एटीएम में नकदी की कमी की खबरें सनसनीखेज हैं. मीडिया में जितनी खबरें हैं उन्हें देखकर तो नहीं लगता कि अफरातफरी जैसा माहौल है, लेकिन समस्या तो गंभीर है ही. किसी टीवी चैनल पर एटीएम में पैसे नहीं होने का सीधा प्रसारण है तो दूसरे-तीसरे पर पैसे निकलते दिखाने का प्रचार है. जो लोग बैंकिंग प्रणाली को समझते हैं और जो यह बात जानते हैं कि नकदी की कमी से कितना बड़ा हादसा हो जाता है, तो उन्हें यह जरूर बताना चाहिए कि नकदी की कमी की बात उठना ही कितना संवेदनशील मामला है. यानी अभी भले कोई हादसा न दिख रहा हो, लेकिन हादसे के पूर्व लक्षण जरूर दिख रहे हैं. वक़्त रहते इनका उपचार हो गया तो ठीक है वरना बाद में अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने का कोई बहाना तक नहीं मिलता. देश में नकदी की खबरें वाकई इस आफत के कुछ पहलुओं पर गौर की मांग कर रही हैं...


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

नकदी का चक्कर है क्या?
नकद और उधार का चक्कर सबको पता है. वे दिन हवा हुए जब व्यापार में लोग आगे की तारीख के चैक लेकर सामान दे दिया करते थे. अब व्यापार में एक-दूसरे पर यकीन खत्म मानिए. ऊपर से डिजिटल युग ने हाल के हाल पैसे लेने की सुविधा दे दी. कोई बहाना नहीं बचा. यानी जरूरी है कि या तो हाथ में नकदी हो या अकाउंट में पैसा हो. अगर किसी के पास एकाउंट में पैसा है भी तो वह हिसाब-किताब रखने के चक्कर से बचने के लिए नकदी का ही इस्तेमाल क्यों नहीं करेगा. अपनी जरूरत के हिसाब से बाद में खाते में दर्ज करता रहेगा. देश में पिछले दो साल में कैशलेस या लेसकैश का नारा लगाया गया था. लेकिन मौजूदा हालात बता रहे हैं कि लोगों को यह नारा भाया नहीं. खैर अभी बात नई ही है सो कैशलेस में लगे रहने की गुंजाइश दिखाई दे रही होगी. लेकिन हालात बता रहे हैं इस नारे की समीक्षा जितनी जल्दी कर लें उतना अच्छा है.


नकदी की मांग अचानक बढ़ने के अजीब तर्क
तर्क दिए जा रहे हैं कि नकदी की देश में कोई कमी नहीं. कहा जा रहा है कि अचानक नकदी की मांग बढ़ गई. लेकिन इस ‘अचानक‘ को भी तो बताना पड़ेगा. एक अजीब तर्क है कि फसल बिकने के दिन हैं. क्या पिछले साल इन दिनों ऐसे ही दिन नहीं थे. या पिछले दस-बीस साल में ऐसे ही दिन नहीं थे. यानी नकदी की मांग अचानक बढ़ने की बात बिल्कुल फिजूल लगती है. बल्कि बात उलटी है. नोटबंदी के पहले जितनी नकदी थी उससे भी 50 हजार करोड़ से ज्यादा नकदी इस समय बाजार और बैंकों में है. यानी देश में किसानों को नकदी की जरूरत की बजाए कुछ और नया हुआ है. एक और अजीब तर्क जो सुनने को मिल रहा है वह ये है कि नोट छापने के लिए स्याही और कागज़ का इंतजाम करने में दिक्कत आ रही है. जब नकदी पहले से ज्यादा है तो ये बात उठी ही कैसे कि नोटों की छपाई में दिक्कत है? यानी इस मामले में कुछ और हुआ है.


कुछ नया हो जाने की अटकलें
नकदी की कमी की खबर भले ही अभी फैली हो, लेकिन कोई भी अपना अनुभव बता सकता है कि पिछले डेढ़ साल से एटीएम या बैंक से पैसे निकालना उतना आसान बन नहीं पा रहा था जितना आसान नोटबंदी के पहले था. दो-तीन एटीएम से पैसा निकालने में नाकामी के बाद तीसरे या चौथे एटीएम से पैसे निकल आते थे सो पता नहीं चलता था कि नकदी की कमी है. लगता था कि मशीनें खराब होंगी. इतना ही नहीं कुछ बैंकों से एक बार में दो लाख से ज्यादा की रकम निकालने में किल्लत अभी एक महीने पहले भी दिखाई दे रही थी. बैंक कर्मचारी साफ कह देते थे कि आज पर्याप्त कैश नहीं है. हालांकि एक-दो रोज़ बाद फिर पैसे मिल जाते थे. इससे यह संदेश तो चला ही जा रहा था कि नोटबंदी के डेढ़ साल बाद भी बैंकों में पर्याप्त नकदी नहीं है. यानी यह न माना जाए कि नकदी की मांग अचानक बढ़ गई.


बैंकों की हालत सुनकर डर बैठ रहा था
क्या इस बात से कोई इनकार कर सकता है कि बैंकों की खस्ता हालत, खासतौर पर सरकारी बैंकों की खस्ता हालत की खबरें अभी पिछले एक साल से ही ज्यादा सुनी जा रही थीं. जिन लोगों को, खासकर सेवानिवृत्त लोगों को पीएफ और ग्रेच्युटी के दस-बीस-पच्चीस लाख रुपए एकमुश्त मिलते हैं वे सरकारी बैंकों में ही मियादी जमा करते हैं. बैंकों की हालत सुनकर क्या उनमें हौका नहीं बैठता होगा? ऊपर से मियादी जमा पर ब्याज दरें इतनी घटती चली गईं कि मियादी जमा में जोखिम लेने की प्रवृत्ति भी घटती जा रही थी. अगर पता करेंगे तो तीन-चार महीनों से बैंकों में मियादी जमा को आगे जमा करने की बजाए नकदी घर ले आने की प्रवृत्ति का पता चलेगा. ये कोई छोटी मोटी बात नहीं है. लेकिन इसे देखने की जहमत कोई उठा नहीं रहा था. लोगों में दुविधा और आशंका इतनी बढ़ गई कि आज से चालीस-पचास साल पहले जिस तरह से लोग घरों में पर्याप्त नकदी रखते थे वैसे ही हालात बनने लगे. बैंकों में जमा पैसा डूब न जाए इस डर से लोग अपना पैसा बैंकों से निकालकर घर पर रखते हुए देखे जा रहे हैं. नोटबंदी के समय के अनुभव के बाद खुलकर खर्च करने की प्रवृत्ति भी बदली है. अफेदफे की आशंका के मद्देनज़र घर में पैसा जमा रखने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है.


उद्योग व्यापार में मंदी
उद्यमी दुविधा में पड़ते जा रहे थे. पिछले साल की चारों तिमाहियों में विनिर्माण और सेवा क्षेत्र के आंकड़े बताते आ रहे थे कि ये क्षेत्र नोटबंदी के असर से मुक्त नहीं हो पाए. भले ही मंदी के फिजूल के अंदेशे हों, लेकिन ज्यादा जोखिम नहीं उठाने के लिए मशहूर पारंपरिक उद्यमी थम जाने में ही अपना भला समझते हैं. बहुत संभव है कि इसके चलते मुद्रा ने अपना वेग कम कर दिया हो. अर्थशास्त्र में मुद्रा का वेग समझने के लिए 'क्वांटिटी थ्योरी ऑफ मनी' उपलब्ध है. इस सिद्धांत में ‘एम‘ गुणा ‘वी' बराबर ‘पी‘ गुणा ‘टी' फॉर्मूले का इस्तेमाल होता है. इसमें एम मुद्रा की मात्रा है और वी मुद्रा का वेग है. पी यानी प्राइस या दाम और टी ट्रांजैक्शन यानी खरीद फरोख्त का आकार है. समझने में यह समीकरण कुछ जटिल जरूर है लेकिन नकदी की कमी से जितने बड़े अंदेशे हमारे सामने आकर खड़े हो गए हैं उससे निपटने के लिए विद्वानों को इस गुत्थी को समझना और समझाना पड़ेगा.


(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)