मुझे नहीं मालूम आपमें से कितने लोगों ने श्रीराम राघवन की ‘बदलापुर’ देखी है. जिन्होंने देखी है, उन्‍होंने फि‍ल्‍म से क्‍या बातें सीखीं, कह पाना मुश्किल है, लेकिन अगर आपने नहीं देखी है, तो आपको जरूर देखनी चाहिए. ‘बदलापुर’  देश में बनी यादगार फिल्‍मों में से एक है. पूरी फिल्‍म फ्रेम दर फ्रेम हमारी जिंदगी के टुकड़ों को बयां करने के साथ यह भी बताती है कि बदले का कोई अंत नहीं है. 


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

हर बदला वास्‍तव में नए बदले की ‘भूमिका’ है. आधी होते -होते फिल्‍म में हीरो ‘विलेन’ के शेड में नजर आने लगता है और आखिर में नायक बदले की आग में खुद को पूरी तरह से विलेन बनाकर ही दम लेता है. इसमें कुछ किरदार अंधेरे हॉल में पड़ोस में बैठे अपरिचित के शरीर में उतरने की हद तक महसूस किए जा सकते हैं. 


ये भी पढ़ें: डियर जिंदगी : तनाव और रिश्‍तों के टूटे ‘पुल’


डिप्रेशन और तनाव के इस कॉलम में हम अचानक से 'बदलापुर' की चर्चा इसलिए करने लगे, क्‍योंकि नेशनल क्राइम ब्‍यूरो के आंकड़ों के अनुसार हर साल आत्‍महत्‍या करने वालों की संख्‍या बढ़ती जा रही है. इसके साथ ही स्‍थानीय स्‍तर, आस-पड़ोस में होने वाले अपराध भी पहले की तुलना में बढ़ते जा रहे हैं. 


जरा अपने बचपन की ओर लौटिए. अब बचपन के रंगों को पकड़ने की कोशिश करते हैं. उस समय हम दो विरोधाभासी चीजों के साथ बड़े हो रहे थे. पहला फिल्‍मों में (केवल हिंदी नहीं) हिंसा, बलात्‍कार और बदला एक सामान्‍य स्क्रिप्‍ट का हिस्‍सा होते थे. जो कुछ तीन घंटे अंधेरी कोठरी में बैठकर हम देखते थे, (इसमें महिलाओं को बेहद निचले दर्जे का नागरिक दिखाना जरूरी था). अभिताभ बच्‍चन जैसे बड़े स्‍टार जो आज संस्‍कार के पर्यायवाची हैं, महिलाओं के प्रति समाज में ‘दूसरे’ दर्जे के संस्‍कार डालने के जिम्‍मेदार हैं. 


ये भी पढ़ें: डियर जिंदगी : चलो कुछ 'तूफानी' करने से पहले...


बच्‍चन ही नहीं सिनेमा के आज के तीनों ‘खान और कुमार’ नायिका के प्रति प्रेम जताने के लिए जो रवैया अपनाते रहे, वह आज बड़े हो चुके लड़कों को सुपरहीरो का ‘यही’ तरीका सही है, सिखाने के लिए पर्याप्‍त है. 


समाज को बनाने में, उस पर असर की चर्चा करते हुए अक्‍सर हम सामाजिक पहलू को दरकिनार कर देते थे, क्‍योंकि नायक के नाराज होने का डर होता था. शुरू में मैंने विरोधाभासी इसलिए लिखा था, क्‍योंकि उस समय कुछ फिल्‍में ऐसे भी बन रहीं थीं, जिन्‍हें मोटे तौर पर ‘आर्ट’ सिनेमा कहा जाता था. लेकिन ऐसी फि‍ल्‍में केवल फेस्टिवल तक ही सीमित रहती थीं. 


ये भी पढ़ें- डियर जिंदगी: सुख जब तुम मिलोगे!


समाज में इनकी चर्चा आम आदमी तक नहीं थी. मुझे याद है, जब मैं आठवीं क्‍लास में हुआ करता था तो एक बार मेरे प्रिय दोस्‍त ने कहा, 'तुम्‍हें कौन-सा हीरो प्रिय है'. मैंने कहा, संजीव कुमार. उसने इतना ही कहा, 'लेकिन वह हीरो थोड़ी है, हीरो अमिताभ है. फि‍ल्‍म उसके नाम पर चलती हैं.' खैर, ‘चलने’ शब्‍द से मुझे कभी प्रेम नहीं रहा, मेरा जोर संदेश, गुणवत्‍ता की ओर था. 


चलिए हम जिंदगी पर लौटते हैं. तो आज जो पीढ़ी युवा हो रही है, उसके मूल विचार कैसे हैं, कहां से उसके दिमाग में छवियां बनती हैं, यह समझने के लिए सिनेमा अच्‍छा ‘टूल’ है. 


ये भी पढ़ें: डियर जिंदगी : ‘बड़ों’ की पाठशाला में तनाव


हां, उस समय एक चीज जरूर थी जो इस असर को कुछ हद तक रोकने का काम करती थी. वह थी- संयुक्‍त परिवार और एक-दूसरे के साथ रहते हुए, समावेशी नजरिए से बढ़ने का माहौल. यह मॉडल कुछ हद तक चीजों को संतुलित कर रहा था लेकिन तभी एकल (न्‍यूक्‍लियर) फैमिली बीच में आ गई. जहां बुजुर्गों का हस्‍तक्षेप हर दिन कम होता जा रहा है. तो गुस्‍से से भरे अभिभावकों का दौर आ गया है. जिनके दिमाग में कहीं न कहीं 'हिंसा बेहतर और जल्‍दी न्‍याय दिलाती है', का सबक है. इसलिए भी समाज में हर छोटी बात पर हिंसा की ओर जाने की आदत दिख रही है. 


ये भी पढ़ें: डियर जिंदगी : रिश्‍तों में अभिमान कैसे कम होगा!


हम हिंसक हो रहे हैं. समझदार,सब्रदार होने की जगह हम उस रास्‍ते जा रहे हैं, जो दिमाग में दशक-दर-दशक ठूंसा गया था. इसलिए इस सिंड्रोम को समझिए और जिंदगी को ‘बदलापुर’ होने से बचाइए.


Marathi में पढ़ने के लिए क्लिक करें- डिअर जिंदगी : तणाव आणि नात्याचे तुटलेले 'पूल'


सभी लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें : डियर जिंदगी


(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)


(https://twitter.com/dayashankarmi)


(अपने सवाल और सुझाव इनबॉक्‍स में साझा करें: https://www.facebook.com/dayashankar.mishra.54)