अगर आप दिल्ली-एनसीआर की सड़कों पर कार चला रहे हैं तो कानों में एफएम पड़ ही जाता होगा. अगर आप एफएम सुनते हैं तो आपने एफएम पर चलाए जा रहे कैंपेन के बारे में शायद सुना हो,जिसका नाम उन्होंने ‘मास्काथॉन’ रखा है. इस कैंपेन के ज़रिये वो दिल्ली-एनसीआर के लोगों को मास्क पहनकर बाहर निकलने के लिए प्रेरित कर रहे हैं और लोगों को मास्क बांट रहे हैं. उनके सवाल भी कुछ इस तरह के ही हैं कि मास्क क्यों नहीं पहनते हो, क्या फैशन खराब हो जाता है, क्या पैसों की कमी है फलाना ढिमाका. इस कैंपेन में रेडियो वाले और उनके सवालों के जवाब देने वाले, सब आखिर में एक बात बोलते हैं कि मास्क पहनिए और दिल्ली को प्रदूषण से बचाइए.


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कई बार अलग-अलग तरह से सुनने के बाद भी ये बात पल्ले नहीं पड़ रही है कि आखिर मास्क पहनने से शहर प्रदूषण से कैसे बचेगा. ये तो वो शुतुरमुर्गाना (बनाया हुआ शब्द) रवैया हो गया कि अगर तूफान दिख जाए या मुसीबत सामने खड़ी हो तो रेत में गर्दन घुसेड़ लो, मुसीबत को नहीं देखना या उससे नज़र फेरना यानी मुसीबत से बचना.


दरअसल ये हमारा रवैया बनता जा रहा है. ठीक है, प्रदूषण या पर्यावरण में सुधार के लिए ऊपरी स्तर पर काम किया जाना जरूरी है, लेकिन अगर इस तरह से हम मास्क बांटते हुए लोगों को ये समझाने लग जाएंगे कि मास्क पहनने से प्रदूषण खत्म हो जाता है तो मानकर चलिए हम मुसीबत से बच नहीं रहे हैं उसकी तरफ कदम बढ़ा रहे हैं.


खैर, ये तो आदर्शवाद की बात है लेकिन इसके पीछे एक बाज़ार भी मौजूद है जिसे हमें नहीं भूलना चाहिए. मुझे याद है आज से करीब दस साल पहले मुंबई-पुणे और आसपास के क्षेत्र में स्वाइन फ्लू नाम की नई बीमारी पनप गई थी. नई बीमारी थी तो बाजार भी नया था. बीमारी को संक्रामक बताया गया और इससे बचने के लिए मुंह पर मास्क लगाने की बात आई. इसके लिए सरकारी गाइडलाइन के हिसाब से एन-95 मास्क पहनने की हिदायत दी गई. एन-95 मास्क दरअसल हवा में मौजूद 0.3 माइक्रॉन जैसे छोटे कणों से बचाव करता है और उन्हें नाक के जरिये फेफड़ो तक पहुंचने से रोकता है.


अचानक पूरे शहर में एन-95 मास्क की मांग बढ़ गई, घबराई हुई जनता जिसमें से कइयों को ये तक नहीं मालूम था कि एन-95 मास्क होती क्या चीज़ है, वो दवा की दुकान पर मास्क की मांग कर रहे थे. दवा की दुकान वाले एन-95 के नाम पर सर्जिकल मास्क बेच रहे थे. 5 रुपये से भी कम कीमत वाला सर्जिकल मास्क 50 रुपये तक बिकने लगा. लोग उस सर्जिकल मास्क को पहनकर खुद को सुरक्षित महसूस करने लगे और बाहर निकलने लगे. पूरा शहर मास्क से ढंका हुआ दिखने लगा था. स्वाइन फ्लू के जरिये मास्क का एक बाजार खड़ा हुआ और स्थापित हो गया.


दिल्ली शहर पिछले कुछ सालों से बेहद गंभीर स्तर पर प्रदूषण की समस्या से जूझ रहा है. यहां पर भी मास्क के बाजार ने खुद को स्थापित कर लिया है और रही सही कसर ऐसे कैंपेन कर देते हैं जो ये बताते हैं कि मास्क पहन लो तो प्रदूषण खत्म हो जाएगा. गोया प्रदूषण आपको मास्क पहना देखकर आपसे रूठ जाएगा और आपको छोड़कर कभी वापस न आने की कसम खाकर चला जाएगा.


इसी प्रदूषण ने एक और चीज का बाजार खड़ा किया है. एयर-प्यूरीफायर. एक स्टार क्रिकेटर सिक्स बोलते हुए अपना हाथ ऊपर उठाते हैं और कहते हैं कि मेरे प्यूरीफायर ने केवल छह मिनट में घर की हवा को शुद्ध कर दिया.


बीते दिनों इस प्यूरीफायर को जिसे पहले एक ऐश्वर्य का साधन समझा जाता था, उसने दिल्ली के मध्यमवर्ग के बीच में जरूरी चीज की तरह खुद को स्थापित कर लिया है. एक कंपनी अपनी मशीन से निकली हवा को प्यार की तरह शुद्ध बताकर बेच रही है तो दूसरा ब्रांड बता रहा है कि उनका प्यूरीफायर मां की तरह ख्याल रखने वाला है. ब्रांड अपनी टैगलाइन दे रहा है कि 'घर की हवा को रखे एकदम साफ'. यानी आप घर में रहें और बचे रहें. अपनी कांच की बनी हुई बड़ी सी खिड़की से बाहर उठते धुंध को देखिये और एक ठंडी सांस लेकर प्यार से अपने प्यूरीफायर की तरफ देखिये और फिर गर्दन घुमा कर बाहर की गिरती हालत पर एक फेसबुक अपडेट लिख डालिए. यही तो हमारा नजरिया बनता जा रहा है.


हाल ही में सोनभद्र में बढ़ते प्रदूषण पर रिपोर्टिंग करने के दौरान मालूम चला कि घने जंगलों से घिरा ये इलाका भयानक प्रदूषण को झेल रहा है. यहां प्रदूषण का स्तर इस कदर बढ़ गया है कि पानी में फ्लोराइड, मर्करी, आर्सेनिक निकल रहा है जो हवा में भी घुलता जा रहा है. गांववालों को बहुत ज्यादा जानकारी तो नहीं है लेकिन उनको ये बता दिया गया है कि आरओ का पानी साफ होता है. बस अब उनकी मांग आरओ लगाने तक सिमटकर रह गई है. इलाके की बिगड़ती हालत पर काम करने वाले लोग उन्हें समझाने की कोशिश भी करते हैं कि आरओ इसका समाधान नहीं है, लेकिन उनकेदिमाग में आरओ की शुद्धता इस कदर घर कर गई है कि वो इस नज़रिये को बदल ही नहीं पा रहे हैं.


सरकार और नीति निर्माता भी यही काम करने में लगे हुए हैं. वो ये समझने को राजी ही नहीं हैं कि आरओ से निकला हुआ पानी तो उनके जमीन के पानी को और जहरीला बना रहा है. आप बड़े, मंझोले और अब तो छोटे शहरो में भी चले जाइए आपको लगभग हर घर में आरओ सिस्टम लगा हुआ मिल जाएगा. पुरानी अदाकारा और सांसद से लेकर नए कलाकार तक ये बताने में जुटे हुए हैं कि आरओ लगवा लो पानी साफ हो जाएगा. नदी को ठीक करने की कोई ज़रूरत नहीं है. एयर प्यूरीफायर लगवा लीजिए, मास्क पहन लीजिए, जंगल उगाने की कोई जरूरत नहीं है हवा साफ हो जाएगी.


हमारी सरकारों का रवैया भी कुछ इसी तरह का हो गया है. वो नदी को साफ करने से ज्यादा उसके सौंदर्यीकरण में जुटी हुई हैं, नए घाट बन रहे हैं, पुराने घाटों का जीर्णोद्धार हो रहा है और घाट के किनारे बहती हुई नदी को हमने बड़ा नाला मान लिया है जिसमें शहर से जुड़े छोटे नालों को शहर से बाहर ले जाकर जोड़ा जाता है. पेड़ लगाने की हमारी कवायद कुछ इस तरह की है कि मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री प्रदेश में एक करोड़ पौधे लगवा देते हैं, सुनने में लगता है अब तो चारों तरफ ऐसी बयार बहेगी कि जिसे अपने फेफड़ों से अंदर लेते ही आपके फेफड़े आपको किसी सुपरहीरो की तरह होने का अहसास कराएंगे. लेकिन किसी ने इस बात की सुध तक नहीं ली कि उन एक करोड़ पौधों का आखिर हुआ क्या. उनमें से लगभग 95 फीसदी से अधिक बचे ही नहीं.


खैर घर में प्यूरीफायर लगाइए पानी के लिए भी और हवा के लिए भी. बाकि घर से बाहर निकलिए तो मास्क पहनकर निकलिएगा. प्रदूषण को तो खैर छोड़ दीजिए, लेकिन इससे बाजार जरूर बना रहेगा और हां, वैसे भी जब हम हवा खरीद सकते हैं, तो जंगलों की जरूरत है भी क्या. और जब पानी घर पर शुद्ध हो सकता है तो गंगा जल जैसी शब्दावली तो बेमानी ही है. बाकि कभी किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर बगैर मास्क पहने एक बार लावारिस फिल्म के गाने के ये बोल ज़रूर गुनगुना लीजिएगा, 'इन हवाओं का मोल क्या दोगे, इन फिज़ाओं का मोल क्या दोगे, इन ज़मीनों का मोल हो शायद, आसमानों का मोल क्या दोगे...'


(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और WaterAid India 'WASH Matters 2018' के फैलो हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)