दिल्ली के द्वारका में रहने वाले लोगों ने पृथ्वी दिवस के ठिक एक दिन पहले एक रैली निकाली. रैली का उद्देश्य था भारत वंदना वन बचाओ अभियान. दरअसल पिछले महीने दिल्ली विकास प्राधिकरण ने इस जगह पर एक थीम पार्क बनाने की घोषणा की थी. जिसके तहत इस जगह को मिनी-इंडिया में तब्दील किया जाएगा जहां देश भर के खाने और संस्कृति के दर्शन किए जा सकेंगे. 446 करोड़ रुपये की लागत वाले इस प्रोजेक्ट से दिल्ली विकास प्राधिकरण शहर और वन का सौंदर्यीकरण करना चाह रही है. यहां के रहने वालों का कहना है कि उन्हें जंगल चाहिए, कोई थीम पार्क नहीं.


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पूरे विश्व भर में हम पर्यावरण बचाने के नाम पर सिर्फ सौंदर्यीकरण ही करने में लगे हुए हैं. जंगलों को काट कर हम वहां पार्क बना रहे है और पृथ्वी दिवस के दिन उसी पार्क में धरती को बचाने के लिए चिंतन शिविर लगा रहे हैं. हम यह समझने को ही राजी नहीं है कि पार्क बनाने से या विकास के नाम पर पुराने पेड़ों को उखाड़ कर नए लगाने से धरती का नहीं हम खुद का सर्वनाश करने में लगे हुए हैं.


ये बेहद अफसोसजनक है कि पर्यावरण को हम अभी तक अपना मुख्य मुद्दा मान ही नहीं पाए हैं. किसी भी पार्टी के घोषणापत्र में पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर अहमियत नहीं दी गई है. देश की सुरक्षा की बात हो रही है. रोजगार की बात है, मकान की बात है, यहां तक कि नल से जल लाने तक की बात है. लेकिन वो जल आएगा कहां से इस पर कोई गंभीर कदम उठाने की सोच ही नहीं रहा है. जब भी पर्यावरण को बचाने की बात होती है तो हमारी सरकारें नए पेड़ लगाने की मुहिम शुरू कर देती है. अभी हाल ही में दिल्ली में भी पांच लाख पौधे लगाने की मुहिम चली. आने वाले समय में इसमें से कितने बचते हैं, बचते या नहीं बचते हैं इस सवाल का जवाब सामने आ ही जाएगा. क्योंकि एक करोड़ पौधे (जो मध्यप्रदेश की पिछली सरकार ने लगाए थे जिसमे से एक लाख भी नहीं बचे), पांच लाख पेड़, ये सब रसीले जुमले है जिनको सुन कर अच्छा लगता है. ये आकर्षक भी है, बाद में कौन पूछने जा रहा है कि पौधे पेड़ बने या दफ्न हो गए.


ये पूरी तरह भ्रामक विचार है कि इंसान दोबारा से उसे तैयार कर सकता है जो प्रकृति से हमने ले लिया है. हम विकास के नाम पर, सौंदर्यीकरण के नाम पर जो हरियाली को मिटा देते हैं उसके एवज में कितने ही पौधे लगां लें लेकिन वो कभी भी पुराने पेड़ की जगह नहीं ले सकते हैं.


थोड़ा भी विज्ञान जानने वाले को मालूम है कि किसी भी ग्रह पर जीवन संभव तभी है अगर वहां पर मुक्त ऑक्सीजन मौजूद है. जहां तक पानी का सवाल है तो वो पृथ्वी के अलावा कई दूसरे हिस्सों में मिला है. लेकिन ऑक्सीजन ही वो चीज़ है जो पृथ्वी को महत्वपूर्ण बनाती है. ये मुक्त ऑक्सीजन वायुमंडल में बहुत समय तक टिक नहीं सकती है. हम जैसे तमाम तरह के जीव जो इस धरती पर रह रहे हैं वो अपनी सांस में इसका इस्तेमाल करते हैं फिर भी वायुमंडल का पांचवा हिस्सा इस मुक्त ऑक्सीजन का ही है. इसकी वजह वो पेड़-पौधे, वनस्पति ही है जो इसे अपनी सांस में छोड़ते हैं. सोचिए आधी से ज्यादा ऑक्सीजन तो समुद्री काई और हरे-नीले बैक्टीरिया ही पैदा करते हैं. कुल मिलाकर हम प्रकृति के झूठन पर जिंदा है. वो जो त्याग देते हैं वहीं हमारी सांस है. 


हम इंसान जो खुद को आहार श्रंखला में सबसे ऊपर रखते हैं. कायदे में हमसे बड़ा परजीवी कोई नहीं है. हमने हमेशा दूसरे के हक को हड़प कर या उससे लेकर खुद का गुजारा किया है. यही नहीं वेदों में भी इस बात का उल्लेख मिलता है कि धरती पर पहले जीवन का अनुपात 1 के सामने 100 का था यानि एक करोड़ इंसान थे तो सौ करोड़ मवेशी और दूसरे जीव थे. प्रकृति ने इन्हें इसी तरह बनाया था, लेकिन कालांतर में हम सौ गुना हो गए और बाकी जीव सिमट गए. हमारी संख्या बढ़ी तो जंगल घटे, प्रकृति के दूसरे संसाधनों पर हमारे कब्ज़े से उन संसाधनों के असली हकदार जीवों को नुकसान पहुंचा. और धीरे-धीरे हमने सबको हड़प लिया, आज हम उसी का नतीजा भुगत रहे हैं. खास बात ये है कि अब हम इंसानो का पेट भरने के लिए  मवेशियों का उत्पादन कर रहे हैं और इसका भार भी हमारे जंगल उठा रहे हैं. 


डॉक्यूमेंट्री 'ईयर्स ऑफ लिविंग डेंजरसली'  - जो मौसम में हो रहे बदलावों पर बारीकी से निरीक्षण करती है - में  बताया गया है कि किस तरह अमेज़न के जंगलों को बुरी तरह से साफ किया जा रहा है . वहां एक खोज से पता चला कि महज दस दिनों के भीतर ही वहां के 351 एकड़ जंगलों का सफाया हो गया. बीते कुछ सालों में ही यहां का एक बड़ा हिस्सा जंगल से मैदान में तब्दील हो चुका है. इस तरह से जंगल तेजी से काटे जाने की वजह भी बड़ी चौंकाने वाली है. दरअसल ब्राजील विश्व के सबसे बड़े बीफ एक्सपोर्टर में से एक है. अमेरिका और चीन के साथ बाज़ार में प्रतियोगिता कर रहा ब्राजील बीफ के एक्सपोर्ट को बढ़ावा देने के लिए तेजी से जंगलों को साफ कर रहा है जिससे वहां जंगल का मैदान बनाया जा सके और मवेशी वहां चारा खा सकें. इससे न सिर्फ जंगलों को नुकसान पहुंच रहा है बल्कि वहां रहने वाली कई प्रजातियां भी इसकी चपेट में आकर खत्म होती जा रही हैं.


जिन्हें इस तरह पेड़ों का काटा जाना कोई बड़ी बात नहीं लगती, या जो ये सोचते हैं कि नए पौधे लगाकर वो इसकी भरपाई कर लेंगे, उन्हें यह समझाना जरूरी है कि अगर इसी तरह पेड़ों को खोते जाएंगे तो हम उस एयरकंडीशनिंग को खत्म कर देंगे जो इस पूरे पृथ्वी ग्रह को ठंडा रखता है. प्रकृति की एक बड़ी ही अनूठी प्रक्रिया है यहां कुछ भी व्यर्थ नहीं जाता है. किसी एक का त्यागा गया दूसरे के लिए उपयोगी बन जाता है. इसे ही पारस्परिक सांमजस्य कहा जाता है.  


यानि हमने जिस तरह से भी जो कार्बन छोड़ी उसे पेड़ स्टोर कर लेते हैं तो और अगर इन्हें काट दिया जाएगा तो  इसका सीधा सा मतलब है कि हवा में कार्बन की मात्रा बढ़ जाएगी. ऐसे में अगर हम अमेज़न जैसे जंगल को खो देंगे तो हम दुनिया के सबसे बड़े ट्रॉपिकल फॉरेस्ट से कहीं और ज्यादा बड़ी चीज को अपने हाथ से गंवा देंगे. अगर जंगल को खत्म कर दिया जाएगा तो क्लाइमेट चेंज होगा और जो जंगल बच जाएंगे उन पर भी बुरा असर पड़ेगा. फिर जंगल सूखते जाएंगे, सूखते जाएंगे और एक दिन उसमें आग लग जाएगी.


इससे भी बड़ी बात अगर आपने उसे नहीं संभाला तो आपका हमारा मिटना तो तय है. ज़रूरी ये है कि बुनियादी सुविधाओं के नाम पर चुनाव लड़ने और जीतने वाले देश के नुमाइंदो को ये अहसास करवाया जाए कि सबसे पहले हम उसे संभाले जिस पर हमारी बुनियाद टिकी हुई है. जिस तरह दिल्ली के द्वारका या मुंबई के आरे जंगल या अरावली के पहाड़ों को बचाने के लिए जनता एकजुट हुई वैसे और एकजुट होना बेहद ज़रूरी हो गया है. अब प्रगति के विचार को बदलने की ज़रूरत है. पांच साल मे एक भी बार शक्ल नहीं दिखाई या हमारे इलाके में विकास के नाम पर क्या हुआ, जैसे सवालों से बढ़कर अब स्थानीय स्तर पर हर नागरिक को ये सवाल पूछना चाहिए कि हर छोटी बड़ी परियोजनाओं के एवज में विकास के नाम पर सरकार ने पर्यावरण की सेहत को कितना नुकसान पहुंचाया है. रही बात पृथ्वी दिवस मनाने की तो ये समझना होगा धरती करोड़ो सालों की है उसका दिवस मत मनाइए बल्कि खुद को बचाइए. 


(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और WaterAid India 'WASH Matters 2018' के फैलो हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)