. नदी किनारे अठखेलियां करते जिन दो सफेद पक्षियों को मैं निहारने में मशगूल था, उनकी पहचान गाइड ने सुरखाव के तौर पर करवाई. अंग्रेजी में इन्हें ‘रूडी शेल डक’ कहा जाता है. सफर आगे बढ़ा तो कई दिलचस्प जानवरों के भी दर्शन हुए. चीतल और सांभर की तरह पन्ना में जंगली सूअर की कलाकारी देखने के लिए भी ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती. जंगली सूअर मांसाहारी होने के साथ ही घास की जड़ खाना पसंद करते हैं और इस जद्दोजहद में वो पूरा इलाका ही खोद डालते हैं. कई बार इसके फायदे भी होते हैं और नुकसान भी. सूरज ढलान पर था और हमारा दूसरा पड़ाव भी, लेकिन बाघ अब भी कहीं नजर नहीं आया था. मेरी इस यात्रा का कल सुबह आखिरी सफर था, इसलिए उम्मीद थी कि शायद बाघ गुडबाय कहने सामने आ जाए. जंगल में जो एक चीज कभी नहीं छोड़नी चाहिए वो है उम्मीद, यहां हर पल कई संभावनाओं को जन्म देता है.


पन्ना में यह मेरी आखिरी सुबह थी. जंगल की हाड़कंपा देने वाली ठंड का असर मेरी पत्नी और बाकी सैलानियों पर साफ नजर आ रहा था, लेकिन पता नहीं क्यों मैं इससे पूरी तरह अछूता था. शायद रोमांच ने मेरे शरीर को जैसे पूरी तरह सुन्न कर दिया था. खुली जीप में खड़े होकर जंगल को निहारते वक्त सर्द हवाएं जब कानों को छूकर गुजरतीं तो मौसम में नमी का अहसास होता, लेकिन जंगल की खुमारी उसे हावी नहीं होने देती. ठंड में अपने शरीर को गर्म रखने के लिए अधिकतर जानवर भी सुबह के वक्त धूप सेंकने बाहर निकलते हैं. इसलिए गाइड को उम्मीद थी कि नदी के आसपास खुले इलाके में बाघ नजर आ सकता है. 


संभावनाएं तलाशते हुए हमारी जीप बाघ की खोज में चल निकली. हम बमुश्किल थोड़ा ही आगे बढ़े होंगे कि कुछ जानवर खौफजदा अंदाज में भागते हुए नजर आए. गाइड को ये समझते देर नहीं लगी कि जरूर कोई शिकारी आसपास है. उसने ड्राइवर को जीप का इंजन बंद करने को कहा, मेरी निगाहें पूरी तरह से झाड़ियों पर टिक गईं. थोड़ी देर की खामोशी के बाद जो शिकारी झाड़ियों से बाहर आया वो तेंदुआ था. ये सबकुछ इतना जल्द हुआ कि मुझे कैमरा तक चलाने का वक्त नहीं मिला. तेंदुए को खुले जंगल में देखने का अनुभव मेरे लिए ही नया नहीं था, गाइड ने भी उसे इससे पहले कभी ऐसे नहीं देखा था. सिर्फ एक झलक दिखाकर तेंदुआ ऐसे गायब हो गया, मानों खासतौर पर मेरी यात्रा में रोमांच भरने आया था. हालांकि इस यात्रा के सबसे बड़े रोमांच का मुझे अब भी इंतजार था. जीप आगे बढ़ती जा रही थी और वक्त भी, लेकिन बाघ जैसे हमसे रूठा बैठा था. उत्सुकता भरी आंखें बस यही आस लगाए बैठी थीं कि जंगल का सबसे खूबसूरत प्राणी एक बार सामने आ जाए. इस यात्रा में मुझे कई दिलचस्प पहलुओं से रू-ब-रू होने का मौका मिला, लेकिन फिर भी मैं इसे बाघ के दीदार के बगैर खत्म होते देखना नहीं चाहता था.


जंगल में बाघ जैसे शिकारियों की आसपास मौजूदगी का पता काफी हद तक लंगूर और पक्षियों के व्यवहार को देखकर लगाया जा सकता है. एक पेड़ पर लंगूर शोर मचाकर उछलकूद कर रहे थे, ये उनका दूसरे जानवरों को सचेत करने का तरीका है. गाइड को पूरा विश्वास था कि बाघ कहीं नजदीक ही है, अब तो मुझे भी लगने लगा था कि बाघ दर्शन देने के लिए आ गया है, बस हमें उसे खोजना है. काफी देर तक खामोशी के साथ हमारी निगाहें हर पेड़ और झाड़ी को स्कैन करती रहीं. तभी गाइड ने बेहद धीमी आवाज में कहा, अपने दाहिने हाथ की तरफ झाड़ियों में देखिए. जैसे ही मैंने नजरें घुमाईं, प्रार्थना के पूरा होने का अहसास हुआ. बाघ को इस तरह स्वछंद रूप में देखने का ये मेरा पहला अनुभव था. मेरी खुशी कैमरे की क्लिक के तौर पर सामने आ रही थी.


बीच-बीच में बाघ हमारी तरफ देखता और फिर ऐसे नजरें फेर लेता मानों देखा ही न हो. मनुष्य के इतना करीब होने का भय उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में कहीं भी नजर नहीं आ रहा था. शायद बाघ को अहसास था कि वो यहां सुरक्षित है या फिर उसे मेरा साथ पसंद आ रहा था. काफी देर तक हम एक-दूसरे को देखते रहे, न वो कहीं जाने के मूड में था और न ही मेरी इच्छा वापस लौटने की थी, लेकिन घड़ी हमें वापसी का संकेत दे चुकी थी. गाइड ने ड्राइवर को चलने के लिए कहा, जीप की आवाज सुनकर बाघ ने मुड़कर देखा, मानों वो गुडबाय कह रहा हो. शायद यही वो लम्हा था, जिसका मैं अब तक इंतजार कर रहा था. मन को सुकून देने वाली जंगल की शांति को पीछे छोड़कर हम बाहर पहुंच चुके थे. मैंने गाइड और ड्राइवर का धन्यवाद किया और सुनहरी यादों के साथ वापस उस मंजिल की ओर चल निकला जहां दिन की शुरुआत गाड़ियों के शोर से होती है.


कैसे पहुंचे
पन्ना के लिए कोई सीधी ट्रेन नहीं है. आपको सबसे पहले ट्रेन से सतना आना होगा, यहां से टैक्सी आपको पन्ना नेशनल पार्क तक पहुंचा देगी.


और क्या देखें
पन्ना में नेशनल पार्क के अलावा कई प्राचीन मंदिर भी हैं. अगर आपको आध्यात्म और इतिहास में दिलचस्पी है तो मंदिरों को देखना न भूलें. पन्ना हीरे की खदानों के लिए भी प्रसिद्ध है.


अनुकूल समय
अक्टूबर से नवंबर


(डिस्क्लेमर: लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.)