मेरी सिविल सर्विस परीक्षा की क्लास चल रही थी बहुत ही शांत और शानदार तरीके से. अंत में सवाल पूछने को कहा गया. काफी हाथ उठे लेकिन सभी हाथों को मौका दे पाना संभव नहीं था. मौका न मिलने पर इन्हीं में से एक हाथ उठकर खड़ा हो गया और सवाल पूछने की जिद्द करने लगा. जो गेस्ट लेक्चर दे रहे थे, उन्होंने उसे सवाल पूछने की इज़ाजत नहीं दी. वह जिद्द करने लगा. बातचीत बहस में तब्दील होने लगी. अंत में उस लड़के ने अपने बारे में यह सूचना देकर अपना अंतिम प्रक्षेपास्त्र दागा, 'सर! क्या आप जानते नहीं हैं कि मैं जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी) से हूं.' मुझे उस लड़के को क्लास से बाहर करना पड़ा.


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

पोस्ट ग्रेजुएट कर रहे इस छात्र ने यहां जेएनयू का जो परिचय दिया था, वह थी- बदतमीजी, अनुशासनहीनता, नियमों का उल्लंघन, भाषा की मर्यादाहीनता और घमंड (गर्व नहीं). जबकि मेरे लिए अब तक जेएनयू का मतलब था- वैज्ञानिक तर्कवादी दृष्टिकोण, प्रखर मानसिक चेतना, मार्क्सवादी विचारों का पक्षधर तथा सामाजिक-आर्थिक समानता का समर्थक एवं कार्यकर्ता. लेकिन शायद यह उसका पुराना परिचय था. 


ये भी पढ़ें : यह भारतीय मतदाता की नई और चमकदार आवाज है


आखिर दो साल पुरानी यह घटना मुझे अभी याद क्यों आई? यदि उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम नहीं आये होते तो यह घटना भी याद नही आई होती. हालांकि यहां मैं जिस परिणाम की चर्चा करने जा रहा हूं, उसकी चर्चा दूर-दूर तक और तनिक भी नहीं हुई है. फिर भी चर्चा की जानी चाहिए, क्योंकि यह भारतीय राजनीति की सेहत के लिए बहुत जरूरी है.


अभी के उत्तर प्रदेश के चुनाव में सबसे बड़े एवं चर्चित राजनीतिक दलों के अतिरिक्त एक अन्य महत्वपूर्ण अचर्चित दल भी दंगल में था और उसका नाम था- मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी. इसने 105 स्थानों पर अपने उम्मीदवार खड़े किये थे और इन सभी ने मिलकर कुल लगभग एक लाख वोट प्राप्त किये यानी कि प्रत्येक क्षेत्र से औसतन लगभग एक हजार वोट.


ये भी पढ़ें : क्या कहती है यूपी में मोदी और भाजपा की विशाल जीत 


भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के पतन की कथा अनजानी नहीं है. कोलकाता पर लगभग तीन दशक तक तथा कुछ अन्य राज्यों में बीच-बीच में शासन करने के बावजूद यदि इस पार्टी की आज ऐसी हालात है, तो उसके पीछे के कई-कारणों में से एक प्रमुख कारण के रूप में इसके उस युवा ब्रांड एम्बेसडर को लिया जा सकता है, जिसकी चर्चा मैंने ऊपर की है. उदण्डता और विरोध को ही जहां क्रान्ति का प्रतिरूप माना जायेगा, एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस तरह का पतन उसकी स्वाभाविक परिणति है.


हम लोग सन् सत्तर के दशक के उस दौर के साक्षी रहे हैं, जब मार्क्सवादी विचारधारा राजनीति कम एक जीवन तथा नैतिक विचारधारा ज्यादा थी. यह वोट बटोरने के एक उपकरण से अधिक जीवन जीने की एक ऐसी शैली थी, जिसने हम युवाओं में एक अलग ही प्रकार का आत्मविश्वास भरा था और घटनाओं तथा समस्याओं को देखने-समझने और समाधान करने का तरीका सुझाया था. और आज? इसके जवाब में मुझे जेएनयू वाला वह लड़का बार-बार याद आ जाता है. क्या उसकी जगह आज मैं स्वयं होता, तो जेएनयू को इसी रूप में परिभाषित करता? उत्तर देना मुश्किल जान पड़ रहा है. लेकिन मन में अफसोस की एक गहरी घाटी का निर्माण तो हो ही गया है, क्योंकि मैंने उसे जिया है, और उसकी बहुत प्यारी स्मृतियां मुझमें आज भी जीवित हैं.


(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार हैं)